![IMG_20220314_120331](https://mediawala.in/wp-content/uploads/2022/03/IMG_20220314_120331.jpg)
चेक अनादरण पर प्रस्तुत होने वाले फौजदारी प्रकरण वर्तमान में चिंता का विषय है। इन प्रकरणों के निराकरण में लगने वाले समय में इस कानून के प्रावधानों को प्रभावहीन बना दिया है। दिवानी प्रकरणों में लगने वाले समय के समान ही इन प्रकरणों में भी समय लग रहा है। कुछ न्यायालय तो छः-छः माह की तारीख सुनवाई के लिए नियत कर रहे हैं। हाल ही में इस कानून के तहत प्रस्तुत मामले का निराकरण 17 बरसों बाद हुआ है। देश में इस प्रकार के कई प्रकरण हो सकते हैं। इस कानून में तत्काल सुधार की आवश्यकता महसूस की जा रही है।
परक्राम्य लिखत अधिनियम (निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट) 1881 में चैक अनादरण के प्रकरणों के निराकरण के लिए के लिए यह कानून लाने का मूल मकसद यह था कि जिस व्यक्ति ने चेक दिया है वह, उसका सम्मान करें। साथ ही यह भी भावना रही कि चैक प्राप्तकर्ता अपने भुगतान के प्रति आश्वस्त रहे। कानून लागू होने के कुछ सालों तक यह विश्वास कायम रहा, लेकिन धीरे-धीरे न्यायालयों में लगने वाले समय, न्याय शुल्क, कानून में संशोधन ने इस कानून को लाने की मूल भावना को ही समाप्त कर दिया है। इन प्रावधानों एवं प्रक्रिया में ही वे सब कमियां सम्मिलित हो गई जो दीवानी कानूनों में है। इंदौर में हाल ही में एक चैक अनादरण (बाउंस) के मामले में 17 साल बाद फैसला आया है। इस प्रकरण में कुल 80 पेशियों में मात्र दो गवाहों के बयान हुए। एक छोटी सी रकम के चैक अनादरण के लिए परिवादी को कितनी त्रासदी झेलनी पड़ी होगी इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इसमें परिवादी को सन् 2005 में चैक दिया गया था।
इस बात पर आम सहमति है कि इस कानून को प्रभावी बनाए जाने की जरुरत है। चेक से संबंधित परिवाद में चेक देने वाले व्यक्ति पर कोर्ट के नोटिस की तामिली एक अत्यंत ही गंभीर समस्या है। इनके समंस पुलिस के मार्फत तामिल किए जाने होते हैं। स्वाभाविक रूप से तामिली पुलिस की इच्छा पर निर्भर होती है। चैक देने वाला व्यक्ति बड़ी ही आसानी से इन नोटिसों की तामिली को टालता रहता है। न्यायालय से जारी समंस एवं वारंट की तामिली रिपोर्ट पुलिस से नहीं आती है। जमानती वारंट तामिल नहीं हो पाते हैं। औसत रूप से न्यायालय इसके लिए कुछ अवसर प्रदान करता है। इन अवसरों के बाद न्यायालय द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 87 के प्रावधानों के अंतर्गत गिरफ्तारी वारंट जारी किया जाता है। इस प्रक्रिया में लगभग तीन वर्ष का समय लग जाता है। न्यायालयों की प्रक्रिया में लगने वाला समय कुछ कम/कुछ अधिक संभव है। प्रकरणों की अधिकता के कारण कुछ न्यायालय इस हेतु छः माह की तारीखें भी लगा रहे हैं। इसके अलावा प्रकरणों में गवाही में भी काफी समय लगता है। न्याय शुल्क भी एक बड़ी समस्या है। यह चैक प्राप्तकर्ता पर एक अनावश्यक भार है।
जिस प्रकार भाड़ा नियंत्रण कानून अप्रभावी सिद्ध हो रहा है, उसी प्रकार यह कानून भी आम जनता के मन में निराशा और हताशा का भाव उत्पन्न कर रहा है। चेक लेने वाले व्यक्ति के मन में यह धारणा उत्पन्न होती है कि कहीं उसने चेक स्वीकार करके कोई बड़ी गलती तो नहीं की। यही भावना आज इस कानून की सबसे बड़ी असफलता है। इस कानून का मूल मकसद ही चेक प्राप्तकर्ता को चेक की राशि शीघ्र दिलाना था। इस कानून का मूल मकसद लेनदेन की प्रक्रिया को आसान बनाते हुए लोगों में विश्वास पैदा करना था। चेक के रूप में भुगतान का एक व्यापक माध्यम प्राप्त होता है। इस कानून का मकसद यह भी रहा कि चेक देने वाला व्यक्ति कानून का दुरुपयोग न करें। चेक से संबंधित कानून की धारा 13 (1) भुगतान के विभिन्न माध्यमों और तरीकों को बताती है। चेक, विनिमय बिल, वचन पत्र आदि का इसमें उल्लेख है। इस कानून का मूल मकसद इनके उपयोग को सुरक्षित रखता था। चेक के रूप में भुगतान का एक व्यापक माध्यम है। आगे की तारीखों पर किए जाने वाले भुगतान के लिए पोस्ट डेटेड चेक भी है। चेक के रूप में भुगतान के तरीके का सम्मान करना इस कानून की धारा 138 को लाने का मूल कारण है।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में धारा 138 का उद्देष्य बैंकों के कामकाज की दक्षता बढ़ाने और चैक के माध्यम से व्यावसायिक लेनेदेन में विश्वसनीयता को स्थापित करने के लिए एक माध्यम बताया है। यह कानून के माध्यम से नागरिक दायित्व के मामले में न्यायालय का हस्तक्षेप है। इस कानून में चैक की निर्धारित राशि का दोगुना जुर्माना वसूलने एवं 2 साल की सजा का प्रावधान भी है। इस कानून में प्रस्तुत प्रकरणों को मूलतः फौजदारी प्रकरण माना जाता है। लेकिन, इन कानूनों में प्रस्तुत प्रकरण अन्य आपराधिक अपराधों से अलग है। इसलिए इन्हें अलग तरीकों से तेजी से चलाए जाने को प्राथमिकता दी जाना आवश्यक है। दुर्भाग्य से यही नहीं हो पा रहा है।
