गले तक पानी में उतरकर निकालनी पड़ रही शवयात्रा: बरसों से अधूरी पुलिया, चारेल के ग्रामीण कब तक झेलेंगे यह पीड़ा

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गले तक पानी में उतरकर निकालनी पड़ रही शवयात्रा: बरसों से अधूरी पुलिया, चारेल के ग्रामीण कब तक झेलेंगे यह पीड़ा

 राजेश जयंत

Jhabua: झाबुआ जिले के मेघनगर जनपद के ग्राम चारेल में 17 नवंबर को जो दृश्य सामने आया, उसने पूरे तंत्र की संवेदनहीनता को उजागर कर दिया। अंतिम यात्रा को कंधे पर लेकर परिजन गले तक भरे पानी में उतरे – न पक्का रास्ता, न पुलिया, न कोई वैकल्पिक मार्ग। सवाल उठता है कि क्या विकास के दावों के बीच आदिवासी अंचल आज भी इतने ही बेसहाय हैं कि अंतिम संस्कार जैसी मानवीय गरिमा भी सुरक्षित नहीं?

▪️श्मशान तक ‘सम्मान का रास्ता’ न बना सकने वाली व्यवस्था पर सवाल
▫️पानी में डूबा रास्ता, अंतिम यात्रा बनी संघर्ष यात्रा। चारेल गांव से श्मशान तक जाने वाला यही एकमात्र मार्ग है, जो हर वर्ष बारिश में जलमग्न हो जाता है। सोमवार को एक ग्रामीण की शवयात्रा को कंधों पर उठाकर परिजन गले-भर पानी में उतरे। कई जगह पानी इतना ऊपर था कि शव को बचाते हुए ग्रामीण खुद डगमगाते रहे।
ग्रामीणों का दर्द साफ है: “यह कोई पहली बार नहीं, हर साल ऐसा ही होता है। अंतिम संस्कार भी सम्मान से न कर पाना किस विकास की तस्वीर है?”
▪️दो दशक से लंबित मांग: हर बार आश्वासन, हर बार छलावा
▫️ग्रामवासियों ने सरपंच से लेकर विधायक-सांसद तक सभी से पुलिया निर्माण की मांग की है। पर हालत यह है कि दो दशक से यह मांग फाइलों में घूम रही है। हर चुनाव में वादा किया जाता है कि ‘इस बार पुलिया बनेगी’, लेकिन वास्तविकता में ग्रामीण जलभराव में ही संघर्ष करते रहते हैं।
यह समस्या किसी एक शवयात्रा की नहीं- हर वर्ष कई परिवारों के लिए यह अपमानजनक और जोखिमभरी स्थिति दोहराई जाती है।

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▪️जनप्रतिनिधियों की उदासीनता पर आक्रोश
▫️ग्रामवासियों का आरोप है कि जनप्रतिनिधि विकास की बातें तो करते हैं, लेकिन चारेल जैसे गांवों की मूलभूत समस्याओं को जानबूझकर नजरअंदाज किया जाता है। ग्रामीण सवाल करते हैं:
“जब करोड़ों की योजनाएं मंजूर होती हैं, तो एक छोटी पुलिया क्यों नहीं बन पाती?”
▪️जयस नेता अनेश भूरिया की पोस्ट ने उठाए गंभीर सवाल
▫️घटना को सोशल मीडिया पर जयस के युवा नेता अनेश भूरिया ने तीखे शब्दों में उठाया। उनकी फेसबुक पोस्ट लोगों के बीच तेज़ी से चर्चा का केंद्र बन गई। उन्होंने लिखा- “अंतिम जोहार। ग्राम चारेल में अंतिम संस्कार की अंतिम यात्रा भी चिंताजनक, शर्मसार और दुखद है।
अंतिम स्थल तक जाने का रास्ता नहीं है, शव को गले तक पानी में से ले जाना पड़ता है। आदिवासी समाज के विकास की बात करने वाले जनप्रतिनिधि- सरपंच, जनपद सदस्य, जिला पंचायत सदस्य, विधायक, सांसद- कौन सी नींद में हैं? एक छोटे से पुल का निर्माण भी नहीं करवा पा रहे। शर्म आनी चाहिए ऐसी राजनीति पर।”
▫️यह पोस्ट क्षेत्र में आक्रोश की मुख्य वजह बनी और लोगों में सवाल उठने लगे कि आखिर इतने वर्षों बाद भी प्रशासन ने समाधान क्यों नहीं निकाला?

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▪️प्रशासन के सामने खड़े गंभीर सवाल
▫️यह सिर्फ एक गांव की समस्या नहीं, बल्कि आदिवासी क्षेत्रों की उपेक्षा का प्रतीक है। प्रशासन को इन सवालों का जवाब देना ही होगा-
1. जब समस्या हर साल दोहराई जाती है तो स्थायी समाधान अब तक क्यों नहीं?
2. पुलिया निर्माण की स्वीकृति वर्षों से लंबित कैसे?
3. क्या किसी अधिकारी या जनप्रतिनिधि ने कभी इस मार्ग का निरीक्षण किया?
4. विकास रिपोर्टों में चारेल को सुविधाजनक बताना वास्तविकता से छुपाव क्यों?
5. अंतिम संस्कार जैसी संवेदनशील आवश्यकता को प्राथमिकता में क्यों नहीं रखा गया?

▪️ग्रामीणों का अल्टीमेटम: समाधान नहीं तो जनआंदोलन
▫️ग्रामीण अब आश्वासनों से संतुष्ट नहीं। उनकी स्पष्ट मांग है-
* श्मशान मार्ग पर तुरंत पक्की पुलिया का निर्माण
* वैकल्पिक मार्ग की उपलब्धता
* बरसात के दौरान आपातकालीन सहायता व्यवस्था
उन्होंने चेतावनी दी है कि इस बार भी कार्रवाई न हुई तो सामूहिक आंदोलन होगा और मुद्दा आदिवासी अंचल स्तर पर उठाया जाएगा।
📍चारेल की घटना सिर्फ एक जलमग्न रास्ते की कहानी नहीं-यह विकास और वास्तविकता के बीच गहरी खाई का प्रमाण है। अंतिम यात्रा को सम्मानजनक मार्ग तक न दे पाना प्रशासन की असफलता ही नहीं, बल्कि जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही पर भी गंभीर प्रश्न है। अब यह समस्या ‘हर साल दोहराई जाने वाली त्रासदी’ नहीं रहनी चाहिए; इसे तत्काल समाधान की शीर्ष प्राथमिकता बनना चाहिए!!