Punjab Election: ‘आप’ का फोकट फार्मूला बरास्ता दिल्ली से पंजाब

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पंजाब में आम आदमी पार्टी(आप) की भिन्ना भोट कर देने वाली जीत का हैंग ओवर तो आप नेताओं का भी नहीं उतरा होगा। जीत की उम्मीद करना और खुद के मकान की छत में भी बड़ा सा छेद कर सोने की ईंटें सीधे सिर पर गिरने की खुशी भी कई बार लहूलुहान कर सकती है। इसका भान अभी तो आप नेताओं को भी नहीं होगा। फिर भी पंजाब के नतीजे कुछ नए गुल जरूर खिलाएंगे। अच्छे या बुरे,देखते हैं।
यूं भी राजनीति और वोटों की राजनीति किसी नैतिकता,मानदंडों,तकाजों की मोहताज तो रही नहीं। दिल्ली के सिंहासन पर दोबारा आप की ताजपोशी के बाद महत्वाकांक्षी और दुस्साहसी अरविंद केजरीवाल के लिए दीगर राज्यों की परिक्रमा कर अंततः दिल्ली के उस ताज को अपने सिर पर धारण करने की लालसा पैदा हो जाना स्वाभाविक था,जो आप को भारत भाग्य विधाता का दर्जा दे सकता है।
फिलहाल बात आप और पंजाब की करते हैं। यूं देखें तो पंजाब की चाबी भी केजरीवाल की कमर में खुस जाना कोई बड़ी बात नहीं। उल्लेखनीय है चाबी से तिलस्मी खजाने का ताला खुल जाना। जरा गौर कीजिए कि दिल्ली में मिश्रित बस्ती के बावजूद पंजाबियों का जबरदस्त दखल है।व्यापार,प्रशासन से लेकर तो पराली तक पंजाब की ही छाई रहती है।
फिर, एक साल चले कथित किसान आंदोलन को दिल्ली सरकार और आप के मुक्त हस्त समर्थन ने पंजाब प्रवेश का गलियारा दोहरी सड़क में तब्दील होने का संकेत दे दिया था। आप को भी हैरत इस बात की है कि उसे तो फोर लेन सड़क मिल गई।
पंजाब की 117 सीटों में से 92 पर वर्चस्व को आप की रीति,नीति,नियम, धरम,विकास,पराक्रम मानना बचपना और अधकचरापन ही कहलाएगा। दरअसल,यह राजनीति में एक सर्वथा नए,लेकिन आत्मघाती, लोकतंत्रनाशी दौर की मजबूत आधारशिला साबित होगी। सीधे तौर पर कहें तो यह फोकट फार्मूले का ऐसा विस्तार है, जिसकी जकड़ में  दिल्ली के बाद अब पंजाब का निम्न मध्यम और मध्यम वर्ग भी आ चुका है। आने वाले तमाम चुनावों में अब सरकारी खजाने की बंदरबांट का ऐसा खतरनाक खेल शुरू हो सकता है,जिसे खत्म कराने का जोखिम न तो रैफरी ले पाएगा, न खिलाड़ी।
पंजाब की सीमाएं जहां बेहद संवेदनशील हैं, वहीं पंजाब के लोग, पंजाब की आबोहवा में घुली मस्ती,जिंदादिली बेहद उल्लेखनीय है।  एक तरफ वीरता और बलिदान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है तो दूसरी तरफ पृथक राज्य की मांग के साथ खालिस्तान की खूनी दास्तान भी है,जिसे परवाज देने की जी तोड़ कोशिश पाकिस्तान करता ही है।
ऐसे अहम राज्य की बागडोर,जिसकी अवाम के बड़े हिस्से पर आदतन नशेड़ी होने का ठप्पा लगा हो,वहां मुफ्तखोरी का नशा बांटने वाले राजनीतिक दल के झूमते हुए मुख्यमंत्री प्रत्याशी के हाथ बागडोर आ जाना किसी बेहतरी की उम्मीद जगाता है या भयाक्रांत करता है ? याद ही होगा कि चुनाव प्रचार के दौरान ही भगवंत मान का वीडियो जबरदस्त वायरल हुआ,जिसमें मान शराब के नशे में बेसुध नजर आए और मीडिया से बचकर भाग रहे हैं। शराब पीना निजी मसला है, जिसे गलत या अनैतिक नहीं कहा जा सकता बशर्ते आप सार्वजनिक जीवन का हिस्सा न हो।
एक और बात,जो इसी दौरान प्रसिद्ध कवि कुमार विश्वास कहते नजर आए हैं कि पंजाब चुनाव के लिए अरविंद केजरीवाल ने खालिस्तान समर्थकों से हाथ मिलाने की बात कही थी और मिले भी। उसके बाद ही विश्वास को केंद्र सरकार ने एस पी जी सुरक्षा उपलब्ध कराई थी। बहरहाल।
अब जबकि पूरे लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर आप सत्ता में आई है,उसके मंसूबों के सामने आने का इंतजार करना होगा।इसमें भी खास बात यह होगी कि जो राजनीतिक दल एक साल रास्ता रोके बैठे लोगों की सबसे बड़ी मांग किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा पहनाने की थी, उसे आप सरकार कब और कैसे लागू कर पाती है?
कभी जंग और मोहब्बत में सब जायज था,अब इसमें राजनीति भी जुड़ गई। कब क्या हो जाए और कौन क्या कर दे, यह वह भी नहीं जान पाता,जो करने जा रहा है। इस अस्थिर,अनिश्चित,अविश्वसनीय विधा का नाम ही राजनीति है।जिसमें एक वोट से अटलबिहार वाजपेई जैसे तपस्वी नेता की सरकार गिर जाती है, जहां देवेगौड़ा जैसे गुमनाम 10,15 सांसदों वाले क्षेत्रीय दल के नेता  सीधे प्रधानमंत्री बन जाते हैं।

जहां गुलजारीलाल नंदा बार,बार अंतरिम प्रधानमंत्री तो बनते रहते है, पर स्थाई नहीं बन पाते। जहां वी पी सिंह जैसे बेपेंदे के नेता सर्वाधिक सीटों के साथ सत्तारूढ़ सरकार को औंधे मुंह गिराकर प्रधानमंत्री बन जाते हैं और जहां राजनारायण जैसे विचित्र मानुष इंदिरा गांधी जैसी कद्दावर नेता को पटकनी दे देते हैं तो आई ए एस होते,होते रह गए पूर्व राजस्व अधिकारी अरविंद केजरीवाल खंखारते हुए लच्छेदार भाषण देकर नेपथ्य से मंचासीन हो जाते हैं और अन्ना हजारे सरीखा मूल्य आधारित राजनीति का पैरोकार गुमनामी की खोह में धकिया दिया जाता है।