भूपेंद्र-भगवान भरोसेमंद, पवैया-शुक्ल को जगह….
सभी अटकलों पर विराम लगाते हुए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने नगरीय प्रशासन मंत्री भूपेंद्र सिंह को भाजपा के कोर ग्रुप और प्रदेश चुनाव समिति में जगह दिला दी। साफ है कि भूपेंद्र अब भी शिवराज के भरोसेमंद बने हुए हैं। इसी प्रकार प्रदेश भाजपा के महामंत्री भगवानदास सबनानी को चुनाव प्रबंध समिति का संयोजक बनाकर यह जताया गया है कि संगठन को उन पर भरोसा है। भूपेंद्र और सबनानी समय-समय पर खुद को साबित भी करते आ रहे हैं।
भाजपा नेतृत्व ने जयभान सिंह पवैया को पार्टी के कोर ग्रुप में शामिल कर यह संकेत दिया है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को पार्टी में लेने के बावजूद पार्टी के अपने दिग्गज उपेक्षित नहीं रहेंगे। वैसे भी चंबल अंचल पार्टी के लिए चुनौती बना हुआ है। कांग्रेस यहां अपनी पूरी ताकत झोंक रही है। सिंधिया के कारण उसके अपने नेता नाराज न हों, इसे ध्यान में रखकर पवैया को जगह दी गई है। विंध्य अंचल में ताकत रहे पूर्व मंत्री राजेंद्र शुक्ला पिछले कुछ समय से हाशिए पर चल रहे थे, लेकिन वे एकमात्र विधायक हैं जिन्हें कोर ग्रुप में जगह मिली है। इसे उनकी फिर सक्रिय राजनीति में वापसी के तौर पर देखा जा रहा है। फिलहाल विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम इस अंचल के सबसे ताकतवर नेता हैं।
तन्खा पर मुहर की वजह सिब्बल तो नही!….
कांग्रेस आलाकमान ने मध्यप्रदेश से राज्यसभा के लिए प्रसिद्ध अधिवक्ता विवेक तन्खा के नाम पर एक बार फिर मुहर लगा दी है। निर्णय कई मायने में चौकाने वाला है। तन्खा कांग्रेस नेतृत्व से असंतुष्ट जी- 23 ग्रुप के सक्रिय सदस्य हैं और इस ग्रुप की ही भाषा बोलते रहे हैं। लंबे समय से तन्खा के स्थान पर किसी अन्य नेता के राज्यसभा भेजने पर विचार चल रहा था। लेकिन तन्खा कमलनाथ के साथ दिग्विजय सिंह के भी नजदीक रहे हैं।
दोनों उन्हें ही एक और मौका दिए जाने के पक्ष में थे। एक डर जी-23 के एक अन्य सदस्य व प्रसिद्ध अधिवक्ता कपिल सिब्बल के कारण भी पैदा हुआ। सिब्बल ऐन वक्त पर कांग्रेस छोड़ सपा की मदद से राज्यसभा के प्रत्याशी बन गए। तन्खा भी ऐसा न कर दें, इस डर से भी उन्हें फिर मौका दिए जाने की चर्चा है। प्रदेश में इस समय पिछड़े वर्ग की राजनीति चरम पर चल रही है। उम्मीद थी कि अरुण यादव अथवा इस वर्ग के किसी अन्य नेता का चयन राज्यसभा के लिए किया जाएगा। लगता है कि अरुण अब तक कमलनाथ का पूरा भरोसा हासिल नहीं कर सके। मप्र से जुड़े सारे फैसले कमलनाथ की मर्जी से ही हो रहे हैं। अरुण के खंडवा से टिकट कटने की वजह भी वे ही थे। इस बार भी अरुण बाजी हार गए।
भाजपा में प्रहलाद को तवज्जो न मिलने के मायने….
