फिर वो भूली सी याद आयी है
30 जून…. वक़्त के सफे़ पर यह एक और तारीख़ के आने-जाने का सिलसिला हो सकता है लेकिन पानी की परतों में अपना वजूद खो चुके एक शहर के वाशिंदों के सीने में यह दिन, यह तारीख़ अपनी सरज़मीं से बिछुड़ने की बेबस कहानी कहती है। मध्यप्रदेश के निमाड़ जनपद का शहर हरसूद डूब रहा था। नर्मदा की उछाल मारती लहरों ने आखिर धरती पर बसे जीवन को अपनी आगोश में समेट लिया। सब कुछ उजड़ गया। सिर्फ नक़्श-ए-क़दम रह गये। यादों के सिरहाने पर सिर रखकर अब भी यह शहर सिसकी भरता है।
हिन्दुस्तान को आज़ाद हुए कुछ अरसा बीता था और तरक्की के पाँव नापती एक योजना इंदिरा सागर बांध की तैयार हुई। मानचित्र बना तो हरसूद और उसके आसपास बसे कई छोटे-बड़े देहातों की जल समाधि का फरमान जारी हुआ और एक दिन अपने वतन और अपनी विरासत को वीरान वादियों के हवाले कर हरसूद के वाशिंदे वक़्त की उंगली थामें सरहद से कूच कर गये। बरस 2004 का था। कहने को सोलह साल गुज़र गये पर नये हरसूद के दामन पर अब भी पुराने हरसूद की कसक भरी कौंध साफ़ तौर पर पढ़ी जा सकती है।
दरअसल हरसूद के डूब की कहानी विस्थापन की एक बड़ी बहस खड़ी करती है। इस बहस में सिर्फ मटियारी धरती से दूर हो जाने की बेचारगी भर नहीं है। मुआवज़ों के बँटवारे और सियासत तथा अफसरी के गठजोड़ की बेरहमियाँ भी हैं। पुरखों की जायदाद पर हक़ जताते ख़ानदानी कि़स्से भी हैं। लेकिन आश्चर्य और अफ़सोस होता है यह जानकर कि इस ज्वलंत हक़ीकत को अख़बारी की सतही सुर्खियों, चंद कविता-संस्मरणों के अलावा साहित्य में वो जगह नहीं मिली जिसकी कि दरकार रही। साहित्यिक दस्तावेज़ों का अपना महत्व होता है आने वाली नस्लों के लिए वह प्रामाणिक इतिहास होता है। प्रसिद्ध कवि मंगलेश डबराल ने एक साक्षात्कार में विस्थापन से जुड़े सवाल पर कहा था कि स्वयंसेवी संगठनों ने भी हरसूद के हक में वो आवाज़ नहीं उठाई जो ज़रूरी थी।
शिवशंकर शर्मा, श्रीराम परिहार, रघुवीर शर्मा, इलाहशंकर गुहा, वसंत सकरगाए, काशीनाथ भारद्वाज, कमलकांत भारद्वाज, शशिकांत गीते, गौरीशंकर टाले, दिवाकर शर्मा और सुशील बिल्लोरे सरीख़े उस हरसूद के हज़ारों ऐसे वाशिंदे हैं जिनकी जुबां पर अपने शहर के बेशुमार कि़स्से शहद बनकर टपकते रहे। कवि दिनेश प्रभात की कलम से झरते अश्क कहते हैं- “कारवाँ रूकता कहाँ है/आँसुओं के जलजले का/बांध से बस्ती का रिश्ता/सांप से ज्यों नेवले का।
देश की खुशियाँ यहाँ हरसूद से ज़्यादा बड़ी हैं।” वसंत सकरगाए अपनी जन्मभूमि की याद को थामती कविता में एक मार्मिक बिंब रचते हैं- “जगह-जगह से नुची-पिटीं/मूक रहीं जो बरसों बरस/लटकी-पटकी वक़्त की तरह/होते-होते हरसूद से बेदख़ल/लोगों के संग-साथ/बहुत रोयी थी बाल्टियाँ भी।” ये रेत भरी कुछ वो बाल्टियाँ थीं जिनकी पीठ पर लिखा होता था ‘आग’।
कुछ बरस पहले वरिष्ठ गीतकार रघुवीर शर्मा की एक पूरी किताब ही हरसूद पर लिखी उनकी कविताओं का संग्रह बनीं- “चारों ओर कुहासा है।” 30 जून के प्रसंगवश उसका जि़क्र बेहद मौजूं हैं।
