
खनन माफिया खतरनाक है… सेंध लगाकर पूरी अरावली को लील जाएगा…!
कौशल किशोर चतुर्वेदी
इन दिनों अरावली पर्वत श्रृंखला पर खनन माफिया का खतरा मंडरा रहा है। अपील और दलील का खेल चल रहा है लेकिन यह तय है कि अरावली के बचने की गुंजाइश एक प्रतिशत भी नहीं है। पर्यावरणविदों का दावा है कि कानूनी सुरक्षा की कमी के चलते अरावली पर्वत की नई परिभाषा इस क्षेत्र के 90% हिस्से को खत्म कर सकती है। एडवोकेट हितेंद्र गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस कांत से 20 नवंबर, 2025 के अपने हालिया आदेश में अरावली पहाड़ियों और पर्वत श्रृंखलाओं की पहचान के लिए अपनाए गए परिभाषा फ्रेमवर्क पर फिर से विचार करने या उसे साफ करने की अपील की है। दूसरी तरफ केंद्र सरकार और पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने इस फैसले को पर्यावरण संरक्षण की दिशा में एक मजबूत कदम बताया है। यादव ने कई बयानों और सोशल मीडिया पोस्ट्स के माध्यम से सफाई दी, जिसमें उन्होंने कहा कि इस परिभाषा से 90% से अधिक क्षेत्र ‘संरक्षित जोन’ में आ गया है, और केवल 0.19% क्षेत्र ही खनन के योग्य है और वह भी सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सस्टेनेबल माइनिंग प्लान और इंडियन काउंसिल ऑफ फॉरेस्ट्री रिसर्च एंड एजुकेशन (आईसीएफआरई) की मंजूरी के बाद खनन हो पाएगा। लेकिन इस बात में भी कोई संशय नहीं है कि खनन माफिया की बुरी निगाहें एक बार पड़ गई तो वैध रूप से भले ही 0.19 प्रतिशत क्षेत्र खनन के योग्य हो लेकिन अवैध रूप से अरावली के अंग-अंग भंग हो जायेंगे और 0.19 प्रतिशत का आंकड़ा कब 19 प्रतिशत को पार कर जाएगा, पता ही नहीं चलेगा। और तब कोई भी कुछ नहीं कर पाएगा। सिर्फ और सिर्फ अरावली कराहेगी और पर्यावरणविद चिल्लाएंगे लेकिन खनन माफिया अरावली को तब तक नोंच खा चुके होंगे। हकीकत पूरे देश में खनन माफियाओं की कारगुजारियों का सर्वे कर जानी जा सकती है।
खैर यह सुखद बात है कि पर्यावरण कार्यकर्ता हितेंद्र गांधी ने अरावली रेंज की सुरक्षा से जुड़े एक मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। उन्होंने मुख्य न्यायाधीश से ‘100-मीटर टेस्ट’ नियम की समीक्षा करने का आग्रह किया है, क्योंकि इससे अरावली क्षेत्र का 90% हिस्सा कानूनी सुरक्षा से वंचित हो सकता है। गांधी ने अपनी दलीलों को संवैधानिक सिद्धांतों पर आधारित बताया है और अदालत से इस मामले पर फिर से विचार करने की अपील की है। पर्यावरण कार्यकर्ता और वकील हितेंद्र गांधी ने भारत के मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत को ‘100-मीटर टेस्ट’ नियम की समीक्षा के लिए पत्र लिखा है। और वकील गांधी के पत्र की एक कॉपी भारत के राष्ट्रपति को भी भेजी गई है। इस पत्र में अरावली पहाड़ियों और रेंज की परिभाषा पर पर्यावरण मंत्रालय की सिफारिश को मंजूरी देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की समीक्षा की मांग की गई है। नई परिभाषा के अनुसार, ‘अरावली पहाड़ी नामित अरावली जिलों में कोई भी भू-आकृति है जिसकी ऊंचाई अपने स्थानीय भू-भाग से 100 मीटर या उससे अधिक है और अरावली रेंज ऐसी दो या दो से अधिक पहाड़ियों का समूह है जो एक-दूसरे से 500 मीटर के दायरे में हों।’
गांधी ने अपनी दलीलों को संवैधानिक सिद्धांतों पर आधारित बताया है, जिसमें उन्होंने अनुच्छेद 21 द्वारा स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार की गारंटी, अनुच्छेद 48A और 51A(g) का हवाला दिया, जो राज्य और नागरिकों पर पर्यावरण की रक्षा करने का कर्तव्य डालते हैं।
