Silver Screen: रहस्य और रोमांच के धागों से बुने ये अनोखे किरदार!
फिल्में चाहे किसी भी देश या किसी भी भाषा की हो, कुछ विषय और किरदार ऐसे होते हैं, जो हर भाषा की फिल्मों से अछूते नहीं रहते! उन्हीं में से एक है जासूस और इस विषय पर गढ़े गए कथानक। हिंदी में भी दर्शकों के मूड को ध्यान रखकर कई जासूसी फिल्में बनाई गई। ऐसे कथानकों पर बनी फिल्मों में दर्शकों को बांधकर रखने की अद्भुत क्षमता होती है। क्योंकि, जासूसी के किरदारों के प्रति दर्शकों में हमेशा ही कौतूहल का भाव रहा है। तेज दिमाग, चपलता और जासूस की फुर्ती दर्शकों को हमेशा रोमांचित करती रही है। जबकि, बेहद शांत सा दिखाई देने वाला जासूस का असल चरित्र इसके विपरीत होता है। अपने आपको दुनिया की नज़रों से छुपाने के लिए वह धोखे की कला और झूठ बोलने में माहिर होता है।
हॉलीवुड की फिल्मों में जासूसी की फ़िल्में सबसे ज्यादा बनी और अभी भी बन रही है! ‘जेम्स बांड’ सबसे चर्चित सीरीज है, जिसने जासूसी को ज्यादा लोकप्रिय बनाया। कई बड़े हॉलीवुड अभिनेताओं ने इस सीरीज में अपनी अदाकारी दिखाई। इन फिल्मों की लोकप्रियता का आलम यह है कि हर चार फिल्म के बाद अभिनेता बदल दिया जाता है। इस सीरीज से प्रभावित होकर हिंदी में भी कई फ़िल्में बनी, पर सीरीज नहीं बन सकी। सलमान खान को लेकर ‘टाइगर’ सीरीज की दो फ़िल्में जरूर बनी और पसंद भी की गई! अब तीसरी फिल्म पर काम चल रहा है।
हिंदी में सबसे अच्छी जासूसी फिल्म कौनसी है, यदि इस सवाल का जवाब ढूंढा जाए तो शायद इसका कोई एक जवाब नहीं हो सकता! क्योंकि, हर समय काल में जासूसी पर फ़िल्में बनी और पसंद की गई। धर्मेंद्र, जितेंद्र, अमिताभ बच्चन, मिथुन चक्रवर्ती और सनी देओल से लगाकर सलमान खान तक ने ऐसे किरदार निभाए हैं। साउथ की इंडस्ट्री में भी इस विषय पर कई प्रयोग हुए। लेकिन, वहां जासूसी पर 2013 में बनी कमल हासन की फिल्म ‘विश्वरूपम’ को अभी तक की बेहतरीन जासूसी फिल्म माना जाता है। कमल हासन की फिल्म ‘विश्वरूपम’ में वैश्विक आतंकवाद दिखाया गया। तकनीकी तौर पर भी ये बेहद रोमांचक फिल्म थी। इसमें पत्नी को ही अपने पति पर जासूस होने का शक होने लगता है। यहीं से फिल्म की कहानी शुरू होती है। तमिल में बनी और हिंदी में डब की गई ‘विश्वरूपम’ को अब तक की सबसे पसंद की जाने वाली जासूसी फिल्मों में गिना जाता है।
1954 में ‘अंधा नाल’ फिल्म बनी, जो 1943 की एक घटना पर आधारित थी। ‘अंधा नाल’ तमिल शब्द है जिसका मतलब होता है ‘उसी दिन!’ इसमें एक शख्स को इसलिए गोली मार दी जाती है, जब वो शहर में बमबारी कर रहा होता है। पुलिस जांच में कई संदिग्धों को पकड़ा जाता है। इन सबका कत्लेआम का इरादा था। अकीरा कुरोसावा की कृति रैशोमोन को देखकर निर्देशक बालचंद्र ने उसी स्क्रिप्ट पर फिल्म बनाने की सोची और बिना किसी गाने के फिल्म बनाई। 