मिसाल के तौर पर यह गीत- “क्या बतलाएँ भैया/अपना क्या-क्या डूब गया/डूब गई पुरखों की माटी/बचपन की पहचान/हँसी-ठिठोली चौराहों की/अधरों की मुस्कान/संबंधों में गरमाहट का जरिया डूब गया।”
गहराई के गर्भ से उपजी ये मन की आहें-कराहें हैं जो गीत का दामन थामकर स्मृतियों की दुनिया में ले जाती हैं। सुधियों का यह संसार इतना सगा-भला, भोला और निष्कलुष है कि सरगोशी से अपनी आत्मा का आलिंगन कर लेता है। अपनी सरज़मीं और अपने बसेरे से दूर हो जाने की बेबसी ने रघुवीर शर्मा के कलेजे को कहीं भीतर तक इतना आहत किया कि वे खरोंचे एक दिन कविता की आवाज़ बन गई। दरअसल ये दर्द भरे गीत हैं। अवसाद का संगीत हैं। रूदन का राग है।
हरसूद, रघुवीर जैसे वहाँ के वाशिंदों के लिए वो जगह था जहाँ उनकी साँसों का कारवाँ शुरू हुआ। संस्कारों को थामकर धूप-छाँही अठखेलियाँ करता जीवन नातों-रिश्तों की डोर थामे अपने उत्कर्ष तलाशता रहा। यहीं भावनाओं का निवेश करते हुए अनमोल सौगातें पायीं। रघुवीर के गीत की जुबानी कहें तो दुख्खम-सुख्खम जी लिया यहाँ। लेकिन एक दिन जब यह सब पानी की बलि चढ़ गया तो उदास लहरों का संगीत चारों ओर फैले कुहासे का आालाप गाने को विवश हो गया। बिलाशक ये गीत रघुवीर शर्मा के बिलखते-बिसूरते मन की इबारतें हैं।
कहते हैं- “मन लिखा बाँचना/अनलिखा बाँचना/कागद में सपनों का/चित्र लिखा बांचना”। आप इस किताब के पन्ने इसी गरज से पलटिये। यहाँ कागज़ के वक्ष पर टूटे-बिखरे सपनों के रेखाचित्रों में एक तन्हा और परेशां आदमी के अफसाने आप सुन सकते हैं। अपनी मिट्टी और जीवन से बेइंतहा मोहब्बत करने वाले एक शरीफ आदमी की आवाज़ बनकर उभरा है रघुवीर शर्मा का गीतकार। आस्था में आकंठ डूबा, ममतत्व को दुलारता, स्मृतियों को पुकारता और अपने गाँव की धूल को चंदन की तरह माथे पर लगाकर धन्यता के गीत गाता आखर जगत का यह साधक निश्चय ही मनुष्यता को रचता है।
काबिले ग़ौर यह कि उदासियों के बीच धड़कते ये गीत कुंठा के शोर से बचकर करूणा के प्रांजल प्रवाह में लयबद्ध हो जाते हैं और अपनी तड़प को तल्ख़-आक्षेपों की ओट से मुक्त कर अपने सहज छंद की तलाश करते हैं। यह छंद भाषा और कहन की दृष्टि से बेहद सधा-सुगठित और रम्य है। बिम्बों, रूपकों और उपमाओं से रघुवीर की कलम को परहेज़ तो नहीं लेकिन जटिल प्रयोगों के बोझ से वह आज़ाद है। सहज आत्मीयता में बिंधा शिल्प है रघुवीर शर्मा के पास। और रचना का यह कौशल उन्होंने हरसूद के साहित्यिक पर्यावरण में हासिल किया। उनके गीतकार ने वहाँ अपनी आँखें खोलीं और कविता की तीसरी आँख से दुनिया को देखने-समझने की कुव्वत पायी।
‘चारों ओर कुहासा हैं’ उनके गीतों का पहला किताबी दस्तावेज़ है। अलबत्ता कविता के परिसर में उनकी आमद नई नहीं है। उनकी हर आहट को संवेदनाओं से भरे मन आदर और प्रेम से सुनते-गुनते रहे हैं। साहित्यिक महत्वाकांक्षाओं और स्थापनाओं के मोहजाल से मुक्त उनके गीत, जीवन का ओर-छोर नापते हुए अन्तर्यात्रा का सुख देते हैं।
बहरहाल, यादों के दरीचों पर हरसूद की दस्तकें आज भी सुनी जा सकती है।