
वसंत देसाई – हिंदी सिनेमा की वह धड़कन, जिसे सुरों के शोर में अक्सर अनसुना कर दिया गया
कीर्ति कापसे की विशेष रिपोर्ट
हिंदी सिनेमा का इतिहास जब जब अपनी गौरवशाली धुनों को याद करता है, वह कुछ नामों पर ठहर जाता है नौशाद, रोशन, एस.डी. बर्मन, शंकर जयकिशन। लेकिन उन चमकते नामों के बीच एक ऐसा सुर भी है जो कभी जोर से नहीं बोला, जिसने कभी शोहरत का दरवाज़ा नहीं खटखटाया, पर जिसने संगीत को इतनी पवित्रता से साधा कि उसकी धुनों में सुबह की पहली आरती की सी शांति, मंदिर के प्रांगण की सी पवित्रता और भारतीय रागों का असली तेज़ आज भी चमकता है। यह सुर साधक था वसंत देसाई।
वसंत देसाई का जीवन किसी फिल्मी चरित्र की तरह ढलता है एक संपन्न परिवार का पढ़ा-लिखा युवा, जिसने हीरो बनने का स्वप्न देखा था, कैमरों के सामने खड़ा होने की चाहत थी, और जिसकी किस्मत उसे व्ही. शांताराम के दरबार तक ले गई। लेकिन यही वह जगह थी जहाँ उनके सपनों का पहला दृश्य बदला और फिल्म का असली नायक उनका संगीत जन्मा। शांताराम ने उन्हें हीरो बनने नहीं दिया; पहले ऑफिस-बॉय, फिर स्पॉट-बॉय, कभी डांसर, कभी सेट पर दौड़ते किसी सहायक की भूमिका… पर शायद यही वह प्रशिक्षण था जिसने उन्हें फिल्म निर्माण की हर नब्ज़ पहचानना सिखाया। एक बड़े निर्देशक की नज़र अक्सर कलाकार से पहले शख्सियत को परखती है और वसंत देसाई की शख्सियत में शांताराम को एक साधक दिखा, एक ऐसा इंसान जो अभिनय से अधिक सुरों का आदमी था।
उनकी पहली बड़ी निराशा मानुस’ फिल्म में हीरो के लिए उनका चयन हुआ किंतु हीरोइन ने कहा कि इनकी हाइट कम है बस वही से हीरो के रूप में हटा दिया गया । यही उनकी किस्मत की सबसे सुंदर दिशा बन गई। उस समय यह उनके लिए एक झटका था, लेकिन वही झटका उनकी आत्मा में बैठे संगीतकार को बाहर ले आया। जब उन्होंने रिकॉर्डिंग रूम में धीमे से हारमोनियम छुआ, तो शांताराम ने पहली बार उस सुर के भीतर छिपा समुद्र सुना। और वहीं से शुरू हुआ एक लंबा, दुर्लभ और भारतीय सिनेमा के इतिहास में अनूठा सहयोग शांताराम और देसाई का।
वसंत देसाई का संगीत शोर नहीं मचाता था। वह लाउडनेस की उस भाषा से अलग था, जो 50–60 के दशक में तेजी से उभर रही थी। उनके सुर तड़क-भड़क वाले लोकप्रिय संगीत की भीड़ में सादगी के दीपक थे। शांत, गहरा और लगभग आध्यात्मिक। शायद यही वजह है कि ‘दो आंखें बारह हाथ’ का “ए मालिक तेरे बंदे हम…” सिर्फ एक फिल्मी गीत नहीं रहा वह प्रार्थना बन गया। भारत के स्कूलों में, पाकिस्तान की कई शिक्षण संस्थाओं में, यहाँ तक कि कुछ जगहों पर सेना की परेड तक में इसकी धुनें बजने लगीं। यह उस संगीतकार की सफलता थी जिसे भीड़ पसंद नहीं थी, जिसे शोहरत की सीढ़ियाँ चढ़ने से ज़्यादा सुरों की सीढ़ियाँ चढ़ना भाता था।
दिलचस्प है कि 1955 में ‘झनक झनक पायल बाजे’ में मीरा बाई का भजन—“तो तुम तोड़ो पिया…” लता की आवाज़ और वसंत देसाई के संगीत के साथ अमर हुआ, तो 30 साल बाद ‘सिलसिला’ में वही भजन दुबारा हुआ गायिका फिर लता ही थीं, लेकिन क्रेडिट किसी और के नाम। यह सिनेमा की राजनीति थी; देसाई जैसे सरल, आत्मकेंद्रित संगीतकार इन खेलों को समझ भी नहीं पाते थे, और समझते भी तो परवाह नहीं करते। शांति उनका स्वभाव थी और संगीत उनका धर्म।
वसंत देसाई का वास्तविक ज्ञान इस बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने केवल फिल्मी धुनें नहीं बनाईं उन्होंने भारतीय रागों, लोक-संगीत और शास्त्रीय गायन की गाड़ी को एक साथ खींचा। एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी द्वारा UNO में प्रस्तुत “मैत्रीम भजत” की धुन उन्हीं की थी। ‘गूँज उठी शहनाई’ में बिस्मिल्लाह खान को रिकॉर्डिंग रूम में बुलाना कोई साहसिक प्रयोग नहीं, बल्कि देसाई की दृष्टि थी वे जानते थे कि भारतीयता की आत्मा वहीं है जहाँ परंपरा और संवेदना का संगम होता है।
उनकी धुनें इतनी पवित्र थीं कि किसी भी संगीतकार की ईर्ष्या बन सकती थीं फिर भी उनके जीवन का सबसे बड़ा दोष यही रहा कि वे अपनी कला को प्रमोशन का हथियार नहीं बनाते थे। वे पुरस्कार समारोहों में नहीं जाते, बड़े इंटरव्यू नहीं देते, पार्टियों में नजर नहीं आते। वे सुरों के आदमी थे लोगों के बीच नहीं, अपने संगीत के बीच खुश।

और शायद इसी कारण, उनका अंत भी फिल्मों की तरह नाटकीय लेकिन बेहद दुखद हुआ। राजकमल स्टूडियो की लिफ्ट में एक साधारण-सी दुर्घटना और भारतीय सिनेमा का यह शांत, गूढ़ संगीतकार एक क्षण में खो गया। उस दिन सिर्फ एक व्यक्ति ख़त्म नहीं हूआ था संगीत की वह परंपरा जो सादगी और गंभीरता में विश्वास रखती थी, वह भी घायल हुई थी।
वसंत देसाई को फिल्म उद्योग ने शायद उतना नहीं अपनाया, जितना उन्हें अपनाना चाहिए था। वे रेडियो पर कम बजे, मैगज़ीनों में कम दिखे, पुरस्कारों की सूची में हमेशा नीचे रहे। पर उनके गीतों ने जितनी लंबी यात्रा तय की वह किसी भी सम्मान से बड़ी है। संगीतकार बदलते हैं, फैशन बदलता है, पर प्रार्थना नहीं बदलती। और देसाई का संगीत उसे उसी अनंत की सीढ़ियाँ छूता हुआ मालूम देता है।
आज भी जब किसी सुबह की प्रार्थना में “ए मालिक तेरे बंदे हम” की धुन उठती है, या किसी कथक प्रदर्शन में ‘झनक झनक पायल बाजे’ की ताल बिखरती है, तो पता चलता है कि वसंत देसाई कहीं गए नहीं वे वहीं हैं, उसी शांत, प्रकाश से भरे संसार में जहाँ संगीत शब्द नहीं, साधना होता है।





