प्रदेश भाजपा की दो समर्पित हस्तियां कैलाश और गौर…अब यादें जिंदा हैं…

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दो जून की तारीख मध्यप्रदेश की राजनीति में दो खास राजनेताओं की याद दिलाती है। एक संघ और संगठन को समर्पित वह चेहरा जिसने प्रदेश में भाजपा की जड़ों को मजबूत करने में खुद को पूरी तरह से खपा दिया, तो दूसरा मैदानी राजनीति का जादूगर जिसने मजदूर से लेकर मुख्यमंत्री तक की दीर्घ यात्रा तय की और कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। करीब-करीब एक ही कालक्रम में अपने-अपने क्षेत्र के यह दो दिग्गज चेहरे जिन्होंने जीवन को हमेशा जीत के आइने से ही देखा और कठिन परिश्रम कर पसीना बहाने में कभी पीछे नहीं हटे।

इनकी युवावस्था का वह दौर इसलिए स्मृति में संजोने लायक है कि जब न अपने दफ्तर में झाड़ू लगाने में सारंग को शर्म आई और न तब कुर्सियां लगाने और दरी बिछाने में गौर को किसी तरह का संकोच था। तब भाजपा का पदाधिकारी होने का मतलब यह नहीं था कि जमीन पर पैर न थमें। तब भाजपा का पदाधिकारी होने का गर्व यह था कि चना खाकर भूख मिटाने की आदत और कोसों मील दूर मंजिल पर पहुंचने का साहस और जिंदादिली। तब जब यह भी पता नहीं था कि मंजिल पर पहुंचना नसीब में है भी या नहीं।

तब अगर विधायक बन भी गए तो फार्च्यूनर, मर्सिडीज या लग्जरी गाड़ियों से फर्राटा भरने का ख्वाब पूरा नहीं होता था, बल्कि विधायिकी भी मजदूरी का दूसरा रूप थी और बस की यात्रा में किराए में छूट और सीट मिल जाना भी सम्मानजनक था। संघ, जनसंघ और फिर भाजपा की लंबी यात्रा करते हुए जिन्होंने अपना जीवन एक संगठन और विचारधारा के लिए समर्पित किया, उन लाखों चेहरों में दो छवियां कैलाश नारायण सारंग और बाबूलाल गौर की थीं। अब यह दोनों ही राजनैतिक हस्तियां इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन समर्पण और संघर्ष का ही प्रतिफल है कि इनकी यादें अब भी जिंदा हैं। पार्टी के नेता उन्हें उनके कामों के जरिए और प्रेरणा के रूप में याद कर रहे हैं।

कैलाश नारायण सारंग का जन्म 2 जून 1934 को रायसेन जिले के डूमर गांव में हुआ था। वे 1990-1996 तक राज्यसभा सासंद रहे। सारंग ने प्रधानमंत्री मोदी पर ‘नरेन्द्र से नरेन्द्र’ शीर्षक से पुस्तक भी लिखी। मध्यप्रदेश में कैलाश जोशी, सुंदरलाल पटवा और कैलाश नारायण सारंग की तिकड़ी मशहूर थी। पतियों के बीच वैचारिक मतभेद भले ही रहे हों, लेकिन इनकी पत्नियों के बीच जो सामंजस्य था, उसकी मिसाल पेश की जाती थी। और जिंदा रहते मंच से इन तीनों नेताओं ने कई बार इस बात की पुष्टि खुद भी की है। कैलाश सारंग सदैव समाज के पीड़ित वर्ग के उत्थान के लिए समर्पित रहे, तो स्पष्टवादिता उनके स्वभाव में शामिल थी।

कैलाश नारायण सारंग की जयंती पर उनके पुत्र और प्रदेश सरकार के चिकित्सा शिक्षा मंत्री विश्वास सारंग ने ट्वीट कर लिखा- मेरे पिता, मेरे गुरु, मेरे भगवान हैं…। शायद हर पुत्र के पिता के प्रति यह भाव रहते हों, लेकिन विश्वास सारंग ने यह साबित किया है कि वास्तव में वह कलियुग के श्रवण कुमार हैं। इसका साक्षी मैं खुद भी रहा हूं। मंत्री रहते या राजनैतिक व्यस्तताओं के बावजूद पितृभक्ति का जो जज्बा और पिता की सेवा के प्रति समर्पण का जो भाव विश्वास सारंग ने जिया है, उसकी बराबरी कर पाना बहुत आसान नहीं है।

