Politico Web: “बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी, लोग बे-वज्ह उदासी की सबब पूछेंगे”
इंदिरा से लेकर राहुल तक गांधी परिवार के नजदीकी, मध्यप्रदेश के कद्दावर माने जाने वाले बिजनेसमैन नेता जिनकी सूबे का एक बार सीएम बनने की बड़ी हसरत थी। येनकेन प्रकारेण उनकी हसरत 15 माह के लिए दिसंबर 2018 से मार्च 2020 तक पूरी भी हुई। पर सांगाठनिक गुटबाजी व खींचतान के चलते 15 साल बाद मिले सरकार बनाने के मौके को ज्यादा समय तक संभाल कर नहीं रख सके। ज्योतिरादित्य सिंधिया खेमे द्वारा कमलनाथ सरकार के नीचे से कालीन खींचने के बाद तत्कालीन सरकार के दो ध्रुव ही रह गए थे जो अपने हितों के कारण विपरीत दिशागामी थे।
पहले कमलनाथ और दूसरे पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह। दोनों ही गुटों ने सरकार गिराने के लिए जिम्मेदारी का ठीकरा एक दूसरे के सिर पर फोड़ने की हर संभव कोशिश की। फिर जो बात बिगड़ी तो बिगड़ती ही चली गई और कमलनाथ के एतिहासिक जुमले ‘That’s true’ ने तो कफन में अंतिम कील ही जड़ दी। प्रतिष्ठा और मूंछ की इस लड़ाई में निश्चित मानिए कांग्रेस का जरा भी फायदा नहीं होने जा रहा है। शायद इसी पूरे प्रकरण के लिए ही प्रसिद्ध शायर कफील आज़र अमरोहवी की मशहूर नज्म “बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी, लोग बेवज्ह उदासी की सबब पूछेंगे” लिखी गई थी जिसे जगजीत सिंह ने अपनी आवाज देकर अमर कर दिया था।
कांग्रेस आलाकमान के विश्वस्त होने के कारण कमलनाथ को यूं ही खारिज कर पाना दिग्विजय सिंह और उनके सिपाहसालारों के लिए आसान नहीं था। पार्टी के आंतरिक सूत्रों पर भरोसा करें तो पता चलता है कि यह खींचतान नवंबर 2018 में होने वाले चुनाव में ही टिकट बंटवारे के समय खुल कर सामने आ गई थी। तब पार्टी के तीसरे ध्रुव ज्योतिरादित्य सिंधिया भी सक्रिय थे। सभी अपने अपने लोगों को ज्यादा से ज्यादा टिकट देकर सीएम के लिए अपनी दावेदारी पेश करने के चक्कर में लगे थे।
यह भी सही है कि दिल्ली में कांग्रेसी आलाकमान भी साफतौर पर यह तय नहीं कर पा रहा था कि मध्यप्रदेश में सीएम को चेहरे के तौर पर किसे प्रोजेक्ट किया जाए। ऐसी ही ऊंहापोह राजस्शान में भी थी। कांग्रेस पार्टी ने आधिकारिक तौर पर न मध्यप्रदेश में, न ही राजस्थान में किसी का चेहरा आगे किया था पर संकेतों के माध्यम से ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट का नाम हवा में रखा। इन दोनों युवा और उत्साही चेहरों ने अपनी भूमिका निभाई और कांग्रेस को सत्ता के द्वार तक ले आए।
मध्यप्रदेश में कांग्रेस मुख्यमंत्री के तौर पर ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम सबसे आगे भी था। राहुल गांधी भी कुछ कुछ सहमत होते दिख रहे थे तभी कमलनाथ, जिनकी सूबे का एक बार सीएम बनने की बड़ी हसरत थी, ने गांधी परिवार की पीढ़ी-दर-पीढ़ी सेवा का हवाला दिया और दिग्विजय सिंह को सरकार में महत्व देने का वादा कर अपने साथ ले लिया। तब राहुल और प्रियंका गांधी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को कम उम्र का होने के नाते समझाया कि 1946 में जन्मे कमलनाथ के लिए मप्र में शायद ही फिर दोबारा मौका मिले।
वैसे भी कमलनाथ केन्द्र सरकार में लंबे समय तक महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके थे पर उनका मानना था कि अगर अपने सूबे में सीएम न बन सके तो ऐसी राजनीति का क्या फायदा। यह तो वैसे ही हुआ जैसे जंगल में मोर नाचा, किसने देखा। एक बार मध्यप्रदेश के सीएम की कुर्सी पर बैठने के कमलनाथ के दबावपूर्ण आग्रह को कांग्रेस आलाकमान ने मान लिया। फिर प्रदेश के 18वें सीएम के रूप में कमलनाथ की ताजपोशी हो गई।
पहली बार सीएम बनने के बाद कमलनाथ ने वल्लभ भवन से प्रदेश को चलाना शुरू कर दिया। कुछ खास नेताओं से घिर गए। वे ही प्रदेश चलाने में उनके आंख, नाक व कान हुआ करते थे। नौकरशाही के भी मजे थे, उनकी मनमानी गतिविधियों पर नियंत्रण न के बराबर था। हद तो तब हुई जब अपने को ‘किंगमेकर’ समझ रहे राज्यसभा सांसद, वरिष्ठ कांग्रेस नेता व पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को भी अपने समर्थकों व कार्यकर्ताओं के काम कराने के लिए महीनों इंतजार करना पड़ने लगा।
