अब दर्द का भी वैश्वीकरण हो गया है बाबू…

युद्ध कहीं भी हो, दर्द पूरी दुनिया को भुगतना पड़ेगा ...

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युद्ध दुनिया के किसी भी छोर पर हो, किन्हीं भी देशों के बीच हो लेकिन दर्द पूरी दुनिया को भुगतना पड़ेगा। रूस-यूक्रेन युद्ध के जो भी अंजाम युद्ध के बाद दुनिया आर्थिक तौर पर या संबंधों को लेकर भुगतेगी, वह तो अलग हैं। पर युद्ध के दौरान भी दर्द सबके हिस्से में आएगा। जैसा कि युद्ध के छठवें दिन नवीन को खोकर भारत के हिस्से में जो दर्द आया है, उसने छलनी कर दिया है।
युद्ध में जब सेनाएं सब कुछ रौंदती हुईं आगे बढ़ने पर आमादा होती हैं, तो यह नहीं देखती कि कोई निर्दोष मर रहा है या कोई मासूम होश संभालने से पहले चिर निद्रा में जाने को मजबूर है। सेनाओं को तो बस दो शब्द ही नजर आते हैं और वह हैं “विजय और पराजय”। इस “विजय-पराजय” के चक्रव्यूह में कौन अपनी जिंदगी की जंग जारी रख पा रहा है और कौन जिंदगी हार रहा है, इससे सेनाओं का कोई वास्ता नहीं होता। इसका वास्ता तो उन मांओं से होता है, जो अपने निर्दोष बच्चों को बेवजह ही खोकर घुट-घुटकर मरने की सजा बेवजह ही पा जाती हैं।
इसका वास्ता उन पिताओं से होता है, जिनकी आंखों के सामने भरी दोपहरी में ही जीवन भर के लिए अंधेरा छा जाता है। लेकिन सेनाओं और शासकों की नजर में इसका कोई मोल नहीं होता। क्योंकि सेना अपना कर्म करते हुए जंग के मैदान में जान गंवाती है तो शहीद होकर स्वर्ग की भागी होती है। और शासक जीत-हार से परे अपने दंभ में डूबे सत्ता के नशे में हमेशा मदहोश रहते हैं।
जब उनकी खुमारी उतरती है, तब तक बहुत देर हो जाती है और दुर्भाग्य उन्हें मुंह चिढ़ाता रहता है। यही बदकिस्मती है शासकों को कुर्सी पर बिठाने वाली आम जनता की, कि उसके सुख-दु:ख इन शासकों की मुट्ठी में कैद हो जाते हैं। उसका मान-अपमान शासकों की मनमर्जी का गुलाम बन जाता है। उसकी समृद्धि और दरिद्रता इन शासकों की कृपा के मोहताज हो जाते हैं। इस मायने में लोकतंत्र भी राजतंत्र से बहुत भिन्न नजर नहीं आता।
युद्धों के बाद घुटनों पर आए राष्ट्र तात्कालिक समझौतों को मजबूरी में भले ही मान लें, लेकिन यह सिर्फ अस्थायी ही होता है। वहीं यूक्रेन ने तो घुटने पर आने की जगह जमीन में मिलने का विकल्प चुनकर अपना शौर्य दिखाने का हौसला दिखा दिया है। शायद यही वजह है कि रूस छह दिन के युद्ध के बाद जो समझौते करने की कवायद में जुटा है, वह भी अब उसकी लाचारी ही दिखा रहा है। और रूस के तानाशाह शासक पुतिन का विरोध बाहर से ज्यादा अब उसके घर में हो रहा है।
पर अब यह युद्ध रूस के गले की हड्डी बन गया है, जिसे न वह निगल सकता है और न ही उगल सकता है। विकल्प सिर्फ यही है कि हम तो मरेंगे सनम, तुमको भी ले डूबेंगे…की तर्ज पर रूस इसे एटोमिक वार में बदलकर विकृत मानसिकता का भौंडापन प्रदर्शित कर अपने देश को पूरी तरह बर्बाद कर ले और दुनिया को बर्बादी का खुला आमंत्रण दे दे। हालांकि यह बहुत आसान नहीं है। यूक्रेन की इमारतें, संसाधन नष्ट हो रहे हैं और जनसंहार का जहर उसे पीना पड़ रहा है, तो रूस भी इस युद्ध का परिणाम आर्थिक दिवालियापन के रूप में भुगतने को मजबूर है। रूस पर जो प्रतिबंध लग रहे हैं, उससे उबर पाना उसके लिए बहुत मुश्किल है।
और अब जब यूक्रेन यूरोपीय यूनियन का सदस्य बन जाता हैं तब रूस की किरकिरी उसे चैन से नहीं रहने देगी। नैतिक तौर पर पुतिन घर में ही घिर गए हैं और देश को दांव पर लगाने के साथ-साथ उन्होंने खुद को भी दांव पर लगा दिया है। हालांकि रूस को संयुक्त राष्ट्र की स्थायी सदस्यता से बाहर कर पाना संभव नहीं है। ऐसे प्रयास से दुनिया खुले तौर पर दो धड़ों में बंटकर फिर दुर्दशा-वैमनस्यता के दलदल में जाए बिना नहीं बच पाएगी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नवीन की मौत के बाद यूरोपियन नेताओं से गुफ्तगू की है। पर असल चुनौती तो यह है कि बंकरों में कैद भारतीय विद्यार्थियों की सकुशल वापसी कैसे संभव होगी? “ऑपरेशन गंगा” क्या तिरंगा का मान रखने में सफल हो सकेगा? मोदी-पुतिन और भारत-रूस की मित्रता क्या पारंपरिक रिश्तों को कायम रख सकेगी? सवाल बहुत सारे हैं, लेकिन जवाब भविष्य के गर्त में है।
सो यही उम्मीद कि नवीन की सूची में भारत के किसी दूसरे विद्यार्थी का नाम दर्ज नहीं होगा और भारत का नेतृत्व रूस-यूक्रेन जंग को शांति की राह पर लाने में सशक्त भूमिका निभाएगा। क्योंकि युद्ध कहीं भी हो, पर दर्द पूरी दुनिया को भुगतना पड़ता है। अब दर्द का वैश्वीकरण जो हो गया है बाबू। भले ही दर्द चाहे नवीन की मौत के रूप में मिले या किसी और सकल में।