वृद्धावस्था के चलते पिता जब-जब बीमार हुए, तब-तब विश्वास की आंखें डबडबा गईं और वह फूट-फूटकर रोए भी। हालांकि ईश्वर भी बार-बार विश्वास की प्रार्थना पर प्रसन्न हुए, लेकिन 14 नवंबर 2020 को राष्ट्र, समाज, संगठन और गरीबों की सेवा को समर्पित रहा यह व्यक्तित्व सदा-सदा के लिए ईश्वर में विलीन हो गया। पर विश्वास सारंग अपने पिता की राजनैतिक विरासत को समर्पण और सेवाभाव के साथ आगे ले जाते हुए पिता के पदचिन्हों पर आगे बढ़ रहे हैं।

बाबूलाल गौर का जन्म 2 जून, 1930 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिला के नौगीर गांव में हुआ था। वे बचपन से ही भोपाल में रहे। बाबूलाल गौर ने अपनी शैक्षणिक योग्यताओं में बी.ए. और एल.एल.बी. की डिग्रियाँ प्राप्त कीं। गौर पहली बार 1974 में भोपाल दक्षिण विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में जनता समर्थित उम्मीदवार के रूप में निर्दलीय विधायक चुने गये थे। यह उनके जीवन का टर्निंग प्वाइंट था। एक बार जो आगे बढ़े तो फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। मिल में नौकरी की, मजदूर नेता रहे, विधायक बने, मंत्री बने, नेता प्रतिपक्ष बने और मुख्यमंत्री भी बने। और फिर वह दिन भी देखा, जब उन्हें 75 पार के नाम पर मंत्री पद को त्यागना पड़ा।

राजनैतिक कयास लगाए गए कि गौर पार्टी छोड़ देंगे, लेकिन गौर ने शायद ही कभी ऐसा सोचा हो। पार्टी के तत्कालीन दिग्गज अटल हों या आडवाणी या फिर मोदी-शाह का समय आ गया हो, गौर की कार्यशैली और मन की बात साफ-साफ कहने की आदत नहीं बदली। मंत्री-मुख्यमंत्री या नेता प्रतिपक्ष के तौर पर भले ही लग्जरी सवारी की पात्रता रही हो, लेकिन गौर साहब की एंबेसडर गाड़ी की सवारी ही प्राथमिकता रही। जीतने वाले इस उम्मीदवार को भी कई बार टिकट पाने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ी, लेकिन हार नहीं मानी और सर्वाधिक समय तक विधायक रहने का रिकार्ड गौर ने ही बनाया। ‘भारतीय मज़दूर संघ’ के संस्थापक सदस्य रहे।

सन् 1946 से ही ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ से जुड़ गए थे। उन्होंने दिल्ली तथा पंजाब आदि राज्यों में आयोजित सत्याग्रहों में भी भाग लिया था। गौर ने आपात काल के दौरान 19 माह की जेल भी काटी। 1974 में मध्य प्रदेश शासन द्वारा बाबूलाल गौर को ‘गोवा मुक्ति आन्दोलन’ में शामिल होने के कारण ‘स्वतंत्रता संग्राम सेनानी’ का सम्मान भी प्रदान किया गया था। यानि कि पूरा जीवन देश और प्रदेश को समर्पित। गौर साहब से सीधी बात जब भी हुई और उनके बारे में राजनैतिक अटकलों पर चर्चा हुई तो अपने प्रति सारी अफवाहों को नकारते हुए गौर ने गीता ज्ञान की बात की और बार-बार दोहराया कि जनसंघ-भाजपा ने उन्हें मजदूर से मुख्यमंत्री तक बनाया। उन्हें सब कुछ दिया, इसके लिए वह पार्टी के प्रति कृतज्ञ हैं। 2018 में उन्होंने विधानसभा चुनाव न लड़कर बहू कृष्णा गौर को गोविंदपुरा सीट से टिकट दिलवाया और जीत के सारथी भी बने। 21 अगस्त 2019 को उन्होंने नश्वर दुनिया को अलविदा कहा। और अब गोविंदपुरा विधायक के रूप में कृष्णा गौर अब बाबूलाल गौर की राजनैतिक विरासत को आगे बढ़ा रही हैं।

यह दोनों राजनैतिक हस्तियां मध्यप्रदेश में संघ विचारधारा के प्रचार-प्रसार की कड़ी बनीं, तो जनसंघ और भाजपा को पोषित-पल्लवित करने में अपना सर्वस्व समर्पण कर मिसाल भी इन्होंने पेश की। यही इनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है, जिस वजह से इनकी यादें अब भी जिंदा हैं। एक राजनीतिक दल के प्रति निष्ठा और समर्पण के साथ भी दूसरे दल के नेताओं के प्रति सह्रदयता का भाव और व्यक्तिगत-पारिवारिक संबंधों का निर्वाह करने में भी यह दोनों नेता खरे साबित हुए हैं।