‘कभी आर-कभी पार, पर हमेशा नीतीश कुमार!’ 

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‘कभी आर-कभी पार, पर हमेशा नीतीश कुमार!’ 

आज बिहार में जो हुआ या जो कुछ होने जा रहा है, वह न तो नया है और न अप्रत्याशित। गोवा और बिहार देश के दो ऐसे राज्य हैं जहां राजनीतिक सागर में थोड़े-थोड़े अंतराल में ज्वार भाटा उठता रहता है। यह भी उसी की पुनरावृत्ति जैसा ही है। देखा जाए तो बिहार की राजनीति की फिल्म कुछ ऐसी है, जिसमें नायक तो वही है, बस सह-नायक बदलते रहते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो ‘कभी आर तो कभी पार हमेशा नीतीश कुमार!’

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इस बार बिहार में बीजेपी और जेडीयू की पटकथा पर बिहार की जिस फिल्म की पटकथा लिखी गई वह अब धुंधलाने लगी है। इसका कारण है नीतीश कुमार की अति महत्वाकांक्षा। नीतीश कुमार हमेशा से अतिवादी, कम संख्या होने के बावजूद गठबंधन में अपनी पार्टी के प्रभुत्व को बढ़ाना चाहते थे। लेकिन, पिछले दिनों जिस तरह से नीतीश कुमार ने सीधे नरेन्द्र मोदी और अमित शाह से पंगा लेना शुरू किया, उससे बीजेपी उनके पर कतरना चाहती थी। लेकिन, बीजेपी ने यह अनुमान लगा लिया था कि नीतीश और कुछ सहयोगी पार्टियां हमेशा आरजेडी (लालू यादव की पार्टी) के साथ महागठबंधन में वापस जाना चाहती थीं। लेकिन, यह सब कुछ एक्शन पैक्ड फास्ट थीम वाली फिल्म की तरह इतनी तेजी से होगा, इसकी कल्पना भाजपा ने भी नहीं की होगी।

बिहार का राजनीतिक अंकगणित थोड़ा टेढ़ा है। यहां एक दीवार ढहाने से काम नहीं बनेगा। जेडीयू के साथ साथ आरजेडी और कांग्रेस में टूट होने पर नीतीश बाबू बाहर हो सकते हैं। लेकिन, फिलहाल यह असंभव लगता है। आज के हालात में आरजेडी डिसाइडिंग फैक्टर साबित हो सकता है। कुर्सी कुमार कुर्सी का त्याग कर तेजस्वी को बिठाने को तैयार नहीं होंगे। बीजेपी चाहेगी कि आरजेडी में टूट हो, जेडीयू अपने आप टूट जाएगी उसके बाद ही पपेट शो चालू हो सकता है।

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बिहार में विधानसभा की कुल 243 सीटें हैं। किसी भी दल को सरकार बनाने के लिए 122 विधायकों का समर्थन जरूरी है। विधानसभा की ताजा स्थिति के मुताबिक, वहां एनडीए के 125 विधायक है। इनमें भाजपा के 77, जेडीयू के 43 और 5 सदस्य अन्य दलों के है। आरजेडी 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी है। उसे कांग्रेस के 17 और वामदलों के 16 विधायकों का समर्थन मिल सकता है। ऐसी हालत में न तो जेडीयू और न आरजेडी अपने अपने साथियों के साथ मिलकर सरकार बना पाएंगी। यदि आरजेडी और जेडीयू दोनों का लक्ष्य भाजपा के साथ कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखना है तो उन दोनों में पहले की तरह राजनीतिक गठजोड़ हो सकता है, जिससे दोनों दलों के सदस्यों की संख्या बहुमत से ज्यादा हो जाएगी।

भाजपा के लिए 77 से 122 का सफर लम्बा है और आरजेडी के लिए 80 से 122 का सफर थोड़ा नजदीक! लेकिन, इतना आसान भी नहीं। राजनीतिक अखाड़े में इस समय आरजेडी एक मात्र ऐसी पार्टी है, जिसके सामने कुछ खोने के बजाए कुछ पाने का मंच सजा हुआ है। नीतीश कुमार को सफल राजनीतिक मौसम विज्ञानी माना जाता है। महाराष्ट्र में शिवसेना में टूट के बाद नीतीश कुमार अपनी पार्टी के टूटने के लिए आशंकित हैं। इसलिए उन्होंने अपनी कुर्सी पर खतरा मंडराते देख कर किलेबंदी की कवायद आरंभ कर दी है। जानकारी बताती है कि नीतीश कुमार ने नए साथियों के साथ मुख्यमंत्री बने रहने की पटकथा लिख ली है। इस नई राजनीतिक पटकथा के अनुसार  नीतीश और लालू यदि कोई समझौता करते हैं, तो वे बीजेपी के मंत्रियों को बर्खास्त कर देंगे और सरकार से आरजेडी के विधायकों को जगह देंगे। इस तरह फिर से शपथ लेने की भी जरूरत नहीं होगी।

