पात्रता, शासन की नियत और मुकदमेबाजी से बचने की वो पहल!

कुछ दिनों पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश श्री ठाकुर ने यह टिप्पणी की थी, कि सरकार देश में सबसे बड़ी मुक़दमेबाज़ है यानी अदालतों में लम्बित अधिसंख्यक मुक़दमे या तो सरकार के विरुद्ध हैं या सरकार की ओर से हैं।

इसमें शासन का अपना पक्ष हो सकता है, कि शासकीय कार्य संचालन में उसे अपने नियमों के परिपालन में कई बार न्यायिक समीक्षा के दौर से भी गुजरना होता है, लेकिन अपने प्रशासनिक सेवाकाल के अनुभव में मैंने भी यह महसूस किया है कि एक हद तक यह बात सच भी है।

बात पुरानी है, उन दिनों मैं राजगढ़ ज़िले में कलेक्टर हुआ करता था। एक दिन जनसुनवाई के लिए निश्चित किए गए दिन मंगलवार को सुनवाई पूरी होने के बाद जब मैं चेम्बर में वापस आकर बैठा था तो एक नवयुवक मिलने आया।

मैंने पहले तो उससे कहा कि इतनी देर से सबको सुन रहा था, तब आप कहाँ थे? पर जब उसने यह बताया कि हाईकोर्ट के किसी आदेश के संदर्भ में उसे चर्चा करनी है, तो मैंने उसे पास बुला कर उसकी बात सुनी।

न्यायालय के आदेश का मामला था और विषय अनुसूचित जनजाति विभाग से सम्बंधित था तो मैंने विभागीय अधिकारी को बुलाने को कहा और युवक से भोजनावकाश के बाद मिलने को कहा।

दोपहर बाद जब मैं वापस आया, तो विभागीय अधिकारी टीप सहित उपस्थित थे, और उनका कहना था कि इस युवक का प्रकरण तो न्यायालय में चल रहा है, और यद्यपि सिंगल बेंच से इसके पक्ष में आदेश हुआ है, पर हमने शासन को अपील करने का प्रस्ताव भेज दिया है।

अब तो शासन ही फ़ैसला कर सकता है, अपने हाथ में कुछ नहीं है। मैंने नवयुवक को प्रश्न भरी निगाहों से देखा तो वो बोला कि पिछले बारह सालों से वो इसी मुक़दमे बाज़ी के कारण परेशान है, कब तक और घूमना पड़ेगा? मैंने पूरी फ़ाइल का अध्ययन किया।

दरअसल नवयुवक के पिता विभाग में लिपिक के पद पर पदस्थ थे और सेवाकाल के दौरान ही उनकी मृत्यु हो जाने से युवक ने अनुकम्पा नियुक्ति का आवेदन दिया था, सारी पात्रता में पूरा होने के बाद विभाग ने पाया कि ज़िले में उसकी योग्यता का चतुर्थ अथवा तृतीय श्रेणी का पद रिक्त नहीं था अतः तत्कालीन अधिकारियों ने उसे अकस्मिकता निधि के अंतर्गत होस्टल में कच्ची नौकरी वाले चौकीदार के पद पर नियुक्ति दे दी।

युवक पढ़ा लिखा था, वो उपस्थित तो हुआ पर जब उसने देखा कि चौकीदार की नौकरी तो अकस्मिकता निधि वाली है और उसे पात्रता स्थायी प्रकृति की नौकरी की है तो वो वापस चला गया, और उसने एक आवेदन के ज़रिये ये अनुरोध किया कि उसे पात्रता अनुसार नौकरी दी जावे।

विभागीय अधिकारियों ने कलेक्टर को टीप प्रस्तुत की कि वो ऑफ़र की गयी नौकरी अस्वीकार कर चुका है इसलिये अब उसे दुबारा नौकरी नहीं दी जा सकती।

कलेक्टर ने इस आशय का आदेश निकाल दिया और इसी आदेश के विरुद्ध वह युवक उच्च न्यायालय गया था, जहाँ न्यायालय ने उसके पक्ष में आदेश दिया था, और विभागीय अधिकारी पुनः समक्ष खड़े थे कि अब तो शासन ही कुछ कर सकता है।

मैंने विभाग के तत्कालीन कमिश्नर को दूरभाष पर पूरी स्थिति बताई और कहा कि युवक को पूरी पात्रता आती है कि उसे शासकीय नौकरी दी जाये अतः मुक़दमे बाज़ी के बजाय कोर्ट का आदेश मानना ही उपयुक्त है।

कमिश्नर साहब मेरी बात से सहमत हुए, और फिर मैंने विभागीय अधिकारी से पूछा कि वो बताए कि क्या प्रार्थी के वांछित सँवर्ग का पद रिक्त है?

संयोग से चतुर्थ श्रेणी का एक पद रिक्त था, मैंने तत्काल उस युवक को नियुक्ति आदेश जारी किया और शासन को उसकी प्रति के साथ वस्तु स्थित का प्रतिवेदन भेज दिया कि इस मामले में अब अपील करने की आवश्यकता नहीं है।