पीड़ित मानवता के संभाग के सबसे बड़े चिकित्सक पुजारी हुए ब्रह्मलीन,उनकी सेवा यात्रा के कुछ आयाम

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पीड़ित मानवता के संभाग के सबसे बड़े चिकित्सक पुजारी हुए ब्रह्मलीन,उनकी सेवा यात्रा के कुछ आयाम

*मीडियावाला के संभागीय ब्यूरो चीफ चंद्रकांत अग्रवाल की कलम से*

नर्मदापुरम संभाग और जिले व इटारसी का मेरी जानकारी और समझ में तो विगत 100 वर्षों में पीड़ित मानवता का सबसे बड़ा चिकित्सक पुजारी,कर्मयोगी, मौन साधक आदरणीय डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल,पी डी अग्रवाल,अंततः अपनी हर सांस सांस से सेवा, समर्पण के नए आयाम रचते हुए,परम पिता पुरुषोत्तम के श्री चरणों में ब्रम्हलीन हो गया। जिले व इटारसी के चिकित्सा जगत में मानव सेवा के इस महान प्रकाश स्तंभ के बुझ जाने से अब एक ऐसा गहन अंधकार छा गया है जिसको कभी दूर भी किया जा सकेगा या नहीं,मैं खुद नहीं जानता। उनके पिता स्व.श्री मदनलाल जी अग्रवाल एक समर्पित स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। डॉ. पी डी भी अपनी चिकित्सा फील्ड के ऐसे ही समर्पित कर्मयोगी थे। पहले वे लगभग साढ़े तीन दशक तक इटारसी के तत्कालीन शासकीय अस्पताल जनसेवा रुग्णालय के मेडिकल ऑफ़िसर के रूप में एक ऐसे देवदूत,कर्मयोगी चिकित्सक के रूप में लोकप्रिय थे,जो अकेले दिन भर में 200 से 300 मरीजों को ओपीडी में पूरी संवेदनशीलता से चेक करते थे और उन सबको सभी दवाइयां निःशुल्क अस्पताल से ही मिल जाए,यह भी सुनिश्चित करते थे। अपने इस सेवाकाल में उन्होंने लाखों मरीजों की सेवा पितृवत अथवा तो पुत्रवत भाव से की। किसी शासकीय अस्पताल में जिसकी कल्पना करना भी आज के दौर में संभव नहीं

