Justice and Law: वरिष्ठ नागरिकों का मूलभूत अधिकार है गरिमापूर्ण जीवन

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Justice and Law: वरिष्ठ नागरिकों का मूलभूत अधिकार है गरिमापूर्ण जीवन;

देश में वृद्धों के साथ उनके परिजनों द्वारा ही किया जा रहा अन्याय देश की चिंता का विषय है। इस प्रकार की घटनाओं में निरंतर वृद्धि होती जा रही है। लेकिन वृद्ध व्यक्तियों के अधिकारों को कानून मान्यता देता है। कानून में उनके भरण-पोषण तथा परिजनों की क्रूरता और अमानवीय व्यवहार से संरक्षण प्रदान किया गया है। लेकिन आज भी बुजुर्ग अपने परिवार की गरिमा और सम्मान के लिए कानून का सहारा लेने में संकोच करते हैं। इस मनोवृत्ति को बदलना होगा।
देश के बुजुर्गों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। भारत में सन् 1951 में यह संख्या मात्र 2 करोड़ थी जो 2011 में बढ़कर 10.4 करोड़ हो गई है। युनेस्को के अनुसार तीन वर्ष बाद बढ़कर यह संख्या 4 करोड़ हो सकती है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक मनुष्य को गरिमापूर्ण एवं स्वतंत्र जीवन की बात करता है। उन्हें अपने परिजनों से भोजन, स्वास्थ्य तथा रहने के लिए आवास जैसी आवश्यक सुविधाएं प्राप्त करने का मूलभूत अधिकार है। यह तब है जब बुजुर्ग व्यक्ति के पास अपनी संपत्ति अथवा धन न हो। हमारे संस्कार और समाज भी बुजुर्गों के साथ अमानवीय व्यवहार की इजाजत नहीं देता है। लेकिन कुछ लोग अपने बुजुर्गों की संपत्ति पर ही कब्जा कर उन्हें भटकने के लिए छोड़ देते हैं अथवा घर में रखकर उनके साथ अमानवीय व्यवहार करते हैं। इसे देखते हुए सन् 2007 में वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण व कल्याण अधिनियम लाया गया।
हाल ही में एक बुजुर्ग ने साथ रह रही बहू पर सताने और प्रताड़ित करने का आरोप लगाते हुए अपने घर से बाहर निकालने की मांग की थी। एसडीएम ने आवेदन पर संज्ञान लेते हुए बहू को घर खाली करने का आदेश दिया। इसके खिलाफ बहू पहले उच्च न्यायालय गई और वहां से हारने पर सर्वोच्च न्यायालय गई। लेकिन, दोनों ही अदालतों ने माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण कानून के तहत बहू को घर खाली करने का दिया गया आदेश यथावत रखा। सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान ससुर की और से बहू को अलग दूसरे फ्लैट में रहने का विकल्प दिया गया। न्यायालय ने इसे बेहतर प्रस्ताव माना। सुप्रीम कोर्ट ने बहू को आदेश दिया है कि वह अपनी बेटी के साथ उस अलग फ्लैट में रहे। न्यायालय ने यह भी कहा कि उसे सास-ससुर की जिंदगी में दखल देने का अधिकार नहीं होगा। उस फ्लैट पर बहू को तीसरे पक्ष के कोई कानूनी अधिकार भी सृजित करने का हक नहीं होगा। इस फैसले के बाद बहू को ससुर का वह घर खाली करना पड़ेगा।
कोई भी माता-पिता अथवा वरिष्ठ नागरिक, जिसकी आयु 60 वर्ष अथवा उससे अधिक उम्र के वे व्यक्ति जो कि अपनी आय या अपनी संपत्ति के द्वारा होने वाली आय से अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं, वो अपने वयस्क बच्चों या रिश्तेदार से भरण-पोषण प्राप्त करने के लिए आवेदन कर सकते हैं। अभिभावक में सगे, दत्तक माता-पिता और सौतेले माता सम्मिलित है। इस अधिनियम में यह प्रावधान है कि अगर रखरखाव का दावा करने वाले दादा-दादी या माता-पिता