झूठ बोले कौआ काटे: सियासत के शिकंजे में कानून, सुधार जरूरी

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कोर्ट का आदेश आया कि विधायक जी सरेंडर करें नहीं तो पुलिस उन्हें गिरफ्तार करके हाजिर करे।

डीजीपी ने एसपी को और एसपी ने इंस्पेक्टर को आदेश जारी कर दिया कि अगर 16 तक सरेंडर नहीं
करते हैं तो संबंधित विधायक को गिरफ्तार करें।

इंस्पेक्टर साहब ने बताया कि हुजूर विधायक जी को गिरफ्तार करने के पहले विधानसभा के स्पीकर को सूचना देनी पड़ती है!!

तो सूचित करें।

मगर सर अभी विधानसभा में कोई स्पीकर नहीं हैं।

तो इस पर एडवोकेट जनरल की राय लें।

सर, एडवोकेट जनरल भी सरकार बदलते ही हट जाता है।

तो सरकार से राय लें।

लिहाजा, चीफ सेक्रेटरी को पत्र लिखकर आदेश मांगा गया।

चीफ सेक्रेटरी ने विधि सचिव से मंतव्य मांगा।

विधि सचिव ने विधि मंत्री के पास फाईल भेजी।

कानून मंत्री भौंचक रह गया क्योंकि उसी की गिरफ्तारी के लिए उसी से अनुमति मांगी जा रही थी। वह खिड़की से कूदकर भाग गया…

इस कहानी का बिहार से लेना देना नहीं है। पता नहीं क्यों, जब बिहार में सत्ता बदली और नए मंत्रियों ने शपथ ली तो जरूर सोशल मीडिया पर लोग इस कहानी के चटखारे ले रहे थे। दूसरी ओर, जनहित याचिकाओं के लिए जाने जाने वाले सुप्रीम कोर्ट के चर्चित अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ट्वीट कर रहे थे कि ये (अर्थात, भारत का) कानून घटिया है इसलिए अनपढ़ शिक्षा मंत्री, माफिया खनन मंत्री, तस्कर स्वास्थ्य मंत्री, किडनैपर कानून मंत्री बन सकता है। अपने ट्वीट में उन्होंने ये भी लिखा कि आरोप-प्रत्यारोप से कुछ नहीं होगा। घटिया कानून बदलना होगा। पुलिस-ज्युडिशियल रिफॉर्म करना होगा।

बताया जाता है कि भारत की अदालतों में चार करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। इनमें, अकेले उच्चतम न्यायालय के ही 70,000 से अधिक मामले हैं, जिनमें से कुछ को तो आधी सदी होने जा रही। इसी प्रकार, देश की जेलों में बंदियों का लगभग 76 प्रतिशत हिस्सा तो विचाराधीन कैदियों का है।

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पूर्व मुख्य न्यायाधीश के रूप में एम.एन. वेंकटचलैया

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के रूप में एम.एन. वेंकटचलैया ने कहा था, यह एक कैदी को बंद करने और चाबियों को फेंकने जैसा है! नतीजतन, जमानत से इनकार करने का मतलब है कि विचाराधीन अपराध के लिए कानून द्वारा निर्धारित अवधि की तुलना में लंबा कारावास और वह भी बिना मुकदमे के। यह भी एक त्रासदी है कि बड़ी संख्या में मामले लंबित होने के बावजूद, न्यायपालिका के सभी 3 स्तरों पर न्यायाधीशों के हजारों पद खाली हैं।

सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति मदन लॉकुर का मीडिया से बातचीत में कहना है कि भारत की कानूनी व्यवस्था चरमराने के कगार पर है। भारत की कानूनी व्यवस्था संघर्ष कर रही है। भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमण और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, दोनों भारत की कानूनी प्रणाली को विकसित करने की आवश्यकता व्यक्त कर चुके हैं।

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उधर, ज्यादा दिन नहीं हुए जब सेवानिवृत्त वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी प्रकाश सिंह ने पंचकुला में अपनी पुस्तक ‘द स्ट्रगल फॉर पुलिस रिफॉर्म्स इन इंडिया: रूल्स पुलिस टू पीपल्स पुलिस’ पर चर्चा करते हुए कहा कि पुलिस सुधारों की शुरुआत भले ही 1902 में हुई परंतु यहां 120 वर्षों में कुछ भी नहीं बदला है। अगर अंग्रेज नहीं बदले तो आप उन्हें दोष नहीं दे सकते लेकिन आप क्यों नहीं बदले? यह हम सब- वकील, पुलिस अधिकारी, नौकरशाह, राजनेता, न्यायपालिका सबके लिए आइना है। उन्होंने आगे कहा कि हम जानते हैं, यह एक औपनिवेशिक संरचना है जो हमें दिया गया है और हम इसे रोकने के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि सत्ता में बैठे राजनेताओं को लगता है कि यह उनके अनुकूल है, वे इसका इस्तेमाल कर सकते हैं और इसका दुरुपयोग कर सकते हैं। और इसलिए, यह प्रणाली जारी है। यदि आप अपराध का अच्छी तरह से पता लगाना चाहते हैं, यदि आप अच्छी कानून- व्यवस्था चाहते हैं, तो पुलिस सुधारों से बचने का कोई उपाय नहीं है।