जब उन्होंने इस बारे में पूछ परख की तो कमलनाथ सरकार के मंत्री उमंग सिंघार ने सितंबर, 2019 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखा कि मध्यप्रदेश में कमलनाथ सरकार को पार्टी के ही कद्दावर नेता एवं सांसद दिग्विजय सिंह अस्थिर कर स्वंय को पावर सेंटर के रूप में स्थापित करने में जुटे हैं। वे पत्र में आगे लिखते हैं कि मंत्री अपने मुख्यमंत्री के प्रति उत्तरदायित्व होता है। दिग्विजय सिंह एक राज्यसभा सदस्य हैं।
वे पत्र लिखकर मंत्रियों से ट्रांसफर-पोस्टिंग का हिसाब ले रहे हैं, जो अनुचित है। ऐसे में तो अन्य सांसद, राज्यसभा सदस्य और नेतागण भी मंत्रियों को लिखे पत्रों का हिसाब-किताब लेना शुरू कर देंगे। यदि यह परंपरा पड़ गयी तो मंत्री सरकारी कामकाज और जनहितैषी योजनाओं को क्रियान्वयन कैसे कर पाएंगे। राजनीति का ककहरा जानने वाला कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि उमंग सिंघार जैसे मंत्री में आखिर इतनी ताकत और सामर्थ्य कहां से आ गई कि वह दिग्गज दिग्विजय सिंह की खुले तौर पर आलाकमान से शिकायत कर पंगा ले और दबंगई के साथ पत्र भी प्रेस को जारी करे।
दूसरी तरफ दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया गुट के मंत्रियों को दोयम दर्जे वाले मंत्रालय देकर कमनलाथ द्वारा दरकिनार किया जा रहा था। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया गुट को अपना भविष्य समझ में आ गया था। इसीलिए मौका मिलते ही उन्होंने दलबल सहित भाजपा का दामन साध लिया और कमलनाथ को मजा चखा दिया। कमलनाथ कैंप का मानना है कि दिग्विजय सिंह ने कमलनाथ को पूरा भरोसा दिया था कि सिंधिया कैंप में तोड़फोड़ कर के वे उनकी सरकार को खतरे में नहीं पड़ने देंगे। अंदरखाने चर्चा है कि कमलनाथ सरकार गिराने में प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष तौर पर तो दिग्विजय कैंप का भी हाथ रहा है।
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वैसे भी कमलनाथ बिजनेस टायकून टाइप राजनीतिक माने जाते रहे हैं। वे एसी बोर्डरूम में बैठकर रणनीति तो अच्छी बना सकते हैं और उसके क्रियान्वयन के लिए संसाधन भी जुटा सकते हैं, पैसा पानी की तरह बहा सकते हैं पर ग्राउंड लेवल पर जरा भी प्रभावी नहीं दिखते हैं। यही कारण है कि उनकी सरकार को वल्लभ भवन के एसी रूम से चलने वाली सरकार भी कहा जाता रहा है।
हद तो पिछले माह जनवरी में तब हो गई जब धरना स्थल पर मिले दोनों दिग्गज नेताओं कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की तंज व तल्ख बातचीत का वीडियो वायरल हुआ। सोशल मीडिया पर वायरल 21 सेकंड के इस वीडियो में कमलनाथ दिग्विजय सिंह से कहते हैं कि ये बात आपको बतानी चाहिए थी। चार दिन पहले ही हम उनसे मिले थे। इस पर दिग्विजय सिंह जवाब देते हैं कि ये बात आपको बताने की जरूरत नहीं थी। इसके बाद कमलनाथ कहते हैं कि मैं छिंदवाड़ा चला गया। दिग्विजय सिंह फिर कहते हैं कि हम तो डेढ़ महीने से उनसे मिलने के लिए समय मांग रहे हैं। इसके बाद दिग्विजय सिंह कहते हैं कि मुख्यमंत्री से मिलने के लिए मैं आपके थ्रू समय की मांग करूं। कमलनाथ फिर तल्ख लहजे में तंज कसते हुए बोलते हैं ‘That’s true’।
मामला यहीं नहीं रुका। पिछले दिनों भोपाल में प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में प्रदेश प्रभारी मुकुल वासनिक के साथ होने वाली बैठक में दिग्विजय सिंह ने न पहुंचकर स्पष्ट संकेत दे दिए हैं कि “बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी, लोग बे-वज्ह उदासी की सबब पूछेंगे”।
मप्र में नवंबर 2023 में विधानसभा चुनाव होने हैं।वैसे कहा भी गया है कि दो बिल्लियों की लड़ाई में फायदा बंदर का होता है और आज मध्यप्रदेश में भी ऐसा ही होता लग रहा है।पर अब यह हमसे मत पूछिएगा कि बंदर कौन है और बिल्ली कौन है?