हैं और उनके बच्चे या पोता-पोती अभी नाबालिग है तो वे अपने उन रिश्तेदारों से जो उनकी मृत्यु के बाद उनका उत्तराधिकारी होंगे, उन पर भी दावा कर सकते हैं। उन परिस्थिति में जब वरिष्ठ नागरिक अपनी संपत्ति अपने उत्तराधिकारी के नाम कर चुका है कि वो उसकी आर्थिक और शारीरिक जरूरतों का भरण-पोषण करेगा और ऐसे में अगर संपत्ति का अधिकारी ऐसा नहीं करता है तो माता-पिता या वरिष्ठ नागरिकों को अपनी संपत्ति वापस लेने का अधिकार प्राप्त है।
कानून में यह भी प्रावधान है कि राज्य के हर जिले में कम से कम एक वृद्धाश्रम हो, ताकि वो वरिष्ठ नागरिक जिनका कोई नहीं है, इन वृद्धाश्रमों में उनकी देखभाल की जा सके। सरकारी अस्पतालों में बुजुर्गों के उपचार का अलग से प्रावधान भी है। उन्हें ज्यादा वक्त तक इंतजार न करना पड़े इसके लिए अलग लाइन की व्यवस्था है। वरिष्ठ नागरिकों की उपेक्षा या फिर उन्हें घर से निकाल देना एक गंभीर अपराध है। इसके लिए पांच हजार रुपये का जुर्माना या तीन महीने की कैद या दोनों हो सकती है। देश के कई राज्यों में माता-पिता एवं बुजुर्गों का भरण-पोषण व कल्याण अधिनियम 2007 लागू है। लेकिन, असम विधानसभा ने 2017 में बुजुर्गों के हित में एक नया बिल पास किया गया। इस बिल के अनुसार अगर कोई नौकरीपेशा शख्स अपने बुजुर्ग माता-पिता की देखभाल ठीक से नहीं करता है तो हर महीने एक तयशुदा रकम उसकी तनख्वाह से काटकर उसके मां-बाप को दी जाएगी। ये कानून फिलहाल असम में सरकारी कर्मचारियों के लिए है।
संसद में शीतकालीन सत्र में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा ‘माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण एवं कल्याण (संशोधन) विधेयक 2019’ प्रस्तुत किया गया है। यह विधेयक वर्तमान में संसद की स्थायी समिति के पास विचाराधीन है। भारत सरकार ने वर्ष 1999 में राष्ट्रीय वृद्धजन नीति की घोषणा की थी। इसके माध्यम से वृद्धजनों के अधिकारों को पहचान मिली। इसमें उनकी आर्थिक स्थिति, सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य, जीवन तथा संपत्ति की रक्षा करने की जिम्मेदारी सरकार को दी गई है।
पिछले कुछ सालों में हमारे देश में एकल परिवारों का प्रचलन बढ़ा है। पारंपरिक संयुक्त परिवारों की संरचना में तेजी से बदलाव हुआ। इस वजह से वृद्धावस्था में अधिकांश लोगों को अकेले रहना वास्तविकता है। इससे वरिष्ठ नागरिकों की अवहेलना, उनके प्रति अपराध, उनके शोषण तथा परित्याग आदि के मामलों में निरंतर वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा वर्ष 2018 में जारी रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2016 की तुलना में वर्ष 2018 में वरिष्ठ नागरिकों के प्रति अपराध के मामलों में 13.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
सर्वोच्च न्यायालय तथा विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा समय-समय पर आदेश जारी किए हैं कि माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण एवं कल्याण अधिनियम, 2007 के प्रावधानों की समीक्षा की जाए। इस कारण तथा बुजुर्गों के साथ हो रही घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में यह विधेयक लाया गया है। इस अधिनियम की परिभाषा में माता-पिता का अर्थ जैविक, गोद लेने वाले और सौतेले माता-पिता से भी है। यह विधेयक माता-पिता की परिभाषा में सास-ससुर, दादा-दादी और नाना-नानी को भी सम्मिलित करता है। इसमें भरण-पोषण के अंतर्गत भोजन, कपड़ा, आवास, चिकित्सकीय सहायता और उपचार आदि सम्मिलित है।