1954 में ऐसी फिल्म बनाना आसान नहीं था। पारंपरिक फिल्मों के बीच इस फिल्म को पसंद किया गया था। ऐसी फिल्मों के बनने का सिलसिला आगे बढ़ाया ‘ज्वेल थीफ’ (1967) ने। देव आनंद की भूमिका वाली विजय आनंद की इस फिल्म में एक साधारण आदमी को हीरे-जवाहरातों के गिरोह का सरगना मान लिया जाता है। उसे ‘ज्वेल थीफ’ के नाम से जाना जाने लगता लगता है। जब सारे हालात उसके खिलाफ हो जाते हैं, तब वो सच्चाई जानने के अभियान पर निकलता है। अंडरकवर एजेंट के रूप में वो महंगी जेवरात की चोरी करने वाले गैंग का पर्दाफाश करना चाहता है। जब राज खुलता है तो सच्चाई कुछ और ही निकलती है।
1970 में आई विजय आनंद की सफल फिल्म ‘जॉनी मेरा नाम’ में देव आनंद ने अंडरकवर सीआईडी एजेंट की भूमिका निभाई थी, जो प्रेमनाथ की अवैध गतिविधियों पर नज़र रखता है। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बेहद सफल भी रही। सामाजिक फ़िल्में बनाने वाले ‘राजश्री’ ने भी 1977 में महेंद्र संधु को लेकर ‘एजेंट विनोद’ बनाई। ये फिल्म एक विख्यात साईंटिस्ट को अपहर्ताओं से छुड़ाने के कथानक पर बनी थी। 2012 में भी इसी नाम से सैफ अली खान को लेकर फिल्म बनाई गई। 1979 में यूरोप में फिल्माई गई फिल्म ‘द ग्रेट गैम्बलर’ में अमिताभ बच्चन ने भी अंडरकवर जासूस की भूमिका की थी, जो षड्यंत्रकारियों से उन कांफिडेंशियल डॉक्यूमेंट हासिल करने की कोशिश करता है, जो देश की सुरक्षा के लिए खतरा होते हैं।
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अमिताभ बच्चन की सबसे सफल फिल्मों में से एक ‘डॉन’ (1978) भी जासूसी पर ही बनी थी। इसे चंद्रा बारोट ने बनाया था। कथानक के मुताबिक, पुलिस एक अपराधी को पकड़ने के लिए एक नाटकीय किरदार को अपराधियों के गिरोह में भेजती है, जिससे वो पुलिस का खबरी बन सके। लेकिन, इस किरदार के मरने की सच्चाई सामने आते ही पुलिस उस अपराधी गिरोह को पकड़कर सलाखों के पीछे पहुंचा देती है। इस फिल्म के बाद अमिताभ बच्चन का स्टारडम बढ़ गया था। 1994 में बनाई गई ‘द्रोहकाल’ भी आतंकवाद पर केंद्रित फिल्म थी। दो पुलिस वाले आतंकवाद को खत्म करने की ठानते हैं। वे दो जासूसों की आतंकवादी संगठनों में घुसपैठ कराते हैं। लेकिन, एक आतंकियों के हाथों मारा जाता है। जिंदा बचे जासूस को आतंकियों से बचाया जाता है। जबकि, आतंकवादी पुलिस के जासूसों का पता लगाने की कोशिश करने लगते है। ‘द्रोहकाल’ की कहानी आतंकवादियों के सामाजिक और लोकतांत्रिक उथल-पुथल के बीच खुद को खड़ा करने पर रची गई थी।
रवि नगाइच ने 1967 में जितेंद्र को हीरो बनाकर फिल्म ‘फर्ज’ बनाई। इसमें जितेंद्र की भूमिका सीक्रेट एजेंट-116 की थी, जो अपने साथी एजेंट की हत्या का राज खोलता है। इसके बाद रामानंद सागर ने 1968 में धर्मेंद्र को लेकर फिल्म ‘आंखें’ बनाई। इसका कथानक देश के खिलाफ षड़यंत्र रचने वाले गिरोह को ख़त्म करने पर केंद्रित था। इसमें धर्मेंद्र ने जासूस की भूमिका की थी। मिथुन चक्रवर्ती को अपने शुरूआती करियर में ऐसी ही कुछ फिल्मों से सफलता मिली थी। उनमें एक 1979 में बनी ‘सुरक्षा’ भी थी। यह हॉलीवुड की जेम्सबांड जैसी फिल्मों की घटिया नकल थी। इसमें मिथुन ने सीक्रेट एजेंट ‘गनमास्टर जी-9’ का किरदार निभाया था, जो दुश्मनों का षड़यंत्र बेनकाब करता है।
