Law and Justice : सरकार बड़ी मुकदमेबाज, इसीलिए अदालतों में लंबित प्रकरण ज्यादा;
न्यायालयों में प्रकरणों के अंबार और उनके निराकरण में लगने वाले समय की चर्चा तो आम है, लेकिन इसका सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि इनमें लगभग आधा हिस्सा सरकारों का है। केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के अधिकारियों की उपेक्षा, अनदेखी एवं नासमझी के कारण ये मुकदमें विभिन्न न्यायालयों में लगाए जाते हैं। अवमानना प्रकरणों का भी यही कारण है। इसकी रोकथाम आज की महती आवश्यकता है। अभी हाल ही में राजधानी में आयोजित कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री का ध्यान भारत के मुख्य न्यायाधिपति ने इस समस्या की ओर आकर्षित किया है।
देश की राजधानी में छः साल बाद आयोजित मुख्यमंत्रियों तथा उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन से कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे उभरकर सामने आए हैं। इस सम्मलेन में छः मुद्दों पर विचार किया गया। वे प्रमुख मुद्दे थे प्राथमिकता के आधार पर पूरे भारत में सभी न्यायालयों परिसरों में सूचना प्रौद्योगिकी संरचना और संयोजकता को मजबूत करना। मानव संसाधन/कार्मिक नीति जिसमें जिला स्तर के न्यायालयों की आवश्यकताओं पर विचार। बुनियादी ढांचा और क्षमता निर्माण, अत्याधुनिक न्यायिक बुनियादी ढांचे बनाना। संस्थागत कानूनी सुधार। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के अनुलाभ एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के सेवानिवृत्ति के बाद के लाभों में वृद्धि। ये सभी विषय ऐसे हैं, जिनका सीधा संबंध न्यायालय के विचाराधीन प्रकरणों से है।
इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उद्घाटन सत्र में भाग लिया तथा सम्मेलन को संबोधित किया। प्रधानमंत्री एवं भारत के मुख्य न्यायाधिपति न्यायमूर्ति एनवी रमन्ना ने एक दूसरे के समक्ष कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए। स्वाभाविक रूप से इनका संबंध न्यायपालिका एवं इनमें लंबित मुकदमों एवं उनके निराकरण से है। प्रधानमंत्री ने जो सर्वाधिक महत्व का वह मुद्दा उठाया, जिसकी चर्चा इन दिनों खूब है। प्रधानमंत्री ने कहा कि जनता से जुड़े न्यायालयीन मामलों की सुनवाई जनता की भाषा में होनी चाहिए।
प्रधानमंत्री ने न्यायालयों में स्थानीय भाषाओं के उपयोग का आग्रह किया। उन्होंने कहा कि इससे न्याय प्रणाली में आम नागरिकों का विश्वास बढ़ेगा और वे इससे अधिक जुड़ाव महसूस करेंगे। उन्होंने कहा कि हमारे देश में न्यायालय नागरिकों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है। संविधान भी इन दो धाराओं के इस संगम और संतुलन से देश में प्रभावी और समयबद्ध न्यायालय व्यवस्था का रोडमेप तैयार करेगा। प्रधानमंत्री ने यह प्रश्न भी उठाया कि जब सन् 2047 में देश अपनी आजादी के 100 साल पूरे करेगा, तब हम देश में कैसी न्याय व्यवस्था चाहेंगे। हमें इस बात पर विचार करना होगा कि सन् 2047 तक अपनी न्यायिक व्यवस्था को इतना समर्थ बनाए कि वो भारत की आकांक्षाओं को पूरा कर सके।
प्रधानमंत्री ने कहा कि हमारे देश में आज भी उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय की सारी कार्यवाही अंग्रेजी में होती है। एक बड़ी आबादी के लिए न्यायिक प्रक्रिया से लेकर फैसलों तक को समझना मुश्किल होता है। हमें न्याय व्यवस्था को आम आदमी के लिए सरल बनाने की जरूरत है। हमें कोर्ट में स्थानीय भाषाओं को प्रोत्साहन देने की जरूरत भी है। इससे देश के सामान्य नागरिकों का न्याय प्रणाली में भरोसा बढ़ेगा और वे उससे स्वयं को जुडा हुआ महसूस करेंगे। एक गंभीर समस्या आम आदमी के लिए कानून की पेचीदगियों को समझने की भी है।
यह उल्लेखनीय है कि अभी हाल ही में ‘सुबह सवेरे’ लेखक के न्यायालय में हिंदी विषय पर चार आलेखों की एक श्रृंखला प्रकाशित की थी, जिसमें न्यायालयों में हिन्दी तथा स्थानीय भाषाओं के संबंध में विस्तृत चर्चा की गई थी।
