UP Elections: उत्तर प्रदेश में आयेंगे तो मोदी (योगी) ही, क्योंकि जनता ने लड़ा है चुनाव

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UP Elections: उत्तर प्रदेश में आयेंगे तो मोदी (योगी) ही, क्योंकि जनता ने लड़ा है चुनाव

इस वक्त यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण और अति उत्साहपूर्ण कहलायेगा और इसके पर्याप्त खतरे भी हैं। फिर भी आखिरी दो चरणों के चुनाव उप्र के राजनीतिक समीकरण नये सिरे से परिभाषित कर दिये प्रतीत हो रहे हैं।

यह संभव होगा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पूर्वांचल में धुंआधार प्रचार, दलित, पिछड़े, यादव और मुस्लिम मतों के एकीकरण के विरुद्ध सवर्ण मतों के लामबंद होने से।

इन सबसे बढक़र उप्र के विधानसभा चुनाव में जो कारण उभर रहा है, वह है जनता का मोदी के प्रति अगाध लगाव। कह सकते हैं कि उनकी छवि सारे मुद्दों पर भारी पड़ी है।

मोदी को ही सामने रखकर उप्र की जनता ने इसे अपना चुनाव समझा है और एक तरह से भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में बिना आवाज किये बही जनता लहर उसे एक बार फिर से सत्तारूढ़ करती दिखाई दे रही है।

जैसा कि पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव की घोषणा के साथ ही यह चर्चा आम हो चली थी कि उप्र के चुनाव परिणाम आगामी राजनीति की धारा तय करने वाले साबित होंगे, जो सही भी है।

इससे आगामी राज्य सभा के होने वाले कुछ चुनाव, राष्ट्रपति चुनाव और सबसे महत्वपूर्ण 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव की दिशा काफी कुछ तय हो जायेगी।

आइये समझते हैं कि वे क्या कारण सामने आ रहे हैं, जो उप्र में भाजपा बनाम योगी,बनाम मोदी के परचम फहराने का संकेत देते हैं।

यह तो सब जानते ही हैं कि उप्र की राजनीति जातिवाद, गुंडागर्दी, बाहुबल, धनबल के इर्द-गिर्द परिक्रमा करती है। इस बार भी वे तत्व पुरजोर रहे।

चुनाव के प्रारंभ से लेकर तो मध्य तक माहौल समाजवादी पार्टी के पक्ष में जाता दिखाई दे रहा था या प्रचारित तो किया ही जा रहा था। काफी हद तक वह सही हो सकता था।

यह भी अब कोई छुपी बात नहीं रही कि उप्र का मुस्लिम मतदाता जो कभी कांग्रेस का पक्षधर था,बाद में समाजवादी पार्टी का साया बन गया। वक्त के साथ वह बसपा का भी पसंदीदा बनता रहा।

थोड़ी बहुत रुचि उसने हैदराबादी नेता ओवैसी में भी दिखाई।

फिर आई 2022 के विधानसभा चुनाव की बारी तो सारे समीकरण इतनी तेजी से बदले कि मुस्लिमों को एकतरफा झुकाव समाजवादी पार्टी की तरफ हो गया।इस चुनाव में कांग्रेस, बसपा अस्तित्वहीन रहेंगे।

उसके भी कारण रहेे।

मुलायम सिंह यादव ने इस वर्ग को जिस कदर तवज्जो दी, वैसी भारतीय राजनीति के इतिहास में कोई दूसरा दल नहीं दे पाया।

समुचित प्रतिनिधित्व देने से लेकर तो उनके तमाम उचित-अनुचित कामों को संरक्षण, उनके कतिपय नेताओं, विधायकों, यहां तक कि मंत्रियों की गुंडागर्दी को भी खुलकर समर्थन दिया।

वे समाजवादी ही थे, जो अपनी ही पार्टी की नेता के अंतर्वस्त्र को लेकर टिप्पणियां करते रहे, कलेक्टर से जूते साफ करवाने का दंभ भरते रहे हों, उनके विधायक जेल में रहकर रंगदारी, कब्जे, हत्याओं को अंजाम देते रहे।

अपने विरोधी विधायक के शरीर को 3500 से अधिक गोलियों से छलनी करने के दुस्साहस और दुष्टता को भी जहां अपराध नहीं माना जाता रहा हो, वहां किन लोगों का जमावड़ा हो गया होगा, समझा जा सकता है।

