‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशा होगा…।’ कवि जगदंबा प्रसाद मिश्र “हितैषी” की कविता शहीदों की चिताओं पर…की यह दो पंक्तियां सर्वकालिक हैं। मध्यप्रदेश के चित्रकूट में कालजयी समाजसेवी नानाजी देशमुख की पुण्यतिथि पर हर साल 27 फरवरी को हर बरस कुछ इसी तरह मेला लगता है। जहां नानाजी का दिल से सम्मान करने वाले उनके अनुयायी जुटते हैं और नानाजी को याद करते हैं। नानाजी मतलब चंडिकादास अमृतराव देशमुख।
जिनका जन्म 11अक्टूबर 1916 को महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के कडोली नामक छोटे से कस्बे में हुआ था। जिन्होंने अपना जीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनसंघ को समर्पित कर दिया। जनता पार्टी के संस्थापकों में नानाजी प्रमुख थे। कांग्रेस को सत्ताच्युत कर जनता पार्टी सत्ता में आयी। आपातकाल हटने के बाद चुनाव हुए, जिसमें बलरामपुर लोकसभा सीट से नानाजी सांसद चुने गये। उन्हें पुरस्कार के तौर पर मोरारजी मंत्रिमंडल में बतौर उद्योग मन्त्री शामिल होने का न्यौता भी दिया गया, लेकिन नानाजी ने साफ़ इनकार कर दिया। उनका सुझाव था कि 60 साल से अधिक आयु वाले सांसद राजनीति से दूर रहकर संगठन और समाज कार्य करें।
सुझाव नहीं था, उन्होंने इसे खुद पर लागू कर आदर्श स्थापित किया। तो यह थे नानाजी देशमुख, जो त्याग के पर्याय थे। जो काजल की कोठरी में बेदाग थे। जिन्हें पद और प्रतिष्ठा का लालच नहीं था। जो राजनीति में रहते हुए भी सच्चे समाजसेवी थे। जिन्होंने आत्मनिर्भर भारत का जो मॉडल तैयार किया, उसे क्रियान्वित कर चित्रकूट के आसपास सफलतापूर्वक आदर्श आत्मनिर्भर गांव बनाकर दिखा दिए। जिन्हें राजा राम से वनवासी राम ज्यादा भा गए, जो वनवासियों के उद्धारक थे। और इसी वजह से नानाजी ने चित्रकूट को कर्मस्थली बनाया और दीनदयाल शोध संस्थान के जरिए समाजसेवा को मन-कर्म से जिया और तन, मन और धन समाज-राष्ट्र को अर्पित कर दिया।
कड़वा सच सामने रखा जाए, तो आज “नानाजी” सरीखा कोई राजनेता नहीं है। नानाजी की थोड़ी सी झलक ही चुनिंदा राजनेताओं में देखी जा सकती है, जिसमें उन्हें समाजसेवी, राष्ट्र आराधक, राष्ट्रभक्त और वगैरह वगैरह कितनी ही उपाधियों से नवाजा जा सकता है। अगर नानाजी को पद्मविभूषण मिलता है तो पद्मविभूषण उपाधि भी सम्मानित होती है। अगर नानाजी भारत रत्न से सम्मानित होते हैं तो यह सच्चे राष्ट्रभक्त और समाजसेवी का सम्मान है और पूरे राष्ट्र का सम्मान है। वर्ष 1999 में नानाजी देशमुख को पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
तत्कालीन राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने नानाजी देशमुख और उनके संगठन दीनदयाल शोध संस्थान की प्रशंसा की। कलाम ने कहा-“चित्रकूट में मैंने नानाजी देशमुख और उनके साथियों से मुलाकात की। दीन दयाल शोध संस्थान ग्रामीण विकास के प्रारूप को लागू करने वाला अनुपम संस्थान है। यह प्रारूप भारत के लिये सर्वथा उपयुक्त है। विकास कार्यों से अलग दीनदयाल उपाध्याय संस्थान विवाद-मुक्त समाज की स्थापना में भी मदद करता है। मैं समझता हूँ कि चित्रकूट के आसपास अस्सी गाँव मुकदमें बाजी से मुक्त हैं। इसके अलावा इन गाँवों के लोगों ने सर्वसम्मति से यह फैसला किया है कि किसी भी विवाद का हल करने के लिये वे अदालत नहीं जायेंगे।
यह भी तय हुआ है कि सभी विवाद आपसी सहमति से सुलझा लिये जायेंगे। जैसा नानाजी देशमुख ने हमें बताया कि अगर लोग आपस में ही लड़ते झगड़ते रहेंगे तो विकास के लिये समय कहाँ बचेगा?” शोषितों और दलितों के उत्थान के लिये समर्पित नानाजी की प्रशंसा करते हुए कलाम ने कहा कि नानाजी चित्रकूट में जो कर रहे हैं उसे देखकर अन्य लोगों की भी आँखें खुलनी चाहिये। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया और पद्मविभूषण से नवाजा, तो नानाजी से प्रेरणा लेने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार ने उन्हें मरणोपरांत 1999 में भारत रत्न से सम्मानित किया।
भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष एवं सांसद विष्णुदत्त शर्मा ने भी पुण्यतिथि पर चित्रकूट पहुंचकर “नानाजी” को याद किया। विष्णुदत्त शर्मा ने कहा कि नानाजी का जीवन अनुकरणीय है। राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को भी उनके जीवन से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। जिस प्रकार से समाज सेवा के क्षेत्र में उन्होंने प्रतिमान गढ़ने का काम किया, उसे देखकर हम अपने क्षेत्रों में भी समाज सेवा के विभिन्न कामों को कर सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी नानाजी के जीवन से प्रेरणा लेते हैं और समय-समय पर जनप्रतिनिधियों का मार्गदर्शन करते हुए विभिन्न क्षेत्रों में काम करने की आवश्यकता पर बल देते हैं। हम सभी के लिए नानाजी का जीवन प्रेरणा स्रोत है, उनके बताए मार्ग पर चलकर समाज और देश की सच्चे मायने में सेवा कर सकते हैं।
नानाजी देशमुख ने 27 फरवरी 2010 को चित्रकूट स्थित भारत के पहले ग्रामीण विश्वविद्यालय में रहते हुए अन्तिम साँस ली। इसकी स्थापना नानाजी ने ही की थी। बीमार होने पर उन्होंने इलाज के लिये दिल्ली जाने से मना कर दिया। नानाजी देश के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपना शरीर छात्रों के मेडिकल शोध हेतु दान करने का वसीयतनामा मरने से काफी समय पूर्व 1997 में ही लिखकर दे दिया था, जिसका सम्मान करते हुए उनका शव अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नई दिल्ली को सौंप दिया गया।
विषय को विस्तार देने का कोई खास महत्व नहीं है, क्योंकि “नानाजी” अब अतीत बन चुके हैं। वह प्रेरणास्रोत हैं, लेकिन उनके रास्ते पर चलना “वनवासी राम” बनना ही है। पर सच यही है कि “राजा राम” बनना ही आज सबके मन को भा रहा है। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि “नानाजी” को सम्मान देना सरल है लेकिन “नानाजी” बनना बहुत कठिन है। जिनमें “नानाजी” का थोड़ा सा अंश भी मौजूद है, वह भी समाज को बहुत कुछ दे सकते हैं। तो सच्चे मन से समाज की सेवा कर “वनवासी राम” और “नानाजी” के पथ का अनुसरण करने वाले समाजसेवी भी सम्मान के पात्र हैं। इसी उम्मीद के साथ कि “नानाजी” लौटकर आएंगे।