प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत की 75वीं वर्षगांठ पर ऐसी न्यायिक प्रणाली के निर्माण पर ध्यान दिया जाना चाहिए जहां न्याय आसान, त्वरित और सभी के लिए उपलब्ध होना चाहिए। हमारे देश में जहां न्यायपालिका की भूमिका संविधान के संरक्षक की है, वहीं विधायिका नागरिकों की आकांक्षा का प्रतिनिधित्व करती है। प्रधानमंत्री में कहा कि उनका मानना है कि इन दोनों का संगम एक प्रभावी व समयबद्ध न्याय प्रणाली के लिए रोडमेप तैयार करेगा।
सम्मलेन में मुख्य न्यायाधिपति एवी रमन्ना ने लंबित मामलों सहित कई मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखी। मुख्य न्यायाधिपति ने न्यायालयों के बुनियादी ढांचे में सुधार की आवश्यकता पर जोर दिया। देश के मुख्य न्यायाधीश ने दो मुद्दों पर विषेष जोर दिया। एक तो, अदालत के फैसले को सरकारों द्वारा सालों तक लागू नहीं किए जाते हैं। न्यायिक फैसलों के बावजूद जानबूझकर निष्क्रियता बरती जाती है जो देष के लिए अच्छा नहीं है। दूसरा, महत्वपूर्ण मुद्दा ‘सरकार का सबसे बड़ा मुकदमेबाज होना’ बताया। मुख्य न्यायाधिपति ने भूमि विवादों को न्यायालयों पर सबसे बड़ा बोझ बताया। न्यायालयों के विचाराधीन मामलों में इन मामलों की संख्या 60 प्रतिशत है। मुख्य न्यायाधिपति ने जनहित याचिकाओं का उपयोग व्यक्तिगत हित के लिए करने की भी कड़ी आलोचना की। मुख्य न्यायाधिपति ने कहा कि अकसर अधिकारियों की नासमझी और विधायिकाओं के कारण मुकदमेबाजी होती है, जिसे रोका जाना चाहिए।
मुख्य न्यायाधिपति ने कहा कि 50 प्रतिशत लंबित मामलों के लिए सरकार जवाबदार है। उन्होंने कहा कि कार्यपालिका और विधायिका की विभिन्न शाखाओं द्वारा पूरी समझ एवं क्षमता से कार्य न किए जाने के कारण लंबित मामलों का अंबार लगा हुआ है। मुख्य न्यायाधिपति ने न्यायिक आदेशों की अवहेलना और उससे उत्पन्न अवमानना मामलों की बढ़ती संख्या का उल्लेख करते हुए कहा कि न्यायिक निर्देशों के बावजूद निष्क्रियता दिखाना, लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। उन्होंने कहा कि कानून बनाने के पहले उस पर गहन बहस और चर्चा होनी चाहिए। मुख्य न्यायाधिपति ने कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका तीनों अंगों के लिए ‘लक्ष्मण रेखा’ का उल्लेख भी किया। उन्होंने कहा कि यदि राज्य कानून के अनुसार चलेंगे तो न्यायपालिका कभी भी शासन के रास्ते नहीं आएगी।
इस सम्मेलन में एक अच्छी बात यह हुई है कि, मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायाधीशों ने इस बात पर सहमति व्यक्त की है कि राज्य स्तर पर मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायाधीशों या उनके द्वारा नाॅमित व्यक्तियों की भागिता से एक निकाय बनाया जाएगा। इससे कई मुद्दों का निराकरण संभव हो सकेगा। इस सम्मेलन में भारत की न्यायिक व्यवस्था, विचाराधीन मामले, इसके जिम्मेदार तत्व, न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका की भूमिका, सरकारों की भूमिका, न्यायालयों की संरचना जैसे गंभीर मुद्दों पर विचार विमर्श हुआ जो भारतीय न्यायपालिका के लिए शुभ संकेत है। इस प्रकार के सम्मेलन शीघ्रता एवं अल्पकाल में होना चाहिए। इससे कई मुद्दों का निराकरण होगा तथा आपसी समझ बढ़ेगी। सरकार और न्यायपालिका में आपसी विचार विमर्ष अत्यंत ही आवश्यक है तथा यह निरंतर चलते रहने वाली प्रक्रिया है। इसी से सरकार और न्यायपालिका के मध्य जो असंतोष, खामिया और अव्यवस्था है उसे दूर किया जा सकेगा।
प्रधानमंत्री एवं मुख्य न्यायाधिपति, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधिपतियों, विधि, मैत्री एवं प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों के मध्य इस चर्चा से जो नतीजें एवं निष्कर्ष निकलेंगे उससे न्यायपालिका विचाराधीन प्रकरणों के निराकरण में मदद मिलेगी। साथ ही सरकारें भी अपनी लापरवाही, सरकारी अधिकारियों की निष्क्रियता एवं न्यायालयीन आदेश को न मानने के कारण अवमानना के प्रकरणों में कमी आएगी। शासन अपने कारण आने वाले ‘प्रकरणों की बाढ़’ की रोकथाम के लिए जरुरी कदम उठा सकेगा। साथ ही छोटे मामले एवं अपीले न्यायालयों में न आए, इसके लिए पर्याप्त कदम उठाने में भी सफल हो सकेंगे, ऐसी आशा की जा सकती है।