अरावली पहाड़ियां, जो भारत की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में से एक हैं, सदियों से उत्तर भारत की पर्यावरणीय सुरक्षा का कवच बनी हुई हैं। ये राजस्थान, हरियाणा, गुजरात और दिल्ली जैसे चार राज्यों में फैली हुई हैं और थार रेगिस्तान के विस्तार को रोकने, जल संरक्षण, जैव विविधता और वायु शुद्धिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। हाल ही में, नवंबर 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने अरावली की एक नई परिभाषा को मंजूरी दी, जिसमें 100 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई वाली भूमि को ही ‘अरावली पहाड़ी’ माना जाएगा। यह फैसला 1985 से लंबित एक जनहित याचिका पर आधारित था, जिसका उद्देश्य चारों राज्यों में एक समान परिभाषा लागू करना था ताकि अवैध खनन, भूमि उपयोग और पर्यावरण नियमों में स्पष्टता आए।
सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार भले ही नियमों का हवाला देते हुए अरावली ही लाख दुहाई दे लेकिन सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। सुप्रीम कोर्ट चाहे तो पूरे देश में जंगल और पहाड़ों की दुर्दशा को करीब से जाकर महसूस कर सकता है। कहीं जंगल वीरान होकर चीख रहे हैं तो कहीं पहाड़ मिट्टी में मिलकर दहाड़ रहे हैं। कहीं कहीं ऐसा लगता है कि पहाड़ों को अंग भंग कर कुरूप बना दिया गया है। और चाहे दिल्ली हो या फिर देश के सैकड़ों शहर जहाँ प्रदूषण के चलते जीना दूभर हो गया है। इन दिनों मध्य प्रदेश में भी
लाखों पेड़ों की बलि देने के मामले में
काफी उथल पुथल हो रही है और यहां भी मामला खनन का ही है। लेकिन इस बात से मुंह में नहीं मोड़ा जा सकता कि खनन के नाम पर अगर पर्यावरण से खिलवाड़ किया गया, तब जीना मुहाल हो जाएगा। और सुप्रीम कोर्ट,
भूपेन्द्र यादव, केन्द्र सरकार और राज्य सरकारें यह कान खोलकर सुन लें कि खनन माफिया बहुत ही खतरनाक है… यदि एक कोना भी पकड़ा दिया तो खनन माफिया सेंध लगाकर पूरी अरावली को लील जाएगा… वास्तव में पूरे देश को आगे बढ़कर पर्यावरण को बचाने के लिए सरकारों को और खनन माफियाओं से टकराने की जरूरत है।
लेखक के बारे में –
कौशल किशोर चतुर्वेदी मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पिछले ढ़ाई दशक से सक्रिय हैं। पांच पुस्तकों व्यंग्य संग्रह “मोटे पतरे सबई तो बिकाऊ हैं”, पुस्तक “द बिगेस्ट अचीवर शिवराज”, ” सबका कमल” और काव्य संग्रह “जीवन राग” के लेखक हैं। वहीं काव्य संग्रह “अष्टछाप के अर्वाचीन कवि” में एक कवि के रूप में शामिल हैं। इन्होंने स्तंभकार के बतौर अपनी विशेष पहचान बनाई है।
वर्तमान में भोपाल और इंदौर से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र “एलएन स्टार” में कार्यकारी संपादक हैं। इससे पहले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में एसीएन भारत न्यूज चैनल में स्टेट हेड, स्वराज एक्सप्रेस नेशनल न्यूज चैनल में मध्यप्रदेश संवाददाता, ईटीवी मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ में संवाददाता रह चुके हैं। प्रिंट मीडिया में दैनिक समाचार पत्र राजस्थान पत्रिका में राजनैतिक एवं प्रशासनिक संवाददाता, भास्कर में प्रशासनिक संवाददाता, दैनिक जागरण में संवाददाता, लोकमत समाचार में इंदौर ब्यूरो चीफ दायित्वों का निर्वहन कर चुके हैं। नई दुनिया, नवभारत, चौथा संसार सहित अन्य अखबारों के लिए स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर कार्य कर चुके हैं।





