‘पिछड़ा पावै सौ में साठ’ का नारा देने वाले सोशलिस्ट नेता डाक्टर राममनोहर लोहिया ने कहा था – ‘लोग मेरी बात सुनेंगे लेकिन मेरे मरने के बाद’ आज लोहिया का यह नारा राजनीतिक दलों और नेताओं के सिर पर चढ़कर बोल रहा है।
उत्तरप्रदेश और बिहार के बाद अब मध्यप्रदेश में पिछड़े वर्ग की राजनीति परवान पर है। फौरी सबब है पंचायत के चुनाव का। कांग्रेस और भाजपा बढ़चढ़कर ऐसे पैरवी कर रही हैं कि यदि उनका बस चले तो समूचा आरक्षण ही ओबीसी के चरणों में रख दें।
सुप्रीम कोर्ट ने मध्यप्रदेश सरकार से 27% ओबीसी आरक्षण देने का तार्किक आधार माँगा था, जो सरकार देने में विफल रही।सुप्रीमकोर्ट के अंतरिम आदेश के अनुसार चुनाव में पिछड़ों के लिए एक भी सीट नहीं रहेगी, पहले से चली आ रहा 14 प्रतिशत आरक्षण भी नहीं। लेकिन राजनीति में पिछडों के हितैषी दिखने की राजनीति सिरपर चढकर बोलती रहेगी और यही 2023 के विधानसभा व लोकसभा का आधार भी बनेगी।
डाक्टर राममनोहर लोहिया आजादी मिलने के एक वर्ष पूर्व ही पंडित नेहरू से राजनीतिक मतभेदों के चलते अलग हो गए। जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, अशोक मेहता, आचार्य नरेन्द्र देव के साथ मिलकर सोशलिस्ट पार्टी बना ली। डाक्टर लोहिया जातितोड़ों का आंदोलन जरूर चलाते थे पर उनका मानना था कि यह प्रवृति तभी खत्म होगी जब दलित व पिछड़ी जाति के लोग सामाजिक और राजनीतिक रूप से बराबरी पर आ जाएंगे।
63 में वे फरुख्खाबाद से उप चुनाव में जीतकर लोकसभा पहुँचे। वे मानते थे कि कांग्रेस वोट तो दलित और पिछड़ों से लेती है पर उसका नेतृत्व कुलीन हाथों में है। वामपंथियों को भी इसी श्रेणी का मानते थे।
1965 के आसपास उन्होंने दो नारे दिए पहला नारा था- संसोपा ने बाँधी गाठ, पिछड़ा पावै सौ में साठ, दूसरा नारा था- मँहगी रोको बाँधों दाम, वरना होगा चक्का जाम। पहले नारे को कांग्रेस के भीतर ही पिछड़ा वर्ग के लोगों ने सूत्रवाक्य मानकर पकड़ लिया।
कांग्रेस के भीतर से ही चौधरी चरण सिंह ने लोहिया के इस नारे को बुलंद किया और प्रकारान्तर मेंं उत्तरप्रदेश की चन्द्रभानु गुप्त की सरकार गिरा दी। बिहार में पिछड़े वर्ग के कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने। पिछड़ों की यह राजनीति सैलाब की तरह ऐसी बढ़ी कि गैर कांग्रेसवाद के अश्वमेधी घोड़े पर सवार हो गई।
67 तक कांग्रेस की नौ राज्यों की सरकारें बेदखल हो गईं। गैर कांग्रेसवाद के इस नारे को जनसंघ का साथ मिला। पंडित दीनदयाल उपाध्याय लोहिया के साथ हो लिए। वही क्रम 77 में दोहराया गया जब जेपी और नानाजी की जोड़ी बनी।
दरअसल लोहिया पंडित नेहरू से इस बात से भी नाखुश रहे कि 1955 पिछड़ावर्ग के हितों के लिए गठित काका साहब कालोलकर की सिफारिशों को दरकिनार कर दिया गया था। 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो सबसे बड़ा काम 1978 में बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता में आयोग गठित कर दिया जिसे पिछड़े वर्ग के लिए सिफारिशें देनी थी।
