बेलबॉटम का दौर फिर याद आया : फैशन और मजाक के उस सुनहरे समय की कहानी

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बेलबॉटम का दौर फिर याद आया : फैशन और मजाक के उस सुनहरे समय की कहानी

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▪️सत्तर और अस्सी के दशक का जिक्र होते ही फैशन की दुनिया का एक ही नाम सबसे पहले याद आता है, बेलबॉटम। उस दौर में यह केवल एक कपडा नहीं था, बल्कि पूरी पीढी की पहचान, शैली और स्वछंदता का प्रतीक माना जाता था। “मुकेश नेमा” अपने लेख में बेलबॉटम के माध्यम से उस समय की सांस्कृतिक हलचल, सामाजिक बदलाव और युवाओं की जीवनशैली को एक तंज भरे, मगर आत्मीय अंदाज में इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि पाठक उसी बीते समय में पहुंच जाता है। यह केवल एक वस्त्र का विवरण नहीं बल्कि उस युग की सोच, हास्य, मासूमियत और समाज की बनावट का सटीक दर्पण भी है।

*सत्तर- अस्सी का फैशन तोहफा: बेलबॉटम और उसकी यादें*

🌀मुकेश नेमा

▪️तीस इंच की कमर से बहुत ऊपर ,बत्तीस इंच के सीने के कुछ ही नीचे से उनतीस इंच का होकर शुरू होता था ये अधोवस्त्र। घुटनों तक तो ठीक ठाक टाईप का ही विकास होता था इसका फिर ये किसी संक्रामक बीमारी की तरह फैलता था और टखनों से एडी तक पहुंचते पहुंचते छियालीस इंच के घाघरे में बदल जाता था। सन सत्तर के जमाने का यह सबसे लोकप्रिय अधोवस्त्र था। लडकियों और लडको दोनों ने इससे समान भाव से प्रेम किया। होड हुआ करती थी इसे पहनने वालों में कि उनकी पतलून की मोहरी दूसरों से ज्यादा हो। पेंट का पुरखा था ये और इसका नाम बेलबॉटम था।

▪️पता नहीं किस नौसिखिये दर्जी ने ईजाद किया इसे। बहुत मुमकिन है कि किसी जीनियस की गलती का ही नतीजा हो ये। दर्जी ईमानदार रहा हो शायद उसे कपडा बचाने में दिलचस्पी न रही हो, बहरहाल जो भी हुआ हो, इस अजूबे को बनाकर बनाने वाला खुद हैरान जरूर हुआ होगा। हो सकता है खुद पहना हो उसने इसे या जिसके लिये बनाया हो उसे नई फैशन बताकर टिका दिया हो। लोग अमिताभ बच्चन का पाप भी बताते हैं इसे यह वस्त्र ऊपर से पुरुष होकर शुरू होता था और टखनों तक आते आते स्त्री हो जाता था उन दिनों ताजे ताजे जवान हुए छोकरों में से अब तक जिंदा एक भी आदमी ऐसा नहीं होगा जो अपने बच्चों की कसम खाकर यह कह सके कि उसने इस नामुराद सडक झाडने वाली चीज को कभी नहीं पहना।

▪️सडक झाडने वाली चीज इसलिये थी कि ये आदमी के पंजों और जूतों तक आकर खत्म होती नहीं थी। यह उन्हें पार कर वहां तक जाती थी जहां तक पहुंचना मुमकिन हो सकता था।चूंकि जमीन सीता के बाद कभी फटी नहीं वरना ये चीज पाताल तक जा पहुंचती।ऐसे में आदमी इससे पहनने के बाद जब भी चलता था झाडू लगती थी सडकों पर और पेंट कमर के नीचे के फटने योग्य स्थान के बजाय नीचे से फटती थी। बहुतेरे बेलबॉटमी भोलेभाले दूसरी चैन भी लगवाते थे ऐसे में।पहली चेन के स्थान के बारे भली भांति जानते है आप दूसरी चेन बेलबॉटम के आखरी सिरे पर लगती थी और उसे वक्त के पहले कटने-फटने चिरने से बचाती थी।