समाजवादी पार्टी के राज के इन चरम अराजक दौर ने उप्र की जनता के मन में उसके प्रति गहरी कुंठा, गुस्सा और प्रतिशोध भर दिया था।

ऐसे में जब 2017 के चुनाव में भाजपा को बहुमत मिला और यकायक पाक-साफ छवि के संन्यासी योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया तो जनता के बीच सकारात्मक संदेश गया।

उनका विश्वास दिन ब दिन इसलिये भी बढ़ता गया कि योगी ने जनता की उम्मीदों के अनुरूप ऐसे समाज-कानून विरोधी, भ्रष्ट, जन विरोधी तत्वों को मजबूती से नकेल पहनाने का सिलसिला प्रारंभ कर दिया।

ये सारी बातें तो अपनी जगह थी ही, इस बीच अयोध्या में अदालती आदेश से ही सही, लेकिन राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त होना, तीन तलाक बिल पास होना, गुंडों, दंगा करने वालों की संपत्ति जब्त करना, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वालों पर जुर्माने जैसी कार्रवाई ने योगी और भाजपा के प्रति उप्र के आम व्यक्ति के मन में संतोष और लगाव ही पैदा किया।

बावजूद इसके एकाध साल में योगी के प्रति नाराजी भी दिखाई देने लगी। वजह रही योगी का अक्खड़पन, साफगोई, गैर जरूरी, किंतु राजनीतिक तौर पर मान्य समझौते न करना और कार्यकर्ता, नेताओं के काम आंख मूंदकर न करना। अच्छे, ईमानदार और सच्चे लोगों के साथ अक्सर यह दिक्कत होती है, जो राजनीति में तकलीफदेह साबित होती है।

तब यह कयास लगने लगे कि योगी से सवर्ण और भाजपा का पारंपरिक मतदाता नाराज है और उधर यादव, मुस्लिम, दलित, पिछड़ा तबका समाजवादी पार्टी के पक्ष में लामबंद होता दिखा।

तब भाजपा आलाकमान ने पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ रहे योगी आदित्यनाथ को प्रचार से दूर कर उनके गृह क्षेत्र गोरखपुर तक सीमित कर दिया और मैदान को नरेंद्र मोदी ने अपने कब्जे में ले लिया। यह भी कि मोदी की स्वच्छ प्रशासक, कठोर फैसले लेने वाला, फैसलों पर टिके रहने वाले, हिंदू हितों का ध्यान रखने वाला, परिवारवाद के धुर विरोधी, ईमानदार और वैश्विक छवि के मद्देनजर उप्र के मतदाता ने फिर से भाजपा का रूख कर लिया।

जिस पूर्वांचल में 110 से अधिक सीटें हैं, वहां तकरीबन तीन चौथाई सीटों पर जीत हासिल करने का भरोसा एक बार फिर भाजपा को हो चला है।

इसमें दो राय नहीं कि मुस्लिम मतदाता ने इस चुनाव में समाजवादी पार्टी के पक्ष में एकतरफा भरोसा जताया है।

वह ओवैसी के बहकावे में भी नहीं आये और न ही कांग्रेस, बसपा में दिलचस्पी दिखाई। फिर, अखिलेश यादव ने भी यह चुनाव काफी परिपक्वता, साधन और कुशल रणनीतिकार की तरह लड़ा।

बावजूद इसके हाल-फिलहाल तो संकेत यह हैं कि उप्र की जनता ने इन चुनाव को अपने सुकून, अस्तित्व की खातिर जातिवाद और गुंडागर्दी से ऊपर रखकर लड़ा है।

जो लहर कभी 1977 में, 1984 में, फिर 2019 के लोकसभा चुनाव और उससे पहले 2017 के उप्र विधानसभा चुनाव में चली थी, किंतु दिखाई नहीं दी थी, वैसी ही इस बार साबित हो सकती है।

वैसे राजनीति में अंतिम सत्य तो परिणाम ही होता है और यदि उप्र में सपा की सरकार बनी तो यह किसी बड़े चमत्कार से कम नहीं होगा।

इसके बाद तो उप्र ही नहीं,बल्कि देश की राजनीति में भी 2024 तक काफी उथल-पुथल मचेगी और सारे राजनीतिक तकाजे, मर्यादायें ताक पर रखे जाकर मल्ल युद्ध छिडऩा लाजिमी रहेगा।