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अधिनियम के अंतर्गत वरिष्ठ नागरिक या माता-पिता को छोड़ने के लिए तीन माह की सजा अथवा पांच हजार रूपए का जुर्माना या दोनों दी जा सकती है। विधेयक कैद की अवधि को तीन माह से बढ़कर छह महीने और जुर्माने की राशि बढ़ाकर अधिकतम दस हजार की राशि करता है। दोनों सजाएं साथ-साथ हो सकती हैं। विधेयक में यह प्रावधान भी है कि अगर बच्चे या संबंधी भरण-पोषण के आदेश का पालन नहीं करते हैं तो उस दशा में अधिकरण देय राशि की वसूली के लिये वारंट जारी कर सकता है। इसके साथ ही जुर्माना न चुकाने की स्थिति में एक महीने तक की कैद या जब तक जुर्माना नहीं चुकाया जाता तब तक की कैद भी हो सकती है। इस अधिनियम में प्रावधान है कि अधिकरण की कार्यवाही के दौरान माता-पिता का प्रतिनिधित्व भरण-पोषण अधिकारी द्वारा किया जाएगा। विधेयक के अंतर्गत भरण-पोषण अधिकारी पर भरण-पोषण के भुगतान से संबंधित आदेश का अनुपालन सुनिश्चित करना था। माता-पिता या वरिष्ठ नागरिकों के लिए संपर्क सूत्र की जवाबदारी भी होगी।
लेकिन, यह विधेयक भी बुजुर्गों की कई समस्याओं की अनदेखी भी करता है। विधेयक वरिष्ठ नागरिकों तथा वृद्धजनों में होने वाली मानसिक समस्याओं जैसे अवसाद, स्मृति भ्रम तथा अल्जाइमर रोग की उपेक्षा करता है। ऐजवेल फाउंडेशन के अनुसार, वर्ष 2017-18 में भारत के प्रत्येक दो वृद्ध व्यक्तियों में से एक व्यक्ति अकेलेपन का शिकार है, जिससे अवसाद और अन्य मानसिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं। साथ ही वर्ष 2011 की जनसंख्या के आंकड़ों के अनुसार, वरिष्ठ नागरिकों में लिंगानुपात 1033 है जो कि वर्ष 1971 में 938 था। इनमें अधिकांष संख्या विधवा तथा अत्यधिक आश्रित वृद्ध महिलाओं की है। विधेयक में इन महिलाओं की समस्या तथा इनकी विशेष आवश्यकताओं के लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया है। वर्तमान में अधिकांश वरिष्ठ नागरिक अपने अधिकारों को लेकर जागरूक नहीं हैं। उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है कि अपने बच्चों और संबंधियों द्वारा उनके प्रति किए जाने वाले अत्याचार एवं शोषण के विरूद्ध न्यायालय जा सकते हैं।

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यह सही है कि अध्यादेश में ऐसे कई प्रावधान है जिससे बुजुर्ग व्यक्तियों को कानूनी संरक्षण भी होगा तथा उनका जीवन कुछ सरल हो सकेगा। लेकिन, पता नहीं यह विधेयक कब पारित होगा। स्थाई समिति कब सदन में भेजेगी। सरकार को इसके लिये विशेष प्रयास करने होंगे। यह भी सही है कि मात्र कानून से कुछ नहीं होगा। हमारे देश की लाल फीताशाही, धन की कमी एवं सरकारी अधिकारियों का दृष्टिकोण इसमें सबसे बड़ी बाधा है। पुराने समय में हमारे परिवारों में बुजुर्गों की इज्जत होती थी तथा उनका सम्मान किया जाता था। संयुक्त परिवार की प्रथा थी। लेकिन विगत कुछ समय से जो बदलाव समाज में आया है उसमें परिवर्तन करने के गंभीर प्रयास हमें करने होंगे, ताकि बुजुर्ग परिजनों के गरिमापूर्ण जीवन को उन्हें वापस लौटाया जा सके।