▪️इसे कमर के आसपास कायम रखने के लिये सुधी जनों ने भांति भांति के लाल पीले नीले काले बेल्टों के भी अविष्कार किये। बहुत बार ये इतने बडे होते थे कि कमर को तलाशना मुश्किल हो लेता था। पर ये बेलबॉटम के संगी थे और उसके साथ ही निरंतर विकसित हुए।

▪️इसे पहनने वाले में कुछ अतिरिक्त योग्यताएं भी अपेक्षित थी। पहली तो यही कि उसे सर के बाल अनिवार्य रूप से इतने लंबे रखना होते थे जिससे कानों की पर्देदारी बनी रहे। नतीजतन वो खुद कभी अपने कान नही देख पाता था । कानों का इस्तेमाल होता नहीं था और आदमी बुरा सुनने से बच जाता था। कहा सुनी होती नही थी। मन मैले होने से बचते थे। ऐसे में समाज में शांति और सौहार्द भरपूर मात्रा में बना रहता था।

▪️चूंकि स्त्री-पुरुष दोनो ही धारण करते थे इसे। दोनो ही लंबे केश रखने के प्रति आग्रही थे ऐसे मे दूर से या पीछे से नर मादा मे अंतर करना कठिन था। आगन्तुक आपकी मां या बाप दोनो मे से कुछ भी हो सकता था। ऐसे मे लोगों ने एक दूसरे को समान भाव से देखा। परस्पर इज्जत की। इस तरह बेलबॉटम को स्त्री पुरुषों में समानता की अवधारणा की स्थापना करने में महत्वपूर्ण कारक माना जा सकता है।

▪️कतिपय पुरुष जो पुरुष बने रहने के प्रति आग्रही थे- स्त्री नुमा इस वस्त्र के कुप्रभाव से बचने के लिये मूंछें रख लेते थे।मूंछों और बेलबॉटम का यह घातक सम्मिश्रण इस वस्त्र को पहनने वाले छोकरो और अधेडो की जवान दिखने की गलतफहमी बनाये रखता था।

▪️फिर वक्त बदला अमिताभ बच्चन बुडा गये उनके साथ बेलबॉटम भी जर्जर हुआ। और जैसा कि बूढों की हंसी उडाने का रिवाज है इस पोशाक का भी मजाक बना और फिर किसी होनहार दर्जी का यह अविष्कार पेजर की ही तरह अचानक लुप्त हो गया।

खैर। अमिताभ लौट आये है फिर से और बारह बरस में तो घूरे के दिन भी फिर जाते है ऐसे में यह उम्मीद रखने में कोई हर्ज नहीं कि बेल बॉटम की भी वापसी होगी। वे नीचे से और घेरदार और विस्तृत होंगे। पुरुषों के भीतर की स्त्री और प्रफुल्लित होगी। सडकें एक बार फिर बुहारी जायेगी और स्वच्छ भारत अभियान बेहतर नतीजे दे सकेगा।

▪️और अंत में अपनी बात..

▫️बेलबॉटम केवल फैशन नहीं था, वह एक पूरा दौर था। एक ऐसा समय जब वस्त्रों ने लोगों को साथ जोडा, समानता को मजबूत किया और खामियों को भी सहज हास्य में बदल दिया। मुकेश नेमा का लेख उसी बीते दौर की एक जीवंत याद है, जहां एक साधारण सा अधोवस्त्र समाज में हंसी, अपनापन और पहचान का माध्यम बन गया था। आज भले समय बदल गया हो, लेकिन फैशन अक्सर लौटकर आता है। इसलिए यह उम्मीद करना गलत नहीं कि बेलबॉटम फिर कभी नए रूप में सामने आये और एक बार फिर वही चौडी मोहरी और सडक झाडते कदम दिखाई दें।

 

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