केंद्र में मंत्री होने के बावजूद प्रहलाद पटेल को दूसरी बार झटका लगा है। पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल के दौरान उन्हें राज्य मंत्री स्वतंत्र प्रभार से सिर्फ राज्यमंत्री बना दिया गया था। अब प्रदेश भाजपा में भी उन्हें तवज्जो नहीं मिली। चुनावों को ध्यान में रखकर भाजपा ने चार समितियां बनाई हैं। प्रहलाद को एक भी समिति में जगह नहीं मिली। उन्हें भाजपा के प्रदेश कोर ग्रुप से भी बाहर रखा गया है। कोर ग्रुप में प्रमुख नेताओं के साथ अधिकांश केंद्रीय मंत्रियों को जगह मिली है। खास बात यह है कि इस समय प्रहलाद पटेल खासे सक्रिय हैं।
अपने विरोधियों के साथ भी संबंध सुधार अभियान चलाए हुए हैं। हालांकि थावर चंद गहलोत, प्रभात झा, गोपाल भार्गव, जयंत मलैया, विक्रम वर्मा, कृष्ण मुरारी मोघे और सुहास भगत भी इस बार कोर ग्रुप से बाहर हैं। इसके पर्याप्त कारण भी हैं। गहलोत राज्यपाल बन चुके हैं। सुहास भगत प्रदेश संगठन महामंत्री पद से हटाए गए हैं। झा, मलैया, मोघे और वर्मा आदि की सक्रियता पहले जैसी नहीं रही। प्रहलाद का दूर रखना समझ से परे हैं। वह भी तब जब प्रदेश में पिछड़े वर्ग के लोधी मतदाताओं की तादाद अच्छी खासी है और उमा भारती को पहले से हाशिए पर कर रखा गया है। ऐसे में प्रहलाद को तवज्जो न देना किसी के गले नहीं उतर रहा।
कई मायने में दिग्विजय जैसा दूसरा कोई नहीं….
राजनीति के क्षितिज में दिग्विजय सिंह जैसी खूबियों वाले नेता बिरले ही मिलते हैं। अपनी सक्रियता, तीक्ष्ण बुद्धि और वाकपटुता के कारण वे हमेशा चर्चा के केंद्र में रहते हैं। आरएसएस और भाजपा के कटु आलोचक होने के बावजूद वे कांग्रेस में जितने लोकप्रिय हैं उतने ही प्रतिद्वंद्वी भाजपा के बीच। भाजपा नेतृत्व उन्हें पार्टी के लिए शुभ मानता है। नेताओं का मानना है कि जब भी दिग्विजय बोलते अथवा सक्रिय होते हैं, भाजपा का वोट बैंक बढ़ जाता है। खुद दिग्विजय कह चुके हैं कि वे भाषण देते हैं तो कांग्रेस के वोट कटते हैं। इसलिए वे सभाओं में कम बोलते हैं।
इस नजर से भाजपा उन्हें अपना पसंदीदा नेता मानती है। कांग्रेस में भी दिग्विजय के विरोधी कम नहीं है। एक वर्ग की नजर में दिग्विजय के कारण पार्टी को नुकसान होता है। बावजूद इसके वे कांग्रेस आलाकमान की पसंद बने हुए हैं। नतीजा, पहले लोकसभा में हार के बावजूद उन्हें राज्यसभा भेजा गया और अब 2023 और 2024 के चुनावों के मद्देनजर उन्हें प्रमुख कमेटियों में जगह दी गई है। पहले उन्हें कांग्रेस की राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन की रणनीति बनाने की कमेटी में रखा गया था। अब फिर दो महत्वपूर्ण कमेटियों में जगह दे दी गई। इसीलिए कहा जाता है कि राजनीति में दिग्विजय जैसा नेता दूसरा कोई नहीं।
यह राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा या प्रतिशोध!….
समय के साथ राजनीति भी लगातार बदल रही है। पहले नेताओं के बीच दलीय और मुद्दों के आधार पर तगड़ी प्रतिस्पर्द्धा होती थी, लेकिन राजनीति से अलग संबंध मधुर होते थे। अब प्रतिस्पर्द्धा की राजनीति प्रतिशोध में बदल रही है। विडंबना यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर चल रही ऐसी राजनीति का असर मप्र में भी देखा जाने लगा है। प्रमुख प्रतिद्वंद्वी भाजपा और कांग्रेस ने अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। दोनों दलों के नेताओं की रणनीति देखने से पता चलता है कि उन्हें सरकार बनाने के लिए 116 सीटों के आंकड़े से ज्यादा कुछ नेताओं के क्षेत्रों पर ज्यादा दिलचस्पी है। कांग्रेस की तैयारी के संकेत हैं कि उसे प्रदेश में चाहे जितनी सीटें मिलें लेकिन चंबल-ग्वालियर अंचल की अधिकांश सीटें जीतनी चाहिए, खासकर केंद्रीय मंत्री सिंधिया के प्रभाव वाली। इसी प्रकार सिंधिया और भाजपा के कुछ नेताओं की नजर कमलनाथ एवं दिग्विजय सिंह के गढ़ों पर है। वे चाहते हैं कि भाजपा को दूसरे अंचलों में भले कम सीटें मिलें लेकिन कमलनाथ एवं दिग्विजय सिंह के गढ़ों में भाजपा का परचम दिखना चाहिए। साफ है, कटुता इतनी बढ़ गई कि दलीय प्रतिस्पर्द्धा ने आपसी प्रतिशोध का स्थान ले लिया है। यह राजनीति के लिए घातक है।
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