मोदी (Modi) की शक्ति प्रभावित कर रही अंधभक्ति!

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मोदी (Modi) की शक्ति प्रभावित कर रही अंधभक्ति!

इस बात में शक नहीं कि मौजूदा भारतीय राजनीति के पुराण में नरेंद्र मोदी (Modi) सबसे ज्यादा पूजे जाने वाले राजनीतिक देवता हैं।

उनकी राजनीतिक उपलब्धियों और कूटनीति ने उन्हें देश ही नहीं विदेश का सर्वमान्य नेता बना दिया। इसके बावजूद मोदी ने कभी अपना देवत्व स्थापित करने की कोशिश नहीं की।

अपनी पूजा करवाने के बजाए मोदी (Modi) को अक्सर कभी छोटी बच्चियों तो कभी दरिद्र महिलाओं, कभी सफाईकर्मियों के पैर धोते देखा जाता रहा है।

लेकिन, उनके अंधभक्त उन्हें बेवजह देवता बनाने पर तुले हैं, जो भविष्य में नुकसानदेह हो सकता है।

हाल में सोशल मीडिया पर एक संदेश चल रहा है! बिग ब्रेकिंग ताजमहल के 22 कमरों को खोला गया …! अंदर लिखा था ….2024 में आएगा तो मोदी ही!

इस संदेश को जिसने भी पढा, ज्यादातर लोगों ने मोदी भक्तों के बजाए मोदी (Modi) को ज्यादा कोसा! कारण स्पष्ट है।

इस तरह के संदेश मोदी भक्त भले ही अपनी पीठ ठोक लें या मोदी (Modi) भक्तों की कतार में अपना क्रम सबसे आगे मान लें!

लेकिन, हकीकत यह है कि इस तरह के संदेश देख और पढकर ज्यादातर लोगों का मुंह कसैला हुआ है। पता नहीं यह सब बातें प्रधानमंत्री तक पहुंच पाती है या नहीं।

पर यह तय है कि यदि उन्हें पता चले कि उनके भक्त उनकी लुटिया डुबोने में कोई कसर बाकी नहीं रख रहे, तो शायद उन्हें भी यह फरमान जारी करना पड़े कि उन्हें इस तरह की चाटुकारिता लिप्त भक्ति कदापि पसंद नहीं है।

जहां तक राजनीतिक भक्ति का सवाल है, यह केवल भाजपा तक ही सीमित नहीं है। कांग्रेस में भी ऐसे भक्तों की कमी नहीं, जो पद में ओहदे में और उम्र में गांधी परिवार के वरिष्ठ सदस्यों से ज्यादा वरिष्ठ है।

फिर भी वह अपने आका की भाटगिरी और चरण वंदना में सदैव तत्पर बने रहते हैं। अंधभक्ति का यह सिलसिला कोई नया नहीं है। यह तब भी जारी था, जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी।

उन दिनों पश्चिम बंगाल के कद्दावर कांग्रेसी और मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे इंदिरा गांधी की चप्पल उठाने तक से गुरेज नहीं करते थे।

सिद्धार्थ शंकर रे को पीछे छोड़ते हुए असम में जन्मे एक कांग्रेसी नेता देवकांत बरूआ ने अपने देवतुल्य नाम को लजाते हुए 1974 में एक बयान जारी किया था ‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा।’ यह बात अलग है कि वे अपनी इस भारतमाता से अलग होकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (अर्स) में शामिल हो गए थे।

कांग्रेस में इस तरह की भाटगिरी अक्सर हर काल में देखने में आई है। देश के सर्वोच्च पद पर आसीन महामहिम प्रतिभा पाटिल और मनमोहन सिंह की दर्जनों ऐसी तस्वीरें वायरल हुई, जिनमें वह सोनिया गांधी के सामने नतमस्तक होते दिखाई दे रहे हैं।

आज भी ऐसे दर्जनों कांग्रेसी भक्त हैं, जिनके लिए सोनिया, राहुल और प्रियंका किसी भी मायने में ब्रह्मा, विष्णु और महेश से कम नहीं हैं।

वे अपनी उम्र और पद का लिहाज किए बिना गांधी परिवार की अंधभक्ति में लीन हैं।

बात कांग्रेस ही नहीं, बल्कि दूसरी छोटी-मोटी पार्टियों में भी भक्त परम्परा कायम हैं। एक जमाना था जब बहुजन पार्टी की सुप्रीमो मायावती उनकी पार्टी के सदस्यों के लिए किसी देवी से कम नहीं थी।

