Silver Screen:फिल्मों का अचूक नुस्खा रहा कसमे और वादे!
चुनाव के दौरान चारों तरफ वादों की फसल लहलहाने लगती है। वोट के लिए कसमें खा खाकर वोटर्स से वादे किए जाते हैं। लेकिन, बाद में सब भुला दिया जाता है। इसके विपरीत सिनेमा (Silver Screen) में कसमों-वादों को बहुत गंभीरता से लिया जाता है। जो कुछ कहा जाता है, उसे निभाया भी जाता है!
परदे पर नायक, नायिका और चरित्र अभिनेता जो वादा करते हैं, उसे जान देकर या जान की बाजी लगाकर भी निभाने की कोशिश होती है। फिर चाहे इसके लिए उन्हें कुछ भी खोना पड़े या रिश्तों-नातों को ही क्यों न तोड़ना पड़े।
समाज में भी एक ऐसा दौर था, जब अपना वादा निभाने के लिए लोग प्राण भी दे देते थे। जुबान की इतनी कीमत थी कि व्यक्ति को उसकी साख पर महाजन कर्ज दे देता था।
80 और 90 के दशक में ऐसी कई फ़िल्में आईं जब शुरुआत में ही आगे की कहानी का अंदाजा हो जाता था। कपड़े सीकर बेटे को पालने वाली मां आखिरी सांस लेते समय बेटे से वादा लेती थी, कि वो खोए हुए पिता का पता लगाएगा।
कभी कोई दोस्त अपने दूसरे दोस्त से अपनी बेटी या बेटे का वादा लेकर लुढ़क जाता था। कभी ऐसा भी होता था कि मां खुद के सौतेली होने का राज आखिरी सांस के साथ बताती थी।
इन सारे सीन में ख़ास बात यह होती थी, कि जो वादा लिया जाता नायक या नायिका उसे पूरी शिद्दत से निभाते भी थे। फिर चाहे कोई भी मुसीबत क्यों न आए! फ़िल्मी कथानकों में बरसों से कसमे और वादे एक अचूक नुस्खा रहा है, जिसके दम पर दर्शकों को तीन घंटे बांधा जा सकता है।
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सिनेमा (Silver Screen) में कसमों और वादों का ये सिलसिला शुरू की दो-तीन रील में ही ज्यादा होता था। कभी कोई वादा टूटने का घटनाक्रम बनता भी था, तो उसके पीछे कोई नाटकीय हालात होते थे। वादा करने वाले की या तो याददाश्त खो जाती थी, या उसे खलनायक के गुंडे कहीं बांध देते हैं। कुछ फ़िल्में तो ऐसी भी बनी, जब नायक ने इस जन्म का वादा अगले जन्म में आकर पूरा किया।
याद कीजिए करण-अर्जुन कुछ ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें सलमान खान और शाहरुख़ खान दूसरे जन्म में खलनायक अमरीश पुरी से बदला लेते हैं! फिल्म में उनकी मां का किरदार निभाने वाली राखी विक्षिप्त अवस्था में यही बोलती नजर आती है ’मेरे करण अर्जुन आएंगे!’
इसके विपरीत फिल्मों में खलनायक का काम वादा करना और उसे तोड़ना ही होता रहा है। ये किरदार हमेशा वादा तोड़ने के लिए ही गढ़ा जाता है और जब भी उसे मौका मिलता है, वो इसका फायदा जरूर उठाता है।
वादे निभाने और कसमों को पूरा करने में सिनेमा (Silver Screen) का नायक सबसे अटल व्यक्ति रहा है। वादा चाहे उसने किया हो या उसकी मां या बाप ने, उसके लिए वो पत्थर की लकीर होता है।
गांव का नायक जब शहर आता है, तो घर से कुछ वादे करके आता है। उन्हें निभाने में उसका लम्बा वक़्त बीत जाता है, पर वो सारी मुसीबत उठाते हुए भी उनसे पीछे नहीं हटता। शहर में वो नायिका के मोह में पड़ जाता है, तो गांव जाने से पहले लौटने का वादा करना नहीं भूलता।
लेकिन, वहां ऐसे हालात बन जाते हैं कि वो लौट नहीं पाता! कभी घर वालों के दबाव में या कभी याददाश्त खो जाने पर वह अपना वादा समय पर नहीं निभा पाता, पर नायिका उम्मीद का दामन नहीं छोड़ती! ये हालात कभी शहर में बनते हैं, तो नायिका अपने प्रेमी की खोज में गांव पहुंच जाती है! पर, यदि नायक गांव से वादा करके शहर आता है तो नायिका उसके पीछे-पीछे चली आती है।
आशय यह कि नायिका किसी भी स्थिति में उसकी ईमानदारी पर शक नहीं करती और तब तक कुंवारी बैठी रहती है, जब तक नायक अपना वादा पूरा न कर दे! फिल्म का अंत होने से पहले सब ठीक भी हो जाता है।
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धर्मेंद्र और मिथुन चक्रवर्ती जैसे कुछ लड़ाका नायक ऐसे होते थे, जिनकी हर फिल्म में एक डायलॉग होता था ‘मॉं कसम बदला लूंगा’ या ‘चुन चुन कर मारूंगा।’ इस तरह के नायक अकसर दूध का कर्ज चुकाने के लिए बदला लेते थे या बचपन में पूरे परिवार की हत्या होते देख बदला लेने की कसम खाते खाते बड़े हो जाते।
तब तक खलनायक कहीं गुम हो जाता था। लेकिन, क्लाइमेक्स में उसके ब्रेसलेट, पैर के जूते नायक को उसकी कसम याद दिलाते और नायक खुद को दिया वादा पूरा कर लेता था।
