Silver Screen: देसी छवि के दर्द से कराहता नारी का आदर्श रूप!
भारतीय संस्कृति और सिनेमा का आपसी गठजोड़ हमेशा ही काफी गहरा रहा है। सिनेमा ने संस्कृति से जुड़ी बहुत सी कहानियां गढ़ी! मनोरंजन के लिए संस्कृति के खजाने से चुनिंदा कथानक लिखे गए, जिन्हें सराहना भी मिली। लेकिन, फिल्मकारों ने संस्कृति के आदर्श फ़िल्मी रूप से नारी की छवि को अलहदा रखा। सिनेमा के प्रारंभिक काल से ही नारी छवि को लेकर अपनी तरफ से ख़ास कुछ नहीं किया। बल्कि, उसी देसी छवि को बरक़रार बनाए रखने की कोशिश की, जो घरों या समाज में उसकी बनी थी। इसका कारण यह भी कहा जा सकता है कि तब का समाज आज से कुछ ज्यादा ही परम्परावादी था। इसका एक प्रमाण यह भी है कि शुरू में महिलाओं का अभिनय करना भी सामाजिक रूप से स्वीकार्य नहीं था। ऐसी स्थिति में पुरुष कलाकारों ने ही नारी रूप धरकर ये किरदार निभाए।
धीरे-धीरे जब समाज ने सिनेमा के प्रभाव को महसूस किया तो महिला कलाकारों को अभिनय करने की इजाजत दी गई। इन्ही कोशिशों में सिनेमा ने नारी की ममता वाली छवि के साथ भावनात्मक बहन, प्यारी पत्नी और जीवन को निछावर कर देने वाली नारी के चरित्र को चित्रित किया। याद कीजिए ‘सरस्वतीचंद्र’ में नूतन को कुछ इसी रूप में चित्रित किया गया था। सिनेमा के कथानकों में यह देसी नारी रुष्ट होती थी, टूटती थी, बिखरती है और कभी संघर्ष के लिए तनकर खड़ी भी हो जाती है। हिन्दी सिनेमा की संस्कृति और उसमे रचने-बसने वाली नारी का शुरुआती दौर कुछ इसी तरह गुजरा। समाज पर फिल्म का प्रभाव सबसे ज्यादा पड़ता है, इसे तो बाद में स्वीकारा गया। क्योंकि, यह कथानक पर आधारित मनोरंजन है, जिसमें देखने वाले को बांधे रखने की ताकत होती है।
सिनेमा में नारी के योगदान की बात की जाए, तो यह काम 1930 के बाद ही शुरू हुआ। समाज में व्याप्त नारी की विडंबनाओं को लेकर कई फिल्में बनाई गई। जिनमें दुनिया न माने (1937), अछूत कन्या (1936), आदमी (1939), देवदास (1935), इंदिरा एमए (1934), बाल योगिनी (1936) फ़िल्में बनी! ये वे फ़िल्में थीं, जिनमें नारी जीवन से संबंधित पीड़ाओं को उजागर किया गया। इसमें बाल विवाह, बेमेल विवाह, पर्दा प्रथा और अशिक्षा प्रमुख रहे। पर, देखा जाए तो हिंदी सिनेमा में हर तरह से सबसे ज्यादा बदलाव आजादी के बाद ही आया। इसके साथ ही फिल्मों में व्यावसायिकता भी बढ़ी। ऐसे में जिन सामाजिक विषयों के कथानकों पर फ़िल्में बनना थी, उन्हें भुला दिया गया। क्योंकि, जब व्यावसायिकता बढ़ी तो फिल्मकारों का मकसद मुनाफे पर केंद्रित होने लगा था। इसके साथ ही शुरू हुआ नारी जीवन के सिनेमाई शोषण का नया दौर। हर पक्ष का हर तरह से शोषण किया गया। नारी को ऐसी वस्तु में बदल दिया, जिसकी विशेषताओं और कमजोरियों दोनों का व्यावसायिक इस्तेमाल किया जा सके। अगर कभी नारी जीवन की पीड़ाओं को फिल्मों का विषय बनाया गया, तो उसे बनावटी रूप में प्रस्तुत किया। इस तरह कि उससे नारी जीवन की वास्तविक जटिलता का एहसास तक नहीं होता था। इसके विपरीत फिल्म का अंत समस्या के ऐसे समाधान के साथ होता था, जिसका न तो तर्क से कोई संबंध होता था, न वास्तविकता से।
