Controversial Statement Of IAS Santosh Verma: यह आरक्षित वर्ग का अ-संतोष न हो !

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Controversial Statement Of IAS Santosh Verma: यह आरक्षित वर्ग का अ-संतोष न हो !

रमण रावल

मध्यप्रदेश के 2012 बैच के प्रमोटी IAS अधिकारी संतोष वर्मा इस बात से तो कतई अनभिज्ञ नहीं रहे होंगे कि कमान से निकला तीर और जबान से निकले शब्द लौटकर नहीं आते। फिर भी उन्होंने कहा कि जब तक मेरे बेटे को कोई ब्राह्मण अपनी बेटी दान न कर दे या उससे संबंध न बना दे, तब तक आरक्षण मिले। वे इस बात के मायने भी जानते ही होंगे कि कितने संतोष वर्मा को मारोगे,जलाओगे ? हर घऱ से संतोष निकलेगा। इसके बाद उन्होंने यह भी पूरे होशोहवास में ही कहा होगा कि एसटी वर्ग के बच्चों को हाई कोर्ट सिविल जज नहीं बनने दे रहा है। इसलिये आप-हम कितना ही तिलमिलायें, वे तो निश्चिंत ही होंगे कि अंजाम-ए-बयान क्या होगा ? इसके बाद भी कोई यह सोचता है कि एक IAS अधिकारी भी कभी कुछ बोलने में बहक सकता है तो मैं उसे नादान,भोला,अनजान ही कहूंगा।

संतोष वर्मा प्रशासन की उस नस्ल के वारिस हैं जो सोचते पहले हैं, करते बाद में हैं और दोनों ही सूरत में किसी की ज्यादा परवाह नहीं करते हैं।

संतोष वर्मा के इन बयानों पर ज्यादा बवाल इसलिये हैं कि वे संवैधानिक हैसियत में हैं। नेता जमात तो अर्नगल प्रलाप करती रहती है, जो मीडिया की सुर्खियां तो बनती हैं, जनता के बीच चर्चा भी छिड़ती है, लेकिन न तो उसके गंभीर दुष्परिणाम होते हैं, न कोई उसे गंभीरता से लेता है। अलबत्ता,उस बयानवीर नेता के स्तर का निर्धारण अवश्य हो जाता है और जनता व व्यवस्था लोकतांत्रिक तरीके से उससे निपटती भी है। यहां परिदृश्य पूरी तरह से अलग है। संतोष वर्मा देश की सबसे प्रतिष्ठित शासकीय सेवा IAS का अंग हैं। उनके कुछ भी करने व कहने की निश्चित जवाबदेही है, दायरा है। उनका अर्नगल,असंगत,असंयत होना मायने रखता है। इसीलिये मप्र सरकार उनके खिलाफ यथोचित कार्रवाई की प्रक्रिया प्रारंभ कर चुकी है। वह कुछ धीमी,कुछ संशय भरी है, लेकिन कुछ तो होगा, करना ही पड़ेगा।

अब आते हैं, मूल बात पर कि संतोष वर्मा के इस तरह की बयानबाजी के क्या ज्ञात-अज्ञात कारण हैं, इसके पीछे क्या नीति,मंशा है और इससे निपटने की क्या तैयारी है। यह तो स्पष्ट है कि उन्होंने जान-बूझकर बोला, डंके की चोट बोला । यदि ऐसा न होता हो ब्राह्मण बेटी वाले बयान के बाद वे किसी खंदक में छुप जाते। माफी-अफसोस की भाषा बोलते । मीडिया पर भांडा भोड़ते कि उसने तोड़-मरोड़कर छापा-दिखाया। चूंकि वैसा कुछ नहीं कहा और एक के बाद एक बयान जारी कर यह संदेश दिया कि वे तो तेल चुपड़कर अखाड़े में उतर चुके हैं। जिसे मुकाबले में आना हो,आ जाये। सीधी चेतावनी तो मप्र सरकार को ही है, क्योंकि संतोष वर्मा उसका नमक इस्तेमाल कर रहे हैं।फिर राजनीतिक दलों को चुनौती थी, जो आधी-अधूरी स्वीकार की गई । सत्तारूढ़ दल भाजपा की तरफ से थोड़ी बहुत आवाज आई तो, लेकिन स्वर धीमा था। कांग्रेस ने इसमें भी अवसर तलाश लिया और चुप है। सामाजिक संगठन व विशेष तौर पर ब्राह्मण संगठन और प्रदेश भर के ब्राह्मण नेताओं का विरोध उतना तीक्ष्ण नहीं है, जितना होना चाहिये । इसी जगह यदि किसी ब्राह्मण अधिकारी,नेता द्वारा आरक्षित वर्ग को लेकर कुछ कह दिया गया होता तो दो-चार राष्ट्रीय स्तर के विपक्षी नेता मप्र में सभा,प्रदर्शन कर चुके होते। कर्मचारी संगठन हड़ताल पर चले गये होते। अजाक्स ने इसे मनुवादी संस्कृति ठहराकर न जाने क्या-क्या कर दिया गया होता। चूंकि, यह ब्राह्मणों के लिये है, चूंकि यह न्यायापालिका के लिये है, चूंकि यह आरक्षित वर्ग के व्यक्ति द्वारा किया गया कृत्य है तो वोट और जाति की राजनीति के तकाजों में इसे उपेक्षा,अवहेलना,अनदेखी का दर्जा प्राप्त है।

मेरे कहने का मतलब और मकसद किसी को उकसाना या दोषारोपण करना माने तो उसकी मर्जी, किंतु मैं तो इस समय देश के परिदृश्य के परिप्रेक्ष्य में देख-समझ पा रहा हूं। सवाल यह है कि क्या स्वतंत्रता के अमृत काल खंड में किसी समुदाय विशेष के निहायत जिम्मेदार व्यक्ति द्वारा किसी समुदाय विशेष की अस्मिता के खिलाफ किसी भी तरह की नितांत अमर्यादित भाषा बोलने की छूट होना ही लोकतंत्र की असल परिभाषा है ? निश्चित ही ऐसा नहीं है। तब इसे इतने हलके में क्यो लिया जा रहा है ? बेशक, संतोष वर्मा को तत्काल जेल भेज देने या नौकरी से निकाल देने जैसी कोई बात तो संभव नहीं है, किंतु शासन स्तर पर दृश्यमान कार्रवाई में इतना विलंब क्यों ? किसी भी मसले पर संज्ञान लेने वाली न्यायापालिका में इस मसले की अनदेखी क्यों ? किसी भी प्रांतीय व राष्ट्रीय राजनीतिक दल व नेता के द्वारा नीरव शांति क्यों ? और सबसे अहम सवाल-आईएएस एसोसिएशन चादर ओढ़कर गहरी नींद में क्यों सोया है ? क्या उसे अपने किसी साथी के इस सामाजिक और संवैधानिक तौर पर अमान्य आचरण पर आड़े हाथों लेने का भान नहीं हुआ ?

इस मामले को सामाजिक ताने-बाने के खंडित होने के संदर्भ में देखा जाना चाहिये। इस पर आरक्षित वर्ग की ओर से खंडन-मंडन आना चाहिये। इसे सामाजिक समरसता पर आघात समझना चाहिये । अपेक्षित अंजाम से अवगत संतोष वर्मा यदि इस अवसर को अपने राजनीति प्रवेश का आधार मान रहे हैं तो समझ लीजिये कि यह एक खतरनाक परंपरा का बीजारोपण है।