अमिताभ बच्चन और श्रीदेवी की फिल्म ’खुदा गवाह’ की तो कहानी ही वादा निभाने पर ही लिखी गई थी। फिल्म में काबुल का एक पठान को उस अपराध में सजा मिलती है, जो उसने नहीं किया था। लेकिन, फिर भी वह उस सजा को भोगता है। जेलर भी उस मेहनती कैदी के आचरण से प्रभावित होता है।
दोनों में एक दोस्ती जैसा रिश्ता बन जाता है। मुकुल आनंद की इस फिल्म में वह पठान जेलर से अपील करता है, कि उसे पैरोल पर कुछ दिनों के लिए काबुल जाने की इजाजत दे दे। क्योंकि, उसने किसी से शादी का वादा किया है और उसकी होने वाली दुल्हन उसके इंतजार में है। जेलर को पठान की ईमानदारी पर शक भी नहीं होता।
वह उसके वापस लौटने के वादे पर ऐतबार करता है और उसे जाने देता है। पठान भी शादी करके अपने लौटने का वादा निभाता है और शादी के अगले दिन लौट आता है। लेकिन, उसके जाने और वापस आने के बीच पूरी फिल्म बन जाती है।
चंद्रधर शर्मा गुलेरी की चर्चित कहानी ’उसने कहा था’ की बुनियाद भी कसमें-वादे करने और उसे पूरा करने पर ही टिकी है। लहना सिंह नाम के सैनिक को बचपन में अपने गांव की एक लड़की से लगाव हो जाता है।
उनकी बातचीत हमेशा इस वाक्य से शुरू होता है ’तेरी कुड़माई हो गई!’ समय बीतने के बाद लड़की का विवाह हो जाता है, और उसका बेटा सेना में भर्ती होता है। इसी दौरान उस लड़की से लहना सिंह की फिर मुलाकात होती है।
वह उससे वादा लेती है, कि संकट के समय वह उसके सैनिक पुत्र की मदद करेगा। कालांतर में युद्ध के समय लहना सिंह अपने वादे के अनुसार अपने बचपन की दोस्त के बेटे को बचाते हुए अपनी जान दे देता है। मरने के पहले वह यह जरूर कहता है कि यह साहस का काम उसने इसलिए किया कि बचपन में उसने अपनी पड़ोसन से वादा किया था। इस कहानी पर विमल रॉय ने ’उसने कहा था’ नाम से ही फिल्म बनाई थी।
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फिल्मों में कोरे वादे नहीं किए जाते। इन वादों के साथ कोई ऐसी कसम भी खाई जाती है, जो उनके इरादों को डिगने नहीं देती। प्राण जाए पर वचन न जाए, कसम ,कसमे-वादे, कसम तेरी कसम, मॉं कसम बदला लूगा, आपकी कसम, चंबल की कसम, सनम तेरी कसम, कसम पैदा करने वाले की, राम कसम, हिन्दुस्तान की कसम, कसम खुदा की, मेरा वचन गीता की कसम, वादा, ये वादा रहा और ‘वचन’ जैसे शीर्षकों वाली कई फ़िल्में बनी। गानों में भी खूब कसमें खाई गई या वादे किए गए। कई ऐसे गाने भी रचे गए जो कसमों-वादों की मिसाल बन गए।
कसमें वादे निभाएंगे हम, ली मैने कसम ली, कसम खुदा की यकीन कर लो, राम कसम बुरा न मानूंगी, देख कसम से, सनम तेरी कसम, वादा तेरा वादा, जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा, वादा कर ले साजना, क्या हुआ तैरा वादा, वादे की शाम है वादा निभाना, ये वादा करो चांद के सामने, वादा करो नहीं छोड़ोगी तुम मेरा साथ, कसमें वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या, वादा न तोड़, वादा करो जानम, तुम अगर साथ देने का वादा करो और वादा रहा सनम जैसे गीतों ने हमेशा ही वादे की महिमा का गुणगान किया है।
कसमों वादों पर चाहे जितने गाने बने हों, पर 1967 में आई मनोज कुमार की फिल्म ’उपकार’ के गीत ’कसमें वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या’ ने जो लोकप्रियता पाई थी, वो कभी किसी गीत को नहीं मिली। मन्ना डे का गाया यह गीत ही इस फिल्म के कथानक का निष्कर्ष था।
इसके बोल इंदीवर ने लिखे, जबकि कल्याणजी-आनंदजी ने इसका संगीत बनाया था। इसलिए कि इसमें जीवन की यथार्थता थी और जीवन के सच को पूरी तन्मयता से व्यक्त किया था। इस गीत के बोल नश्वर जीवन का यथार्थ बताते हैं।
स्वार्थ, पैसा, शोहरत, एकांत जीवन, निस्वार्थ भाव, अहं सभी पहलुओं को इस गीत में समाहित किया गया है। ’उपकार’ की सफलता में इस गीत का बड़ा योगदान था।
आज की फिल्मों में भी वादों और कसमों को निभाने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। नायक-नायिका आज भी दूसरे की बाँहों में बाहें डाले कसमे-वादे के गीत गाते दिखाई दे जाते है। क्योंकि, यह तीन शब्दों की कसमें और दो अक्षरों के वादें ही होते हैं, जो फिल्म को बीस रील तक खींचकर ले जाते हैं और कसमों की दुहाई दे देकर दर्शकों को हंसाते रुलाते रहते हैं।