द कश्मीर फाइल्स फिल्म कश्मीर के पुराने जख्मों पर बंधी पट्टी हटाने जैसा है। 1990 के दशक में कश्मीर में पाक समर्थक आतंकियों द्वारा कश्मीरी पंडितों पर किए गए जुल्मों की दिल दहला देने वाली तस्वीर। राधेश्याम देशभर में 18000 से ज्यादा स्क्रीन्स पर प्रदर्शित हैं और द कश्मीर फाइन्स करीब 500 स्क्रीन्स पर, लेकिन फिर भी पहले दिन जिस तरह द कश्मीर फाइन्स का स्वागत किया गया, वह उल्लेखनीय हैं। फिल्म के दौरान कई बार दर्शक आंसू पोंछते नजर आए और कई बार भारत माता की जय के नारे भी सुनने को मिले। पहले दिन दर्शकों का जबरदस्त रिस्पांस इस फिल्म को मिला।
कश्मीर भारत की दुखती हुई रग है और जब भी कोई उस रग को छेड़ता है, तब दर्द का एहसास बढ़ जाता है। विवेक रंजन अग्निहोत्री ने फिल्म के बहाने इस दुखती हुई रग को छेड़ा है। कहीं-कहीं यह फिल्म डॉक्यूमेंट्री की तरह लगती हैं और कहीं किसी दस्तावेज की तरह। सरकारी दस्तावेजों के अनुसार 1990 में कश्मीर घाटी में 75 हजार से ज्यादा पंडित परिवार थे। तीन साल के भीतर 72 हजार से ज्यादा परिवार कश्मीर से पलायन कर गए। अब कश्मीर घाटी में बामुश्किल 1000 हिन्दू आबादी ही बची हैं। हिन्दू आबादी का पिछले 80 साल में लगातार पलायन हो रहा हैं। 1941 में यहां करीब 15 प्रतिशत हिन्दू आबादी थी, जो 1991 तक घटकर 0.1 प्रतिशत ही रह गई। कश्मीरी पंडितों के पलायन की कहानियां इस फिल्म में है। फिल्मांकन बड़ा ही मार्मिक हैं। कश्मीर की नयनाभिराम वादियां मन को लुभाती हैं। साथ ही वहां के दर्दनाक लोक गीत दिल को छू लेते हैं।
कश्मीरी पंडितों से पूरी दुनिया को सहानुभूति हैं। सरकारों को भी उनके लिए जितना कुछ करना चाहिए था, नहीं किया गया। इसमें राजनीति कितनी ज्यादा आड़े आई, यह भी इस फिल्म में दिखाया गया। केन्द्र सरकार की भूमिका पर भी सवाल है और राज्य सरकार द्वारा पोषित आतंकवाद का भी हवाला हैं। फिल्म में यह सारी बातें इशारों में नहीं कही गई, बल्कि खुलकर बताई गई हैं। आतंकवादियों द्वारा कश्मीरी पंडितों पर किए जाने वाले सिलसिलेवार अत्याचार और प्रशासन की नाकामी दिल को दहला देती हैं, लेकिन यह बात कही जा सकती है कि विवेक रंजन अग्निहोत्री ने अपने एजेंडा के तहत ही यह फिल्म प्रस्तुत की हैं। कश्मीर के बहुत सारे पहलू इस फिल्म में नहीं बताए गए हैं। फिल्म के अनुसार आतंकियों ने चुन-चुनकर हिन्दू लोगों को निशाना बनाया था, खासकर आरएसएस के कार्यकर्ताओं को। कश्मीरी पंडितों के प्रति सहानुभूति की लहर पर सवार यह फिल्म पूरी दुनिया के हिन्दू समाज को उद्वेलित करने में सक्षम हैं। फिल्म में कई जगह हिंसक दृश्यों का सहारा लिया गया है। आमतौर पर ऐसे दृश्यों को फिल्माने में प्रतीकात्मक छवियां ही इस्तेमाल की जाती हैं।
फिल्म में जेएनयू की भूमिका पर सवाल उठाए गए हैं और टुकड़े-टुकड़े गैंग कहें जाने वाले ग्रुप को भी निशाना बनाया गया है। जेएनयू जैसे संस्थान में शिक्षा के अलावा जैसी राजनीतिक गतिविधियां दिखाई गई हैं, वे जेएनयू की पूरी तस्वीर नहीं है।
कश्मीर की समस्या पर पहले भी कई फिल्में बनीं, लेकिन वे इंटरटेनमेंट की चाशनी में लपेटकर पेश की गई थी। इस फिल्म में ऐसी कोई चाशनी नहीं है। सीधा-सीधा बयान है कि कश्मीर में पंडितों के साथ जो हुआ, उसका जिम्मेदार कौन है और समस्या का समाधान कैसे होगा?
फिल्म के अंत में हीरो दर्शन कुमार का एक लंबा भाषण हैं। उस भाषण में दिया गया तमाम ज्ञान, उसे कश्मीर की 3 दिन की यात्रा में ही प्राप्त हो जाता हैं। फिल्म अपने उद्देश्य में एक हद तक कामयाब हैं।
अगर आप अपने जख्मों को कुरेदना देख सकें, तो यह फिल्म देखनीय हैं।