अगर किसी फिल्म में नारी पीड़ा उभरकर सामने भी आती, तो उसमें दाम्पत्य जीवन में देह सुचिता, नारी पतिव्रता, आदर्श नारी के गुण ज्यादा दिखाए जाते! जहां वह अपने ससुराल वालों के अत्याचार को पूरे धैर्य के साथ सहती और पति को परमेश्वर समझकर पूजती। इस समय में फिल्मों में पति-पत्नी के संबंधों को पहले तो आदर्श रूप में दर्शाया गया, फिर इसमें शक की वजह से दरार पैदा की जाती रही। हालात ऐसे बनाए जाते, कि घर तोड़ने का ठीकरा नारी पर ही मढ़ दिया जाता। परन्तु बाद में स्थितियां निर्मित कर किसी एक नारी को गलत ठहराकर, उससे माफी मंगवाकर, संबंधों को एक कर दिया जाता। अनुभव, गृह क्लेश, दूरियां, ये कैसा इंसाफ, श्रीमान-श्रीमती जैसी फिल्मों में नारी का नौकरी करना, उसका विदेशी संस्कृति को अपनाना आदि रवैये दिखाकर ऐसे ही हालात पैदा किए गए थे।
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व्यावसायिक सिनेमा ने अभी तक नारी की जो छवि पेश की है, यह उसका वही आदर्श रूप है, जो धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। यही पूंजीवादी समाज में नारी की वास्तविक स्थिति का प्रतिबिंब भी है। इसके अनुसार नारी जीवन की इससे अलग कोई सार्थकता नहीं है, कि वह अपने पति और बच्चों के लिए जिये, अपनी दैहिक पवित्रता की रक्षा करें और हर तरह से अपने पति के प्रति एकनिष्ठ रहे। कोई ऐसा कदम न उठाए, जिससे घर की इज्जत पर आंच आए। जो नारी इन जीवन मूल्यों को स्वीकार नहीं करती, उन्हें हिंदी फिल्मों में खलनायिका की तरह पेश किया जाता है। नारी के यही दो रूप हिंदी सिनेमा को स्वीकार्य रहे, जिसका समसामयिक नारी के यथार्थ से कोई संबंध नहीं है। फिल्मों में परवीन बाबी, डिम्पल कपाड़िया, स्मिता पाटिल और जीनत अमान ऐसी ही अभिनेत्रियां रही हैं, जिन्होंने नारी स्वतंत्रता को अपनी फिल्मों में उभारा। इनमें से कुछ की उनकी बोल्डनेस छवि नारी पीड़ाओं से परे रही। फिल्मों में नारी का चरित्र एकनिष्ठ, प्रेम और पवित्रता की देवी सुख-दुःख सहकर भी पति, पुत्र और परिवार को सुख देने वाली बनी रही। परन्तु वास्तविकता में नारी यथार्थता से बहुत दूर खड़ी दिखाई पड़ी।
अगर नारी समस्या और चरित्रों को लेकर फिल्म बनी भी है, तो वह इक्का-दुक्का ही रही। नारी के चरित्रों को दर्शाया भी गया, तो उनमें क्लब में जाना, शराब पीना, सिगरेट पीने को ज्यादा उभारा गया। सिनेमा में नारी दो रूपों में काफी चित्रित हुई। एक तो ‘सौन्दर्य साधन’ के रूप में, दूसरी ‘देवी’ के रूप में! इसके अलावा नारी की अपनी सामाजिक समस्या को लेकर बहुत कम फिल्मकारों ने फिल्में बनाई। हिंदी सिनेमा में नारी छठे दशक के बाद से ही निर्देशन, संगीत, लेखन के क्षेत्र में नजर आने लगी। इस प्रभाव के कारण आज महिलाओं की सिनेमा में भागीदारी बढ़ी और कई फिल्मों में उनका योगदान नजर आने लगा। फिल्मकारों में उनका नाम भी जुड़ गया। इनमें अपर्णा सेन, कल्पना लाज़मी, मीरा नायर, दीपा मेहता, तनुजा चन्द्रा, फराह खान, पूजा भट्ट, जोया अख्तर के नाम याद किए जा सकते हैं। इन्होंने नारी प्रधान समस्याओं को उठाया, उसकी बारीकियों तक पहुंची, पर इसके बावजूद वे आम नारी की वेदना को नहीं दिखा सकीं।
