गोपाल जय-जय, गोविंद जय-जय (Gopal Jai Jai Govind Jai Jai)…

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गोपाल जय-जय, गोविंद जय-जय (Gopal Jai Jai Govind Jai Jai)…
वरिष्ठतम जनप्रतिनिधियों को सदन में प्रोटेम स्पीकर के पद से नवाजे जाने की परंपरा भले ही रही हो, लेकिन विधानसभा में ‘नेता प्रतिपक्ष’ बनाने में ऐसी परंपरा नहीं रही है। पर मध्यप्रदेश की पंद्रहवीं विधानसभा अपने-अपने दल के वरिष्ठतम जनप्रतिनिधियों ‘गोविंद-गोपाल’ को नेता प्रतिपक्ष के पद से नवाजे जाने के लिए खास तौर से जानी जाएगी। यह आश्चर्य की भी बात है कि दो बड़े दलों के वरिष्ठतम प्रतिनिधि पंद्रहवीं विधानसभा में ‘नेता प्रतिपक्ष’ की कुर्सी को सुशोभित करने का गौरव हासिल करने में सफल रहे हैं।
दिलचस्प बात यह भी है कि भारी प्रतिस्पर्धा और जातिगत समीकरणों को साधने की कवायद के बीच इन वरिष्ठतम विधायकों की तो जैसे लॉटरी ही लगी है। नाम जब कृष्ण का हो, तो फिर इतना हक तो बनता है कि पूरा संघर्ष करने पर ही सही ‘नामदार’ पद तो हिस्से में आए। हुआ भी यही कि स्थितियां-परिस्थितियां प्रतिकूल होने पर भी पहले गोपाल और बाद में गोविंद को महती जिम्मेदारी हासिल हुई और विधानसभा के इतिहास में नाम दर्ज हो गया। और अब तो विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम ने सदन के नेता और नेता प्रतिपक्ष की फोटो भी सदन में लगवा दी हैं।
इन फोटो की चमक और भव्यता आने वाले समय में बढ़ती ही रहेगी। ऐसे में गोविंद-गोपाल का चेहरा भी सदन के गलियारे में ही सही दमकता रहेगा। और अब जब देश में प्रधानमंत्री संग्रहालय बन गया है, तो हो सकता है कि कल के दिन मध्यप्रदेश में भी मुख्यमंत्री संग्रहालय और नेता प्रतिपक्ष संग्रहालय जैसे कदम उठें और पर्यटक व जिज्ञासुओं की आंखों में गोविंद-गोपाल की छवि भी स्थायी जगह पा सके। जो कि सिर्फ मंत्री रहते हुए संभव नहीं था। बहुतेरे मंत्रियों को जनता बहुत जल्द बिसरा देती है। तो बहुत ज्यादा समय तक किसी को भी याद नहीं रखती। हां… प्रदेश में विधानसभा अध्यक्ष, मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष जैसे पदों पर आसीन नेताओं को वह विशिष्ट स्थान हासिल होता है कि इतिहास उनके नाम का स्मरण कराता रहता है।
पंद्रहवीं विधानसभा की शुरुआत में जब कांग्रेस की सरकार बनी, तो भाजपा में ‘नेता प्रतिपक्ष का चेहरा कौन’ की खोजबीन शुरू हुई। सबसे पहला नाम चर्चा में था, तो वह लगातार तीन बार मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान का था। इसके बाद नेता प्रतिपक्ष बनने की कतार में आठ बार के वरिष्ठतम विधायक गोपाल भार्गव और नरोत्तम मिश्रा, भूपेंद्र सिंह सहित अलग-अलग समीकरणों से अलग-अलग नाम चर्चा में थे। पर जब पंडित गोपाल भार्गव के नाम का ‘नेता प्रतिपक्ष’ के लिए ऐलान हुआ, तो सबकी आंखों में कुछ समय तक आश्चर्य तैरता रहा।
खुद पंडित जी भी सहजता से भरोसा नहीं कर पा रहे थे। सबसे ज्यादा निराशा शिवराज समर्थकों में थी, तो दावेदारों को भी यह फैसला आसानी से हजम नहीं हुआ था। खैर कुछ समय तक तो नेता प्रतिपक्ष के कक्ष में शिवराज को सामने बैठा देखकर गोपाल भी असहज हुए ही, पर पद और कुर्सी तो यथार्थ से मुंह मोड़ने नहीं देती। फिर हुआ भी वही और पंडित गोपाल भार्गव को आगे बढ़ाने के केंद्रीय संगठन के फैसले के मायने निकाले जाने लगे। खैर पंडित गोपाल भार्गव करीब पंद्रह माह ही ‘नेता प्रतिपक्ष’ रहे और फिर शिवराज मंत्रिमंडल के वरिष्ठतम मंत्री होने पर भी विभागीय बंटवारे में संतुष्ट रहने को मजबूर ही हुए। यहां बाजी मारने वालों ने कोई कसर नहीं छोड़ी।
तो जब पंद्रह माह बाद ही कमलनाथ को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा, तो फिर ‘नेता प्रतिपक्ष का चेहरा कौन’ की चर्चा हुई। पर इस बार कैडर बेस पार्टी की जगह पॉवर बेस पार्टी का मामला था, सो नाथ मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने के पांच माह बाद अगस्त 2020 में खुद ही नेता प्रतिपक्ष बनकर कुर्सी पर विराजमान हो गए। यही नहीं नेता प्रतिपक्ष और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर साथ-साथ बीस माह तक टिके रहे और मुख्यमंत्री-प्रदेश अध्यक्ष के पद पर साथ-साथ रहने के 15 माह के रिकार्ड को पीछे छोड़ दिया।
अब जब नई विधानसभा के गठन को ही केवल बीस माह बचे हैं तो नाथ को आइना दिखाने वालों में होड़ मच गई और पीके महाराज भी बिना वजह दरवाजे तक पहुंचे और उछलकूद कर वापस लौट गए। इस दौर में सबसे ज्यादा मुद्दा उछला तो एक व्यक्ति-एक पद का…फिर क्या कांग्रेस हाईकमान ने भी नवाचारी बनकर नाथ से नेता प्रतिपक्ष का तमगा लेकर डॉ. गोविंद सिंह को सौंप दिया। खैर अब बाकी सब बेमानी है, पर यह बात सच्चाई है कि डॉ. साहब कांग्रेस में वरिष्ठतम सात बार के विधायक हैं। और उनके नेता प्रतिपक्ष बनने पर भी मायूस होने वालों की लंबी कतार है। तो राजनैतिक-जातिगत समीकरण भी कहीं दूर जा गिरे हैं।
खैर पंद्रहवीं विधानसभा में तीसरे और अब तक की सूची में पच्चीसवें नेता प्रतिपक्ष होंगे डॉ. गोविंद सिंह। वहीं नेता प्रतिपक्ष में चौबीसवें नंबर पर कमलनाथ का नाम दर्ज है। तो तेईसवां स्थान पंडित गोपाल भार्गव के नाम को सुशोभित कर रहा है। नाथ की छोड़ें, क्योंकि वह खुद ही पॉवर सेंटर हैं…तो वरिष्ठतम विधायक, स्पष्टवादी होने के नाते और समय-काल-परिस्थिति की मेहरबानी से यह उपलब्धि हासिल करने वाले गोपाल की भी जय-जय और अब गोविंद की भी जय-जय। प्रदेश की राजनीति में इस महत्वपूर्ण पद के बाद सदन का नेता और मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब ही बाकी बचता है।