फिर 2002 में जब वे सेवानिवृत्त हुए तो तब संयोग मैं अग्रवाल समाज इटारसी की प्रतिनिधि संस्था तरुण अग्रवाल मंडल का अध्यक्ष था। मैने उनसे प्रार्थना की कि एक फ्री डिस्पेंसरी मंडल के तत्वाधान में,आपके नेतृत्व में प्रारंभ करने की बहुत इच्छा है मेरी और मेरे साथियों की ताकि आपकी पीड़ित मानवता की सेवा यात्रा जनहित में सभी के लिए पूर्ववत सार्वजनिक रूप से अनवरत जारी रहे। उनकी मेरी ऊपर कृपा दृष्टि हुई और मेरे प्रति अपने स्नेह के कारण उन्होंने मेरी प्रार्थना सहज ही स्वीकार कर ली। बस इतनी सी शर्त थी उनकी कि जो भी दवाइयां,इंजेक्शन,टॉनिक मैं फ्री डिस्पेंसरी से मरीजों को संस्था की तरफ से निःशुल्क दूंगा वे सभी मेरी इच्छानुसार उच्च गुणवत्ता की होनी चाहिए। यदि किसी मरीज को उच्च स्तरीय इलाज की जरूरत होगी तो उसके लिए भी हम मिलकर कुछ करेंगे। मैने तुरंत उनकी सभी शर्तें सहज स्वीकार्य कर लीं। इस तरह 2002 से लेकर अब तक की लगभग 23 वर्षों की उनकी सेवा यात्रा में उन्होंने लगभग 4 लाख पूर्णतः सफल ओपीडी की। जिनका पूरा रिकॉर्ड आज भी अग्रवाल भवन में सुरक्षित होगा। डॉ साहब ने मंडल से कभी कोई शुल्क नहीं लिया। बल्कि स्वयं को कंपनियों से प्राप्त सेंपल की दवाइयां भी वे फ्री डिस्पेंसरी में लाकर बांट देते थे ताकि मंडल पर दवाओं का बोझ कुछ कम कर सकें। उच्च स्तरीय इलाज की जरूरत पड़ने पर जरूरतंद मरीजों को आसपास या दूर बाहर भेजने के लिए भी उनके पास अग्रवाल समाज और अन्य समाजों के भी ऐसे दानवीरों के सेवा प्रस्ताव होते थे जो उनके एक इशारे पर संबंधित मरीज पर चाहे जितना खर्च करने को तत्पर रहते थे। उनकी संवेदनशीलता कमाल की थी। एम बी बी एस होते हुए भी उनका गॉड गिफ्टेड डायग्नोस कमाल का था,जो किसी md फिजिशियन से कम कभी नहीं लगा मुझे। हालांकि वे किसी मरीज के डायग्नोस से संतुष्ट नहीं होते थे तो फ्री डिस्पेंसरी में ही अपने मित्र विख्यात फिजिशियन डॉ एन एल हेडा को बुला लेते थे,आंख वाला मरीज चेक करना हो तो उसे निःशुल्क इलाज हेतु अपने मित्र स्व. डॉ आर बी अग्रवाल के पास भेज देते थे। एक साधारण वेशभूषा,सरल सहज स्वभाव के मनमौजी और सकारात्मक व्यक्तित्व में बिना किसी अपेक्षा के उन्होंने अपने जीवन के 60 साल पीड़ित मानवता को समर्पित कर दिए। उनकी करुणा,दया,बड़प्पन सभी कमाल के थे। वे मरीज की शरीर की पीड़ा के साथ उसके मन की पीड़ा भी सहज ही महसूस कर लेते थे। वे एक दार्शनिक भी थे। एक सुलझे विचारों के साथ अपने मरीजों,परिजनों और डॉ मित्रों के अपने एक बड़े परिवार में बहुत सकारात्मक प्रकृति के एक बहुत बड़े इंसान थे। फिजिशियन स्व. डॉ एन एल हेडा उनके बहुत करीबी मित्र थे। डॉ आर दयाल, डॉ के सी साहू भी उनके काफी करीबी माने जाते हैं। वे आध्यात्मिक प्रवृत्ति के चिकित्सक थे। प्रति मंगलवार,शनिवार वे और डॉ हेडा हनुमान धाम मंदिर एक साथ,एक गाड़ी पर आया जाया करते थे। उनके ट्रीटमेंट को मैने घंटों उनके साथ बैठकर करीब से देखा। वे दवाइयों का पर्चा थमाने के पूर्व मरीज को पुराने जमाने के अपने आजमाए घरेलू उपाय जरूर बताते थे। कैसे जीना है, क्या खाना है,क्या नहीं खाना है,साफ साफ बताते थे। जैसे आंव से पीड़ित मरीजों को वे कहते थे कि बेल का मुरब्बा खाओ। ताजा फलों और सब्जियों का सेवन खुद भी अधिक करते थे और अपने मरीजों को भी इसके लिए प्रेरित करते थे। उनके मरीज भी उनकी इस रुचि का खूब फायदा उनको खुश करने में उठाते थे। कई मरीज तो उनकी पसंद के फल,सब्जी, फ़ुटाने,मूंगफली आदि लेकर उनके निजी क्लिनिक पहुंच जाते और बिना फीस के पूरा इलाज करवा लेते थे। इतने सहज थे डॉ पी डी। उनके क्लिनिक में एफ एम रेडियो पर पुराने गाने और समाचार हमेशा चलते रहते थे। वे ऐसे कर्मयोगी थे जो मानों एक साथ,एक सांस में बहुत कुछ जी लेते थे। अपने जीवन का एक बहुत बड़ा हिस्सा पीड़ित मानवता को समर्पित कर देने के बाद,बहुत जिंदादिल होते हुए भी पिछले कुछ वर्षों से वे भीतर ही भीतर टूट से गए थे। उनकी बायपास सर्जरी सहित अन्य दो सर्जरी होने के बाद भी वे कभी हताश नहीं हुए पर अपने परिजनों के साथ काफी पहले से बारी बारी हुए दुखद प्रसंगों से कभी कभी विचलित हो जाते थे। अपने इकलौते जवान बेटे अनिल को बहुत पहले खो देने के बाद उन्होंने अपनी बहु प्रलभ को ही एक तरह से अपना बेटा मान लिया था। अपनी बेटी के विधवा हो जाने के बाद उसे भी उतने ही प्यार से अपने पास रखा था। उनकी धर्म पत्नी भी काफी अस्वस्थ रहती थी, अतः उनका भी पूरा ध्यान वे हर पल रखते थे। मुझसे कई बार कहते थे कि चंद्रकांत मुझे समझ नहीं आता कि मैं निजी जीवन की इतनी ढेर सारी पीड़ा के जहर को पीते हुए भी अब तक जिंदा कैसे हूं,क्यों हूं। इतना सब कुछ,इतना पीड़ा दायक समय तो देख लिया मैने अपने निजी जीवन में,शारीरिक और पारिवारिक जीवन में। अब और क्या देखना बाकी है। तब मैं उनसे कहता कि आपको ऊपर वाले ने अपने परिजनों और मरीजों के लिए,अपने कोटे से अतिरिक्त सांसे देकर भेजा है। आप उन सबकी आक्सीजन हो,ऊर्जा हो,शक्ति हो। हालांकि मैं भी भीतर ही भीतर काफी विचलित हो जाता था,यह सोचकर कि इतनी पीड़ाओं को भोगते हुए भी कोई कैसे पीड़ित मानवता के प्रति इतना समर्पित होकर फिर उसी शिद्दत से अपने परिवार के लिए भी अपने इतने सारे जख्मों के साथ भी सबको मुस्कुराकर जीने को प्रेरित कर सकता है। यह कोई भी इंसान इतनी सहजता से भी कर सकता है,यह मेरे चिंतन का विषय होता था। और तब मुझे लगता था कि यह तो कोई देवदूत ही कर सकता है। वे हमेशा उन सबकी जिंदगी में हर पल जीवित रहेंगे,जिन्होंने उनको करीब से थोड़ा भी देखा,समझा है। उनको याद करते हुए ही उनके मरीज अब कोई दवा ले रहे होंगे,लेते रहेंगे। हां,उनका शरीर चला गया पर उनका सुवासित अहसास कभी नहीं जाएगा। वे हजारों दिलों में आज भी जीवित हैं। जय श्री कृष्ण।