कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे…

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शिक्षक-साहित्यकार एवं गीतकार गोपालदास नीरज का नाम भारतीय जनमानस के स्मृतिपटल पर स्थायी तौर पर अंकित है। 19 जुलाई 2018 को नश्वर संसार से विदा हुए नीरज की चौथी पुण्यतिथि है। आओ आज नीरज को याद करें। कालजयी रचनाओं के लेखक के तौर पर वह हमेशा काव्यप्रेमियों के दिल में जिंदा रहेंगे। वे पहले व्यक्ति थे जिन्हें शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में भारत सरकार ने दो-दो बार सम्मानित किया। पहले पद्मश्री और उसके बाद पद्मभूषण सम्मान से। यही नहीं, फ़िल्मों में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये उन्हें लगातार तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। पुरस्कार उन्हें कई मिले, तो मध्यप्रदेश सरकार ने भी 25 मार्च 2015 को प्रथम राष्ट्रीय कवि प्रदीप सम्मान से सम्मानित किया था। भोपाल में आयोजित समारोह में मध्यप्रदेश के तत्कालीन संस्कृति राज्य मंत्री सुरेन्द्र पटवा ने नीरज को 2 लाख रुपये की सम्मान राशि, सम्मान पट्टिका और शॉल प्रदान किया था।
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आठ साल पहले वर्ष 2014 में कवि नीरज ने उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान द्वारा भोपाल में आयोजित अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में ईश्वर पर ही आक्रोश जताते हुए कहा था कि दुनियाभर में मार-काट हो रही है, अगर वाकई ईश्वर है तो वह कहां है? उन्होंने यहां तक कहा कि ईश्वर की रचना मनुष्य ने की, किसी ईश्वर ने मनुष्य की रचना नहीं की। आज अगर कोई भगवान है तो वह विज्ञान है। आत्मा जैसा कुछ भी नहीं।
वहीं इसके एक साल बाद जब मध्यप्रदेश सरकार ने नीरज को प्रथम राष्ट्रीय कवि प्रदीप सम्मान से सम्मानित किया था, तब उन्होंने कहा था कि मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य। किसी मनुष्य के लिए किसी जीवन की परिभाषा इस बात पर निर्भर करती है कि अब तक उसने जिंदगी के किन रंगों का स्वाद चखा है।
वास्तव में बचपन से संघर्ष की आग में तपकर सोना बने नीरज कोमल ह्रदय के सम्राट थे। 4 जनवरी 1925 को उत्तर प्रदेश के इटावा में जन्मे नीरज के पिता का निधन 6 वर्ष की आयु में हो गया था। फिर संघर्ष की इंतहा तक शूलों से जूझते हुए गोपाल में फूलों की महक पैदा हुई थी। यह पंक्तियां कवि नीरज पर पूरी तरह चरितार्थ होती हैं कि शूलों के बीच ही फूल खिल पाते हैं। फिल्म उद्योग से गीत लिखने की चुनौती और आमंत्रण मिला, तो कवि नीरज की कलम ने फिल्मी परदे पर भावों के रंग भर दिए। उनकी पहली फिल्म “नई उमर की नई फसल” (1966) के गीत ही सबकी जुबान पर चढ़ गए।
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“स्वप्न झरे फूल से,मीत चुभे शूल से, लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से, और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे। कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!” मोहम्मद रफी का गाया गीत आज भी दिलों में समाया है। तो इसी फिल्म का मुकेश की आवाज में गीत “देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा” भी बेहद लोकप्रिय हुआ था। उनके लोकप्रिय फिल्मी गीतों में “ए भाई, ज़रा देखके चलो, आगे ही नहीं पीछे भी…”(मेरा नाम जोकर,1972), काल का पहिया घूमे भैया, लाख तरह इंसान चले, ले के चले बारात कभी तो, कभी बिना सामान चले, राम कृष्ण हरि …(अज्ञात, 1970), ओ मेरी ओ मेरी ओ मेरी शर्मीली,आओ ना तरसाओ ना, ओ मेरी ओ मेरी ओ मेरी शर्मीली (शर्मीली, 1971), फूलों के रंग से, दिल की कलम से,तुझको लिखी रोज़ पाती (प्रेम पुजारी 1970),बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं, आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं, (पहचान,1971) जैसे गीतों की लंबी श्रंखला है।
कारवां बनकर कवि नीरज भी अब गुजर गए हैं। पर उनकी यादें जिंदा हैं और बनी रहेंगीं। उनके गीत संगीत-प्रेमियों के मानस में समाए रहेंगे। जब भी मन उचटा-उचटा सा होगा, तब भी और जब भी मन प्रफुल्लित और भावों से भरा होगा, तब भी।
और कवि नीरज की यादें विराम ले पातीं, इससे पहले ही एक और दिल दुखाने वाली खबर सन्नाटा पसार रही है। फिर एक टीस संगीत-प्रेमियों को लगी है। 18 जुलाई 2022 को भूपेंद्र दा… यानि मशहूर ग़ज़ल गायक,गीतकार और बेहद संजीदा इंसान भूपेंद्र सिंह हमारे बीच नहीं रहे। उनकी मखमली आवाज़ से संगीतकारों और दुनिया को रूबरू कराने में सबसे अहम भूमिका आकाशवाणी की थी। यहां तक कि महान संगीतकार मदनमोहन ने भी रेडियो पर उनकी आवाज़ सुनकर ही भूपेंद्र दा को गाने का अवसर दिया था। फिर इस गायक ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। मेरी आवाज़ ही पहचान है गर याद रहे…गीत शायद आप इसीलिए गुनगुना कर गए हैं। आप हमेशा जिंदा रहेंगे हम सभी के दिल में। अलविदा भूपेंद्र दा..।