विशेष विवरण : राजपूताना की व्यवस्था परंपरा , मर्यादा और संघर्ष- प्रेरक है

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विशेष विवरण : राजपूताना की व्यवस्था परंपरा , मर्यादा और संघर्ष- प्रेरक है

डॉ घनश्याम बटवाल, मंदसौर

हमारे देश में भिन्न समाज जनों की संस्कृति सामाजिकता ओर परम्पराओं के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका रही है किसी के योगदान को कम नहीं आंका जा सकता पर राजपूत समाज प्रमुख रूप से अग्रणी रहा है ।

संघर्ष, त्याग, वीरता और बलिदान के साथ धर्म संस्कृति रक्षण में पुरुष तो है हीं पर मातृशक्ति भी प्रेरक रही है ।

मेवाड़ की धरती का तो ध्येय वाक्य ही प्रेरणादायक है । इतिहास में दर्ज़ है कि ” जो दृढ़ राखे धर्म को, तीही रखे करतार ” यह प्रमाण है । यह विरासत धर्म रक्षा, राष्ट्र रक्षा ओर समाज रक्षा के लिए अतुलनीय रही है । उदयपुर के प्रख्यात इतिहासकार डॉ ओमेंद्र रत्नू ने तो राजपूताना के एक हजार साल के धर्म को लेकर किए संघर्ष की गाथा लिखी है। कोई 400 पृष्ठों पर प्रकाशित ” महाराणा ” एक जीवंत दस्तावेज है वहीं ठिकाना गढ़ीभैंसोला के श्री नरेंद्र सिंह पंवार ने परमार पंवार राजवंश के इतिहास प्रकाशन में शौर्य गाथाओं के साथ अलग अलग कालखंड का प्रामाणिक ग्रंथ लिखा है

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मालवा हो या मेवाड़, अजय मेरु हो या जोधपुर धराना , जयपुर हो या उदयपुर , राणा हो या महाराणा, मजेसरा हो या बनेड़ा, कालूखेड़ा हो या दीपाखेड़ा, ऐसे देश भर के विभिन्न हिस्सों में राजपूत समाज में प्रचलित सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्थाओं में आपने – हमने ओर सबने अलग संबोधन सुने और जाने हैं पर इन सबका महत्व है मर्यादा है ओर सामाजिक सम्मान है ।

फिर भले ही सिसोदिया हो या शक्तावत, भाटी हो या कुशवाह , चुंडावत हो या चंद्रावत , राणा – महाराणा ओर राणावत, राव, रावल , महारावल और राजावत, सिंह , चौहान ओर तोमर , परमार, पंवार, सोलंकी , पुरावत कमोबेश हर शाखा में सम्मान की यही श्रृंखला है।

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*जानते हैं क्या पद – कद और उपाधि*

 

ठाकुर, भंवर/भंवरी, तंवर/तंवरी, कुंवर, यह नाम नहीं उपाधियां है और यह किन को प्राप्त होती है।

 

राजस्थानी_संस्कृति में राजपूतों को ठाकुर कहने की परंपरा है। लेकिन अधिकांश को यह नहीं पता कि ठाकुर कहते किसको है ?

 

बहु प्रचलित शोले फिल्म का संजीव कुमार का कैरेक्टर ठाकुर सबको पता है इसीलिए हम सभी राजपूत भाइयों को ठाकुर कह देते हैं जो सही नहीं है।

ठाकुर यह वह पदवी है जो किसी पुत्र को तब मिलती है जब वह परिवार का मुखिया बनता है अर्थात जब उसके पिता का देहांत होता है और पिता के स्थान पर जब उसके पास मुखिया का पद आता है तब वह ठाकुर कहलाता है इसलिए कोई भी व्यक्ति ठाकुर कहलाना इसलिए पसंद नहीं करता क्योंकि इसके लिए उनके पिता का देहांत होना आवश्यक होता है और कोई भी बेटा अपने पिता का देहांत नहीं चाहता इसलिए आगे से ध्यान रहे आप ठाकुर उसी व्यक्ति को कहिए जिसके पिता जीवित नहीं है और वह घर का मुखिया है।

इसी प्रकार एक नाम आपने #भंवर सुना होगा। आपने कई लोगों के नाम #भंवर या भंवरी सुना होगा यह भी एक तरह की पदवी है। जिस बच्चे के दादा जीवित होते हैं और वह बच्चा होता है तो उसका नामकरण #भंवर अगर वह लड़का है और लड़की है तो #भंवरी यह रखा जाता था।

हां जी यह सुनकर आपको बड़ा अजीब लग सकता है कि दादा के जीवित रहते हर व्यक्ति का नाम भंवर या भंवरी रखना इसमें क्या औचित्य है। क्योंकि सामान्यतया हर बच्चे के जन्म के समय उसके दादा जीवित रहते ही हैं इसलिए यह तो एक सामान्य प्रक्रिया है इसी को आधार बनाया जाए तो लगभग 90 से 95% बच्चों का नाम #भंवर या #भंवरी होना चाहिए। लेकिन यह घटना है उस समय की है जब राजस्थान की राजपूताना कौम अक्सर युद्ध में रत रहती थी और अपने राज्य सुरक्षा के लिए युद्ध में राजपूत वीरों का बलिदान होते ही रहता था इसलिए बहुत ही वीर और पराक्रम शाली राजपूत ही अपने जिंदा रहते दादा बन पाता था । अर्थात अपने आंखों से अपने पोते या पोती को देख पाता था। इसीलिए वह अपने पोते या पोती का नाम भंवर या भंवरी रखता था। भंवर या भंवरी यह नाम समाज में उस बच्चे को एक अलग से प्रतिष्ठा दिलाते थे कि वह कितना सौभाग्यशाली है कि उसके सर पर उसके दादा का आशीर्वाद अभी तक बना हुआ है।

अंग्रेजों ओर मुगलों के समय भी अनेक राजपूताना ठिकाने संघर्ष रत रहे थे ओर अस्तित्व को लेकर मातृभूमि रक्षा में सक्रिय रहे थे ।

इसी प्रकार तंवर या तंवरी यह नामकरण भी भंवर या भंवरी से ज्यादा श्रेष्ठ माना जाता था। क्योंकि #तंवर या तंवरी यह नाम उस बालक या बालिका का रखा जाता था जिसके परदादा जीवित रहे हो जो अपने आप में बहुत ही रेयर ऑफ द रेयर अर्थात बहुत ही कम देखने को मिलता था। इसलिए तंवर नाम की श्रेष्ठता भंवर नाम से अधिक मानी गई है

बाकी सब लोग तो जानते ही हैं कुंवर यह उपाधि हर उस बालक को प्राप्त होती है जिनके पिताजी जीवित हैं।

आज़ादी के बाद भी देश ओर प्रदेश में राजपूत समाज में सम्मान और पद परंपरा व्यवस्था प्रचलित है और यह अन्य सामाजिक संगठनों, भिन्न समाज जनों के लिए भी प्रेरणादायी है कि हर स्तर पर मान्यता ओर सम्मान बना रहे , यह भी सही है कि कई बार पद एवं सम्मान का अपमान भी देखा गया है पर मूल रूप से राजपूताना परंपरा भारतीय संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था का उत्तम उदाहरण है ।

जी हुकुम ओर ख़मा घणी अदब और सम्मान के पर्याय जो हैं ।

ठीक है न, जय रघुनाथ ।