झूठ बोले कौआ काटेः

जहां तक ​​पुलिस सुधारों का संबंध है, यह विषय 1979 में राष्ट्रीय पुलिस आयोग (एनपीसी) की रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद से चर्चा में रहा है। 1980 में सत्ता में लौटने पर, इंदिरा गांधी ने एनपीसी को भंग कर दिया था क्योंकि यह पुलिस और पुलिस के कामकाज के प्रति आलोचनात्मक थी। आपातकाल के दौरान सरकार ने एनपीसी की रिपोर्ट भी वापस ले ली। संयुक्त मोर्चा सरकार के दौरान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के इंद्रजीत गुप्ता के केंद्रीय गृह मंत्री (1996-98) बनने के बाद ही उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्रियों को त्वरित कार्रवाई करने के लिए पत्र लिखकर एनपीसी रिपोर्टों पर कार्रवाई शुरू की। हालांकि, राज्य ऐसा करने के लिए अनिच्छुक थे।

झूठ बोले कौआ काटे: सियासत के शिकंजे में कानून, सुधार जरूरी

बोले तो, पुलिस बल से सेवानिवृत्त होने के बाद, प्रकाश सिंह ने 1996 में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर पुलिस सुधार की मांग की। अदालत इस मामले में हस्तक्षेप करने के लिए इच्छुक नहीं थी, लेकिन, अंततः अपने ऐतिहासिक फैसले में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को पुलिस सुधार के लिए निर्देश दिये। निर्णय ने सभी प्रकार के गैरकानूनी बाहरी प्रभावों से पुलिस के कामकाज को बचाने के उद्देश्य से कुछ संस्थागत तंत्र स्थापित करने का फैसला किया, जैसे पुलिस को उचित पेशेवर स्वायत्तता प्रदान करना और किसी भी कदाचार या गैरकानूनी कार्यों के प्रति उसकी जवाबदेही सुनिश्चित करना। इसने अचानक तबादलों की बीमारी को भी गंभीर माना, जिसका अक्सर इस्तेमाल अधिकारियों की नकेल कसने, या हेरफेर करने के लिए एक उपकरण के रूप में किया जाता है।

राज्य उपरोक्त याचिका पर निर्देशों के कार्यान्वयन का विरोध करते रहे हैं। कई मुख्यमंत्रियों ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिकाएं दाखिल कीं लेकिन कोर्ट ने इन्हें खारिज कर दिया। फिर भी, कोर्ट की अवमानना ​​के लिए राज्यों की खिंचाई करने से न्यायालय हिचकता भी रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन न करने का कारण साफ और स्पष्ट है। कोई भी राजनीतिक दल हस्तक्षेप करने के लिए अपनी शक्ति और विशेषाधिकार का समर्पण नहीं करना चाहेगा।

झूठ बोले कौआ काटे: सियासत के शिकंजे में कानून, सुधार जरूरी

सैकड़ों उपयोगी सिफारिशों के बावजूद, हमारे पुलिस बल अपने औपनिवेशिक अतीत की अधिकांश बीमारियों से त्रस्त हैं, जो वक्त के साथ और गंभीर रूप धारण कर चुकी हैं। बिखरे टुकड़ों में मामूली नवीनीकरण को छोड़कर, अनुशंसित सुधारों को लागू करने का एक गंभीर प्रयास गायब रहा है।

जबकि, पुलिस राज्य का विषय होने के नाते, यह महत्वपूर्ण है कि राज्य सरकारें पुलिस के बुनियादी ढांचे के निर्माण और उपकरणों के लिए पर्याप्त संसाधन आवंटित करें। कई राज्य पुलिस संगठनों में बड़ी रिक्तियां हैं, जिससे जनशक्ति की भारी कमी है। कुछ राज्यों में फोरेंसिक और प्रशिक्षण बुनियादी ढांचा बेहद अपर्याप्त है। अदालतें वर्चुअल हो गईं, लेकिन 40% जेलों में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की सुविधा नहीं थी।