बदलते राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में बीजेपी के नेताओं ने भी यह स्वीकार कर लिया है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अब वहां पहुंच गए हैं, जहां से पीछे लौटना मुश्किल है। उन्हें नीतीश के रुख का अंदाजा तभी हो गया था जब नीतीश ने महत्वपूर्ण कार्यक्रमों से परहेज करना शुरू कर दिया था। वे न तो राष्ट्रपति की शपथ विधि में शामिल हुए और न प्रधानमंत्री के नेतृत्व में सम्पन्न नीति आयोग की बैठक में ही गए। इधर, आरजेडी ने भी दीवारों पर लिखी इबारत पढ़कर जेडीयू से नजदीकी बढाना शुरू कर दिया, ताकि बीजेपी को सत्ता से बाहर किया जा सके। आरजेडी का राजनीतिक रणनीति का पहला कदम यह था कि उसने नीतीश कुमार पर सियासी हमले करना हमला करना बंद कर दिए।

भाजपा इस बात से अनभिज्ञ भी नहीं है। उसे उम्मीद भी थी कि लालू के साथ जाने को लेकर नीतीश एक पांव पर बैठे है । लेकिन उनकी एक ही शर्त होगी कि मुख्यमंत्री तो वही रहेंगे। इस गठजोड़ के एवज में तेजस्वी यादव को उपमुख्यमंत्री पद दिया जा सकता है। तेजस्वी को भी इससे कुछ एतराज नहीं होगा । उनके लिए तो यह भागते भूत की लंगोटी जैसा अवसर है। लेकिन दोनों दलों के बीच एक जटिल पेंच फंसा है। सूत्रों के मुताबिक, अगर दोनों दल मुख्यमंत्री, स्पीकर और विधानसभा अध्यक्ष पद पर कंट्रोल के जटिल मसले को सुलझा लेते हैं तो सरकार तुरंत बन जाएगी। ऐसी स्थिति में नीतीश तुरंत बीजेपी को मंत्रियों को हटाकर उनकी जगह आरजेडी के मंत्रियों की नियुक्ति की अनुशंसा कर सकते हैं।

यदि ऐसा होता है, तो भारतीय राजनीति में यह एक अनूठा कीर्तिमान होगा जिसमें  बिहार देश का एकमात्र राज्य होगा जहां माता-पिता मुख्यमंत्री और बेटा उपमुख्यमंत्री होगा! हालांकि, अभी यह एक अनुमान ही है लेकिन असंभव तो हरगिज़ नहीं! जेडीयू और बीजेपी के गठबंधन टूटने का भले ही तात्कालिक नुकसान भाजपा को दिखाई पड़ रहा हो, लेकिन दीर्घकालीन राजनीति के नजरिए से देखें तो इसका खामियाजा नीतीश कुमार को ही भुगतना पड़ेगा। पार्टी को एकजुट बनाए रखना भी नीतीश के लिए बड़ी चुनौती होगी, जो भी राजनीतिक घटनाक्रम बिहार में होगा, वह एक-दो दिनों में स्पष्ट हो जाएगा।

बिहार में करीब तीन साल बाद विधानसभा चुनाव होना है। चुनाव की बात की जाए तो बीजेपी का जनाधार लगातार बढ़ रहा है। बीते विधानसभा चुनाव के बाद यह साफ हो गया था कि बिहार में बीजेपी के विस्तार को नीतीश के साथ गठबंधन से कोई खास फर्क नहीं पड़ रहा! जबकि, इसके उलट बिहार में लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने के कारण नीतीश की राजनीतिक स्थिति लगातार कमजोर होती दिख रही है। ऐसे में नीतीश ही बीजेपी के सहारे दिख रहे थे बीजेपी नीतीश के भरोसे नहीं। नीतीश कुमार राजनीति की नीति में फिनिश कुमार बनते जा रहे हैं। जिस तरह बुढ़ापे में इंसान मीठा खाने का लोभी हो जाता है। नीतीश भी राजनीतिक वानप्रस्थ की बजाए बतौर पीएम की गद्दी पाने का भरम पाल रहे हैं। यह बुढ़ापे में घोडी चढ़ने की कवायद जैसा है। महागठबंधन का हिस्सा न होने से वहां भी नीतीश के लिए कोई संभावना नहीं है। लेकिन, यदि वे आरजेडी की लालटेन थामकर अपने राजनीतिक जीवन में उजास भरकर प्रधानमंत्री बनने का भरम पाल रहे हैं, तो यह ख्वाब दिल बहलाने के लिए बुरा नहीं है! फिर इसका अंजाम चाहे जो हो, सपने तो देखे ही जा सकते हैं।