लालू यादव के भक्तों की भी कमी नहीं है, जो अपने भगवान के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। यदुवंशी मुलायम सिंह के भक्त भी अपने नेताजी के लिए सख्त से सख्त कदम उठाने से बाज नहीं आते।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भी अंधभक्तों की कमी नहीं, जो उनकी पूजा-अर्चना करने तक से बज नहीं आते। आप पार्टी में भी भक्तजनों की कमी नहीं है।

दक्षिण भारत के भक्त तो सबसे अव्वल है। उन्होंने तो अपने नेताओं को सचमुच में ही भगवान बनाकर उनके मंदिर तक बना दिए हैं।

कुछ बरस पहले तक भाजपा को केडर बेस्ड पार्टी माना जाता था जिसमें नेता से ज्यादा पार्टी कैडर को महत्व दिया जाता था। कम्युनिस्टों में यह परम्परा पहले से जारी है, वहां नेता से ज्यादा पार्टी की भक्ति को महत्व दिया जाता है।

भाजपा में अटल बिहारी और आडवाणी के जमाने में भक्ति भाव की यह लहर जरा भी पल्लवित नहीं हुई। इसका एक कारण यह भी माना जा सकता है कि उन दिनों सोशल मीडिया विकसित नहीं हुआ था।

सारी भक्ति प्रदर्शित करने का एकमात्र माध्यम अखबार था और उन दिनों के तमाम अखबार कांग्रेस समर्थित थे। लिहाजा सारे पृष्ठ कांग्रेस भक्ति से ही पोषित हुआ करते थे।

अख़बारों पर कांग्रेस की पकड़ का एक कारण यह भी था कि प्रधानमंत्री बनने से पहले इंदिरा गांधी सूचना एवं प्रसारण मंत्री के रूप में न केवल अख़बारों से अच्छा तालमेल बिठा चुकी थी, बल्कि उन्होंने कांग्रेस पार्टी के लिए नेशनल हेराल्ड तक को खरीद लिया था।

महाराष्ट्र में राजनीतिक भक्ति की यह धारा शिवसेना प्रमुख बाळा साहेब ठाकरे ने बहाई।

उनकी अंगुली की एक हरकत पर शिवसेना सैनिक मरने-मारने तक को तैयार रहते थे। राज ठाकरे ने बहुत हद तक इस परम्परा को आगे बढ़ाया और उद्वव ठाकरे भक्ति की इस परंपरा के सबसे कमजोर खिलाड़ी नजर आ रहे हैं।

उनके अंधभक्तों में एक शिवसेना नेता सबसे अगाडी है। संजय राउत भले ही उद्वव की अंधभक्ति कर सनसनीखेज बयानबाजी करें।

लेकिन, उन्हें सुनने वाले ज्यादातर लोगों का मानना है कि यदि कल को शिवसेना का पटिया उलाल होता है तो इसे डुबोने में संजय राउत का ही सबसे बड़ा योगदान होगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कामकाज का तरीका देखते हुए भी उनके भक्तों ने कोई सबक नहीं लिया और वह सोशल मीडिया पर कांग्रेसी भक्तों से टक्कर लेते हुए उनसे आगे निकलने के प्रयास में मोदी को लेकर ऐसी ऐसी टिप्पणियां करने में जुटे हुए हैं जिससे मोदी की ग्राह्यता का ग्राफ ऊपर उठने के बजाए नीचे गिरता दिखाई दे रहा है।

यह बात अलग है कि मोदी (Modi) भक्तों ने गांधारी की तरह अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली हैं। उन्हें सावन के अंधों की तरह हर तरफ हरा ही हरा दिखाई दे रहा है।

वास्तविकता यह है कि आम मतदाता जो किसी पार्टी विशेष से बंधा न होकर केवल गुण दोषों के आधार पर ही अपने मताधिकार का निर्णय लेता है।

वह अब तक भले ही मोदी के राजनीतिक चरित्र को देखते हुए उनके पक्ष में मतदान कर रहा हो! लेकिन, मोदी के अंधभक्तों की इस तरह की अंधभक्ति से लकदक बयानों और अतिरेक पूर्ण हरकतों से उन्हें भी अब उबकाई सी आने लगी है।

जाहिर है, इससे मोदी (Modi) की राजनीतिक शक्ति के क्षीण होने के खतरे से इंकार नहीं किया जा सकता। देखा जाए तो इस तरह की भक्ति धीरे धीरे ही सही दूध में नीबू की तरह असर दिखाने लगी है।

एन वक्त पर कही भाजपा के पतीले का दूध फट जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।