दूसरी ओर, न्यायपालिका किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। न्यायपालिका जो चाहे कर सकती है। उन पर कोई रोक नहीं है। यदि कोई न्यायिक अधिकारी गलत निर्णय सुनाता है, कोई जिम्मेदार और जवाबदेह नहीं है। उन अभियुक्तों के बारे में सोचिये, जिन्होंने बिना किसी कारण के दस साल से ज्यादा जेल में गुजारे और हाईकोर्ट से बरी हो गए। निचली अदालतें जिम्मेदार नहीं हैं? भारत के मुख्य न्यायाधीश की अनुमति के बिना रिश्वत लेने वाले न्यायाधीश के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने का कोई प्रावधान नहीं है। हमें न्यायपालिका को अधिक पारदर्शी और अधिक जवाबदेह बनाना चाहिए।

उच्च न्यायपालिका में नियुक्ति में पारदर्शिता पर सवाल उठते रहे हैं। उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों और राजनीतिक नेताओं के रिश्तेदारों की न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कोई नई बात नहीं है। न्यायपालिका आरटीआई के दायरे से बाहर है। वकीलों द्वारा कदाचार की जांच के लिए आयोगों की स्थापना होनी चाहिए। कतिपय वकील मुकदमों को लंबा खींचने के हथकंडे अपनाते हैं, जैसे तारीखों से चूकना, सुनवाई में अनुपस्थित रहना, चिकित्सा आपात स्थिति आदि। इसके परिणामस्वरूप न्याय में देरी होती है। इस तरह की कुचिल चालों के खिलाफ सख्त दिशा-निर्देश बनाय़े जाने और कागजी कार्रवाई तथा अन्य औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए एक सख्त समय सीमा निर्धारित करने की आवश्यकता है।

ऐसे कई कानून हैं जो राजनीति के लिए संसद में पारित नहीं होते हैं। एक ऐसा ढांचा तैयार करें जहां वकीलों और जजों के पास भी कानून बनाने की शक्तियां हों, फिर राष्ट्रपति से उसकी मंजूरी लें। इसके अलावा, हमारे अधिकांश कानून स्वतंत्रता -पूर्व युग के हैं, उन्हें निरस्त करने या सुधारने की पहल आवश्यक है। चुनाव सुधार, कॉमन सिविल कोड जैसे और अनेक मुद्दे हैं लेकिन इसके साथ ही न्यायालयों की संरचना, न्यायाधीशों की कमी और कोर्ट की मौजूदा सुविधाओं-संसाधनों पर भी ध्यान देने की जरूरत है।

अन्यथा, विधायक-जनप्रतिनिधि के चोले में अभियुक्त, पुलिस-न्यायिक सुधार के अभाव में हमेशा कानून को ठेंगा दिखाते रहेंगे। नोएडा की सोसायटी में कथित नेता द्वारा महिला से बदसलूकी कीघटना शायद आप भूले नहीं होंगे। तो, आप भी पुलिस-न्यायिक सुधार के लिए आवाज उठाइये न!

और ये भी गजबः

महाराष्ट्र के चन्द्रपुर जिले के नवरगांव में रहने वाली आदिवासी महिला मथुरा वह पीडिता थी, जो भारत में बलात्कार के क़ानून में बदलाव के लिए हुए पहले आन्दोलन का कारण बनी। महाराष्ट्र के चन्द्रपुर जिले के नवरगगाँव निवासी मथुरा के साथ 1972 में गढ़चिरौली जिले के दो कॉन्स्टेबलों ने थाने में ही बलात्कार जैसे अपराध को अंजाम दिया था। जिसके बाद ही 80 के दशक में महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के विरोध देशव्यापी आंदोलन की आवाज पुरजोर तरीके से उठाई गई। जिसके बाद 1983 में भारतीय दंड संहिता में बदलाव कर बलात्कार की धारा 376 में चार उपधाराएं ए, बी, सी और डी जोड़कर हिरासत में बलात्कार के लिए सजा देने का प्रावधान जोड़ा गया था। मथुरा के मामले में पहले तो पुलिस ने केस ही नहीं दर्ज किया था।

झूठ बोले कौआ काटे: सियासत के शिकंजे में कानून, सुधार जरूरी

लेकिन स्थानीय लोगों के हंगामे के बाद थाने में केस दर्ज किया गया। लेकिन 1974 में निचली अदालत ने दोनों गुनहगारों को इस आधार पर बरी कर दिया कि मथुर को सेक्स की आदत थी और उसके शरीर पर चोट का कोई निशान नहीं था। इतना ही नहीं उसने अपने साथ हो रहे इस अपराध का कोई विरोध या शोर नहीं किया था। लेकिन बॉम्बे हाई कोर्ट ने निचली अदालत के इस निर्णय को खारिज कर दिया।

हालांकि, एक वक्त ऐसा आया जब मथुरा की आत्मा पूरी तरह से टूट गई। 1979 में सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को फिर से बहाल कर दिया और अपराधियों को दोषमुक्त करार दिया। इसके बाद पूरे देश में कई महिला आंदोलन शुरू हुए और 1983 में भारत सरकार को बलात्कार के कानून को और सख्त बनाना पड़ा।