मंडल साहब ने जनता पार्टी की सरकार के गिरते -गिरते अपनी सिफारिशें पेश की। 1980 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार पुनः आ गई। मंडल कमीशन की रिपोर्ट राजीव गाँधी के शासन काल तक दबी रही। 1989 में जब वीपी सिंह की जनमोर्चा सरकार बनी तो मंडल कमीशन फिर याद आया।
मंडल साहब ने 1931 की जातीय जनगणना को आधार मानकर रिपोर्ट दी कि देश में 52 प्रतिशत आबादी पिछड़ों की है। आरक्षण में 50 प्रतिशत की सीमा को ध्यान में रखते हुए केन्द्र सरकार की ओर से 27प्रतिशत ओबीसी आरक्षण का आदेश जारी हुआ। इस आदेश से देश में भूचाल सा आ गया। सवर्ण युवाओं ने आत्महत्याएं की..। लेकिन पिछड़ा वर्ग की राजनीति का सिक्का चल निकला।
1990 के बाद लालू यादव और मुलायम सिंह का राजनीति में अभ्युदय हुआ। दोनों राज्यों की पिछड़े वर्ग की राजनीति की हवा मध्यप्रदेश आ पहुंची। 1990 के बाद इन तीनों राज्यों में एक भी ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बना।
1991 में नरसिंह राव की सरकार आने के बाद सामान्य वर्ग के लिए 10 प्रतिशत का आरक्षण देकर मामले को ठंडे करने की कोशिश की लेकिन पिछड़े वर्ग की राजनीति तबतक धधक रही थी।
सभी राज्यों ने मंडल कमीशन के 52 प्रतिशत और केन्द्र के 27 प्रतिशत आरक्षण की बात को पकड़ लिया। जबकि हर राज्यों में जातीय आबादी का प्रतिशत अलग-अलग है। लेकिन फिर भी सभी ने पिछड़ों को लुभाने के लिए आरक्षण का खेल शुरू कर दिया।
तामिलनाडु और राजस्थान ने तो आरक्षण का दायरा 67 तक पहुंचा दिया। इस बीच 2018 में जब कांग्रेस की सरकार बनी तब कमलनाथ ने पिछड़े वर्ग की आबादी की दुहाई देते हुए आरक्षण को 14 से 27 प्रतिशत बढ़ा दिया। मध्यप्रदेश में अजाजजा हेतु वैसे भी 35 प्रतिशत का आरक्षण है। इसमें 27 प्रतिशत जोड़ देने से यह दायरा 62 प्रतिशत पहुँच जाता है। जबकि अभी भी संविधान में आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत की है।
यह सीमा तब तक रहेगी जबतक कि संविधान में संशोधन न लाया जाए।
कांग्रेस और भाजपा दोनों इस वास्तविकता को जानती हैं पर पिछड़े वर्ग को अपने पाले में लाने की होड़ के चलते हालात को इस मुकाम तक पहुंचा दिया कि 27 प्रतिशत की कौन कहे,14 प्रतिशत भी हाथ से गए। आरक्षण की इस अतार्किक लड़ाई में पिछड़े वर्ग के युवा भी वैसे ही फँसकर पिस रहे हैं जैसे कि सामान्य वर्ग के।
लोहिया अतिवादी विचारक थे। गैर कांग्रेसवाद की रौ पर उन्होंने यह नारा तो उछाल दिया कि ‘पिछड़ा पावै सौ में साठ’ लेकिन उसकी परणति का आँकलन अपने जीते जी नहीं कर पाए। जिस सामाजिक विषमता के खिलाफ जिन्हें लेकर उन्होंने राजनीतिक युद्ध छेड़ा था वही आज जातीय राजनीति के सबसे बड़े झंडा बरदार बन गए। पर वे यह बात सही कह गए- लोग मेरी बात सुनेंगे लेकिन मेरे मरने के बाद।