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50 के और 60 के दशक में विमल राय, गुरू दत्त, महबूब खान और राज कपूर जैसे फिल्म बनाने वालों ने नारी के कई रूप पत्नी, मां, प्रेमिका का सही चित्र प्रस्तुत किया। इन फिल्मों के विषय नारी की अंतर्द्वंद और विचारों पर केन्द्रित रहे। मदर इंडिया, प्यासा, कागज के फूल, प्रेम रोग और ‘मधुमति’ जैसी फिल्मों ने यह साबित किया कि किस तरह नारी अपने व्यक्तित्व को जीती है! वह किस तरह वह खुश रहती है। उसका आंतरिक हृदय क्या कहता है और वह किस तरह समाज और परिवार को देखते हुए कहां पहुंचना और रहना चाहती है।
केतन मेहता की ‘मिर्च मसाला’ में जहां एक नारी उभरकर समाज की नारियों में जागृति लाने का काम करती है। वहीं, मुजफ्फर अली की ‘उमराव जान’ की भूमिका में रेखा एक कोठे वाली डांसर के रूप में भी नारी संवेदनाओं की स्थितियों को उजागर करती है। दरअसल, सिनेमा का संबंध यथार्थ से होता है और यथार्थ से संबंध के कारण स्वाभाविक है कि नारी जीवन का चित्रण फिल्मों में हो। लगभग सौ साल से ज्यादा लंबे इतिहास में लगातार ऐसी फिल्में बनती रही, जिनमें नारी जीवन के यथार्थ को कलात्मक उत्कर्षता के साथ प्रस्तुत किया गया। हिंदी सिनेमा के 70, 80 और 90 के दशक में स्त्री पक्ष को लेकर जबरदस्त बदलाव आया। इस बदलाव ने परदे पर ही नारी चरित्रों को नहीं बदला! बल्कि, इसमें समाज में पल रही उस विचारधारा को भी तोड़ा कि नारी सिर्फ घर की चारदीवारी में रहकर घर का कामकाज और बच्चों को पालने के लिए होती है।
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70 और 80 के दशक के दौरान दो बीघा जमीन, बूट पालिश, जागृति, झनक-झनक पायल बाजे, सुजाता, गाइड, उपकार और ‘आनंद’ जैसी फिल्मों ने स्त्री की एक अलग छवि बनाई। इसके अलावा ऋषिकेश मुखर्जी की ‘अभिमान’ और ‘मिली’ जैसी फिल्मों ने सामाजिक अंतर्द्वंद और नारी जीवन की सच्चाई का चित्रण किया। इन फिल्मों ने नई सोच को उजागर किया, जहां नारी चरित्र को अपने करियर से भी प्यार दिखाया गया। 90 के दशक में जब भारतीय अर्थव्यवस्था का विश्व अर्थव्यवस्था से जोड़ा गया, भारत में बाजार के उदारीकरण और अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण की शुरुआत हुई। इसके बाद से हिंदी सिनेमा में विदेशी भागीदारी बढ़ी और भारतीय समाज में हॉलीवुड की फिल्मों का अच्छा प्रभाव देखकर उसी तरह की तकनीक और शैली का विकास हुआ। बड़े पैमाने पर भारतीय समाज की स्त्रियों पर प्रभाव हिंदी सिनेमा मे भी देखा गया। इसके बाद ही नारी चरित्र के उस देसीपन को भी तिलांजलि मिली, जो बरसों से फ़िल्मी परदे पर बना था। लम्बे संघर्ष के बाद आज फिल्मों में नारी का वही रूप दिखाई दे रहा है, जो समाज में है।