2008 की फिल्म ‘मुखबिर’ में पुलिस स्टेशन का जीवन बताया गया है। इसमें पुलिस अधिकारी के आदेश पर एक नौजवान जेल से छूटते ही पुलिस का मुखबिर बन जाता है। वह सफलतापूर्वक आतंकवादी संगठनों, ड्रग डीलरों और अंग तस्करी करने वाले गिरोहों में घुसपैठ कर लेता है। यह फिल्म मणिशंकर के निर्देशन में बनी थी। 2013 में ‘मद्रास कैफे’ की कहानी श्रीलंका में उपजे हालातों पर केंद्रित थी। जॉन अब्राहम की भूमिका वाली इस फिल्म की कहानी इंदिरा गांधी की हत्या पर खत्म होती है। फिल्म में जासूसी के जटिल हालातों और अधिकारियों के राजद्रोह भी देखने को मिला था। सुजीत सरकार की इस फिल्म में भेदभाव और मानसिक दुविधाओं को बेहतर तरीके से दिखाया गया।
इसी साल (2013) बनी ‘डी डे’ मोस्ट वांटेड अपराधी को मारने पर आधारित थी। इरफ़ान खान की अदाकारी और निखिल आडवाणी निर्देशित इस फिल्म में देश के जासूसों कहानी है, जिसमें गोल्डमैन कोड नाम के एक आदमी को मारना होता है। जबकि, अंडरकवर रॉ एजेंट को पाकिस्तान में गोल्डमैन को जिंदा खोजना होता है। इसके लिए तीन भारतीय एजेंट पाकिस्तान जाते हैं।
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सीक्रेट एजेंट की हिंदी फिल्मों की कहानियों में लीड रोल आमतौर पर हीरो निभाते रहे हैं। लेकिन, 2012 में विद्या बालन ने ‘कहानी’ में जासूस की भूमिका निभाई थी। सुजॉय घोष की इस फिल्म में विद्या बालन ने ऐसी महिला का किरदार निभाया, जिसका पति गुम हो जाता है और वो उसकी खोज करती है। बाद में 2018 में आई ‘राजी’ में आलिया भट्ट ने रॉ एजेंट की भूमिका की थी। ‘नाम शबाना’ भी एक ऐसी ही फिल्म थी जिसमें महिला सीक्रेट एजेंट अपने कामयाब होती है। फिल्म में तापसी पन्नू ने शबाना का किरदार निभाया था।
सलमान खान की फिल्म ‘एक था टाइगर’ (2012) को जासूस रवीन्द्र कालिया के जीवन से प्रेरित फिल्म बताया जाता है। इसमें सलमान ने रॉ के अंडर कवर एजेंट की भूमिका निभाई थी। उसे एक एनआरआई वैज्ञानिक की गतिविधियों पर नज़र रखने की जिम्मेदारी मिलती है। कबीर खान द्वारा निर्देशित यह फिल्म ब्लॉकबस्टर साबित हुई। इस सीरीज की दूसरी फिल्म 2017 में आई जिसे ‘टाइगर जिंदा है!’ नाम दिया गया। अब इसकी तीसरी फिल्म आना है। आना बाकी है। निर्देशक नीरज पांडे की फिल्म बेबी, अनिल शर्मा की ‘द हीरो : लव स्टोरी ऑफ ए स्पाई’ और हुसैन जैदी की किताब ‘मुंबई एवेंजर्स’ पर ‘फैंटम’ भी बनी थी। इसमें सैफ अली खान मुख्य भूमिका में थे। अभी ऐसे किरदार और कहानियां ख़त्म नहीं हुई, जासूसी किरदारों पर कई नई कहानियां गढ़ी जा रही है। इसलिए कि ये किरदार हमेशा ही दर्शकों की पसंद रहा है।