करवा चौथ- महिला असमानता                                 

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करवा चौथ- महिला असमानता   – एन के त्रिपाठी                                

करवा चौथ का पर्व अब चकाचौंध पूर्ण बन चुका है। परंतु इसकी चमक और आडंबर के नीचे महिला असमानता की एक पीड़ाजनक स्थिति विद्यमान् है।

हिंदूवादी परंपरा अत्यधिक उदार रही है और इसमें मुक्त विचार विमर्श करने पर किसी फ़तवे का भय नहीं होता है। उसी उदारता का लाभ लेते हुए मैं कहना चाहूंगा कि हिन्दू धर्म की अनेक सामाजिक मान्यताएं सभी धर्मों के समान ही पूर्णतया पुरुषवादी रही है। महिलाओं के साथ भेदभाव किसी एक धर्म का विशेषाधिकार नहीं है और हिन्दू धर्म भी इसका अपवाद नहीं है।

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किसी भी धर्म का वास्तविक रूप केवल उसके धर्म ग्रंथ नहीं होते हैं। हिन्दू धर्म तो अन्य धर्मो के विपरीत केवल एक पुस्तक पर आधारित भी नहीं है। धर्म का वास्तविक रूप मान्यताओं और रीतियों पर आधारित उसकी वर्तमान सांस्कृतिक एवं सामाजिक व्यवस्था होती है। हिन्दू धर्म का मूलाधार ऋग्वेद है।इसमें शाश्वत मूल्यों और सिद्धांतों का उल्लेख किया गया है। कालांतर में उपनिषदों ( वेदान्त) में अनेक प्रकार के दर्शनों का उल्लेख किया गया। समानांतर रूप से पौराणिक कथाओं का व्यापक एवं विशद साहित्य सृजित किया गया।इन कथाओं में मनीषियों ने अपने अनुसार प्रसंगों का चयन कर नाना प्रकार के मत-मतांतरों का प्रादुर्भाव किया है। इनके आधार पर सामाजिक संरचना एवं रीतियों की अनेकानेक मान्यताएं विकसित हुई है।

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ग्रन्थों में कुछ स्थानों पर महिलाओं को अत्यंत सम्मान का स्थान दिया गया तथा दुर्गा जैसी सर्वशक्तिमान देवी का रूप प्रस्तुत हुआ। दुर्भाग्यवश अधिकांश चयनित कथाएं नारी को द्वितीय श्रेणी में रेखांकित करती रही।नारी के लिए अहिल्या, सती सावित्री एवं सीता जैसी पात्रों को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया गया। इन्होंने पुरुषों के निर्णयों से उत्पन्न विपरीत परिस्थितियों को भी अपना सौभाग्य माना। सीता की अग्नि परीक्षा के बाद भी उन्हें अन्यायपूर्वक ढंग से वन गमन का दंड दिया गया।वीरवती और सावित्री ने अपने पतियों को प्राप्त करने के लिए अनेक कठिनाइयों का सामना किया। अहिल्या को अकारण पत्थर बनना पड़ा। सभी धर्मग्रंथ पति के कर्तव्यों पर लगभग शांत है।

एक दिन का पत्नी द्वारा व्रत रखना अपने आप में कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। परन्तु यह पुरुषवादी सत्ता के समक्ष आत्मसमर्पण है। समय आ गया है जब हिंदू समाज अपनी नारियों को वही समानता दे जो हमारे धर्म- ग्रंथों मे कुछ स्थानों पर कहा गया है।