यह सही है कि, इस अधिनियम की धारा 138 भुगतान की चूक के लिए कठोर दायित्व लागू करती है। इसलिए चेक के मामले में अधिनियम के प्रावधान एक आवश्यक हथियार है। सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले के अनुसार चार्ज लगने के बाद चैक देने वाले व्यक्ति को साक्ष्य के पहले चैक की रकम की 20 प्रतिशत राशि परिवादी को दिए जाने का आदेश न्यायालय कर सकती है। लेकिन दुर्भाग्य से अधिकांश न्यायालय द्वारा इस प्रकार के आदेश नहीं किए जा रहे हैं। इस कारण चैक प्राप्त करने वाले व्यक्ति को लंबा इंतजार करना पड़ता है।
आज इस कानून में अनेक महत्वपूर्ण सुधार किए जाना एक महती आवश्यकता है। चैक अनादरण के मामले कम से कम छः माह एवं अधिकतम एक वर्ष में अनिवार्य रूप से निपटाए जाना आवश्यक है। इस समय अवधि का न्यायालय द्वारा कठोरता से पालन किया जाना चाहिए। पेशी तारीख इसी समयावधि के हिसाब से दी जाना अनिवार्य की जाना चाहिए। इन प्रकरणों में न्यायालय द्वारा पहले अभियुक्त को समन भेजा जाता है। समंस की तामील होने पर भी उपस्थित न होने पर वारंट जाता है। जमानती वारंट तामील होने पर भी उपस्थित न होने पर गिरफ्तारी वारंट जारी किया जाता है। इस प्रक्रिया को संक्षिप्त किया जाना चाहिए। इस कानून में प्रकरण (परिवाद) प्रस्तुत करने के पूर्व चेक प्राप्तकर्ता द्वारा विधिक नोटिस दिया जाता है। इससे चेक देने वाले व्यक्ति को यह जानकारी प्राप्त हो जाती है कि उसके द्वारा दिया गया चेक अनादरित हो चुका है तथा चेक राशि नियत अवधि में भुगतान न करने की दशा में उसके विरूद्ध परिवाद प्रस्तुत हो सकती है।
इस कारण अभियुक्त के विरुद्ध समंस की जगह सीधे ही जमानती वारंट और न आने पर गिरफ्तारी वारंट जारी किया जाना चाहिए। साथ ही पुलिस पर इस बात का दबाव होना चाहिए कि वह समंस वारंट की तामील बगैर किसी विलंब के करें। इससे समय की बचत हो सकेगी। न्यायालय को भी पेशी तारीख यथासंभव जल्दी की दी जानी चाहिए। साथ ही न्याय शुल्क भी समाप्त होना चाहिए। अभी मध्यप्रदेश में इन प्रकरणों पर लगने वाला शुल्क सर्वाधिक है। पूर्व में मात्र दस रुपए के आवेदन पर प्रकरण प्रस्तुत किया जा सकता था।
इसमें संदेह नहीं है कि परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1981 की धारा 138 उन लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण हथियार है जो भुगतान के लिए दिए गए अपने चैकों का सम्मान नहीं करते हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि इस कानून को और अधिक प्रभावी बनाया जाए ताकि लोगों का विश्वास इन प्रावधानों पर पुनः स्थापित हो सके। ऐसा भी नहीं है कि सरकार को इस स्थिति की जानकारी न हो। चैक अनादरण के मामलों में लगने वाले समय और सजा के संबंध में इस कानून में संशोधन की आवश्यकता को सरकार भी महसूस कर रही है। इस हेतु सन् 2021 में सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने मुंबई उच्च न्यायालय न्यायाधीश न्यायमूर्ति आरसी चव्हाण की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया है जो इस पर विचार करेगी कि चैकों के प्रकरण का निराकरण इन प्रावधानों के अंतर्गत किस प्रकार किया जा सके। आज आवश्यकता इस बात की है समिति शीघ्रता से अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करें, ताकि इस संबंध में तेजी से कदम उठाए जा सके।
![WhatsApp Image 2021 10 25 at 10.13.34 AM WhatsApp Image 2021 10 25 at 10.13.34 AM](https://mediawala.in/wp-content/uploads/2021/10/WhatsApp-Image-2021-10-25-at-10.13.34-AM-120x120.jpeg)
विनय झैलावत
लेखक : पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल एवं इंदौर हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं