Law and Justice: चिकित्सकीय लापरवाही और पीड़ित पक्ष के अधिकार

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चिकित्सकीय लापरवाही और पीड़ित पक्ष के अधिकार

चिकित्सा लापरवाही की अवधारणा एक चिकित्सा पेशेवर के कदाचार को बताती है जो अपने पेशे के मानकों को पूरा करने में विफल रहता है। इसके परिणामस्वरूप एक रोगी की मृत्यु हो जाती है। वह मरीज चिकित्सा पेशेवर से उसकी जान बचाने की उम्मीद कर रहा था। कानूनी दृष्टि से चिकित्सकीय लापरवाही से आशय चिकित्सकीय कर्तव्य की लापरवाही से है। इसके परिणामस्वरूप मरीज को नुकसान होता है। यह नुकसान आर्थिक, स्वास्थ्य के साथ ही रोगी को उसके शेष जीवन के लिए अपूरणीय क्षति की स्थिति में छोड़ने के रूप में हो सकता है।

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चिकित्सकीय लापरवाही का आरोप लगाकर अस्पताल या डाॅक्टर के खिलाफ प्रदर्शन करने की बात आज आम है। वह जमाना गया जब चिकित्सक को भगवान माना जाता था। कई बार मसला हिंसक झड़प तक भी पहुंच जाता है। ऐसा ही एक मसला राजस्थान के दौसा जिले में हुआ। यहां एक गर्भवती महिला की एक प्राइवेट हॉस्पिटल में प्रसव के दौरान मौत हो गई। मौत के बाद जमकर हंगामा हुआ। प्रसव करवा रही डाॅ अर्चना शर्मा के खिलाफ आईपीसी की धारा 302 के अंतर्गत मुकदमा दर्ज कर लिया गया। इसके बाद अगले ही दिन डाॅ अर्चना शर्मा ने आत्महत्या कर ली। एक डाॅक्टर का आत्महत्या करना अपने आप में बड़ा समाचार था। लेकिन, इस मामले को और बड़ा बनाया अर्चना शर्मा के सुसाइड नोट में डाॅक्टर ने खुद को निर्दोश बताया और कहा कि डाॅक्टर्स को प्रताड़ित करना बंद करो। इसके बाद राजस्थान और देश के दूसरे इलाकों में डाॅक्टर्स की ओर से प्रोटेस्ट भी हुए। साथ ही देश में चिकित्सकीय लापरवाही पर नए सिरे से बहस भी शुरू हो गई है।

एक मामले में न्यायालय ने कहा कि यदि एक उचित रूप से सक्षम पेशेवर व्यक्ति द्वारा कोई त्रुटि नहीं की गई है और सामान्य देखभाल और सावधानी के साथ कार्य किया गया है तो यह लापरवाही है। यदि ऐसे व्यक्ति ने सामान्य सावधानी से अपना कार्य किया है तो यह लापरवाही नहीं है। कुसुम शर्मा और अन्य बनाम बत्रा हॉस्पिटल एंड मेडिकल रिसर्च (2010) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि लापरवाही अपने कर्तव्य का उल्लंघन है। वह कुछ ऐसा करता है जो एक विवेकपूर्ण और उचित व्यक्ति द्वारा नहीं किया जा सकता है। एक डॉक्टर के खिलाफ लापरवाही के लिए यदि यह पाया जाए कि जिस चिकित्सक पर रोगी या व्यक्ति जिसे मानसिक और शारीरिक चोट लगी है तथा उसका मरीजों के प्रति देखभाल का कर्तव्य है तथा उसने अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया है तो चिकित्सक लापरवाही का दोषी है। उसे आगे अभ्यास करने के लिए निष्कासित कर दिया जाएगा। दूसरा आधार यह होगा कि चिकित्सक रोगी की देखभाल के कर्तव्य के बावजूद अपने कर्तव्य को पूरा करने में विफल रहा और अपने पेशे के प्रति अपने कर्तव्य को पूरा करने में विफल रहा। साथ ही यह साबित होना चाहिए कि उक्त चिकित्सक पर रोगी की देखभाल का कर्तव्य था और वह अपने कर्तव्य को पूरा करने में विफल रहा। यह भी साबित करना होगा कि इस तरह की विफलता के परिणामस्वरूप रोगी को नुकसान अथवा मृत्यु हुई है। साथ ही इसके लिए चिकित्सकीय साक्ष्य आवश्यक होगी।

चिकित्सकीय लापरवाही के मामले में कार्यवाही पर विचार करें तो एक व्यथित पक्ष किसी चिकित्सक के विरुद्ध लापरवाही की शिकायत संबंधित राज्य चिकित्सा परिषद में दर्ज करा सकता है। परिषद दोषी पाए जाने पर संबंधित चिकित्सक का पंजीकरण निलंबित या रद्द कर सकती है। लेकिन परिषद को भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम, 1956 उन्हें पीड़ित पक्ष को क्षतिपूर्ति करने के अधिकार नहीं देता है। आरोपी को संबंधित मामले में सभी तथ्यों और प्रासंगिक विवरणों को स्पष्ट रूप से वर्णित करते हुए परिषद में षिकायत दर्ज करना आवष्यक है। इसके बाद परिषद आरोपी को अपना जवाब देने के लिए 30 दिन का समय देगी। यदि परिषद उत्तर से संतुष्ट नहीं है तो वे दोनों पक्षों को अपने दावों के समर्थन में साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए भी कह सकती है।

एक पीड़ित व्यक्ति आरोपी व्यक्ति और अस्पताल के खिलाफ दर्ज करने के लिए उपभोक्ता अदालतों का दरवाजा खटखटा सकता है।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन बनाम वीपी संस्था के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह ठहराया है कि चिकित्सा व्यवसायी उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के अंतर्गत आते हैं। उनके द्वारा प्रदान की जाने वाली चिकित्सा सेवाओं को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 2 (1) (ओ) के तहत सेवाओं के रूप में माना जाना चाहिए। इसी तरह, नए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के तहत चिकित्सा सेवाएं नए अधिनियम की धारा 2 (42) में उल्लेखित सेवाओं के दायरे में आएंगी। सेवा प्रदाता की और से चिकित्सा लापरवाही के किसी भी मामले को नए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 42(11) के तहत सेवा में कमी माना जाएगा। कोई भी पीड़ित व्यक्ति डाॅक्टर या अस्पताल के खिलाफ चिकित्सकीय लापरवाही के लिए हर्जाने का दावा कर सकता है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 69(1) उस समय सीमा को निर्धारित करती है जिसके भीतर चिकित्सा लापरवाही की परिवाद ऐसी घटना के 2 वर्ष के भीतर प्रस्तुत की जानी चाहिए।

इसके साथ ही भारतीय दंड संहिता, 1860 के विभिन्न प्रावधानों के तहत कोई भी व्यक्ति जो लापरवाही या जल्दबाजी में कार्य करता है तथा जिसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो व्यक्ति को कारावास और/या जुर्माने से दंडित किया जा सकता है। आपराधिक जवाबदारी के लिए यह सिद्ध होना चाहिए कि चिकित्सक ने कुछ ऐसा किया है या कुछ करने में असफल रहा है, जो उक्त परिस्थितियों में किसी अन्य चिकित्सा पेषेवर द्वारा सामान्य समझ और विवेक से करना चाहिए था। पीड़ित पक्ष पहले संबंधित व्यक्ति/व्यक्तियों के खिलाफ स्थानीय पुलिस में षिकायत दर्ज करेगा। यदि कोई कार्रवाई नहीं की जाती है तो पीड़ित पक्ष आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत आपराधिक शिकायत दर्ज कर सकता है। चिकित्सा लापरवाही से मौत को मुख्य रूप से भारतीय दंड संहिता, 1860, (आईपीसी) की धारा 304 ए के तहत दंडित किया जाता है, जहां लापरवाही और लापरवाही से मौत के लिए सजा एक अवधि के लिए आरक्षित है जिसे 2 साल तक बढ़ाया जा सकता है या जुर्माना या दोनों हों सकते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने जैकब मैथ्यु बनाम पंजाब और अन्य राज्य (2005) के मामले में चिकित्सा लापरवाही से संबंधित प्रकरण में यह ठहराया है कि षिकायत पर तब तक विचार नहीं किया जा सकता जब तक कि ऐसी षिकायत करने वाले व्यक्ति द्वारा आरोपी डाॅक्टर की लापरवाही के अपने दावे का समर्थन करने के लिए अदालत के समक्ष प्रथम दृष्टया सबूत पेष नहीं किए गए हो। साथ नियुक्त जांच अधिकारी को आरोपी डाॅक्टर के खिलाफ कार्यवाही शुरू करने से पहले, सरकारी सेवाओं में एक डाॅक्टर से परामर्श करना चाहिए। साथ ही आरोपी चिकित्सक को तब तक गिरफ्तार नहीं किया जाएगा जब तक कि आगे की जांच के लिए ऐसी गिरफ्तारी आवश्यक न हो। साथ ही जांच अधिकारी जब तक इस बात से संतुष्ट न हो कि डॉक्टर अभियोजन का सामना करने के लिए खुद को उपलब्ध नहीं कराएंगे, तब तक चिकित्सक को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। चिकित्सा लापरवाही एक चिकित्सा पेशेवर द्वारा सबसे खराब आचरण है। आमतौर पर चिकित्सक से दूसरों के जीवन को बचाने की अपेक्षा की जाती है।

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में यह कहा है कि मेडिकल लापरवाही के मामलों में मंषा के तौर पर आपराधिक मनःस्थिति (मेन्स रिया) की आवश्यक नहीं है। न्यायमूर्ति एएम खानविलकर और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की पीठ ने कहा है कि एक आपराधिक चिकित्सा लापरवाही की शिकायत में आरोपी को तलब करने से पहले, शिकायतकर्ता को शिकायत में रखे गये अपनी शिकायत के समर्थन में चिकित्सकीय साक्ष्य पेश करना होगी। लापरवाही के आरोपी चिकित्सक को केवल इसलिए गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है कि उसके खिलाफ आरोप लगाया गया है। यह उसी स्थिति में हो सकता है जब जांच को आगे बढ़ाने अथवा सबूत इकट्ठा करने के लिए उसकी गिरफ्तारी आवश्यक हो। यह दुर्भाग्य है कि डाॅक्टर के खिलाफ लोगों की आस्था और विश्वास कम हो रहा है। कई बार मामूली घटनाओं के बाद भी चिकित्सकों के खिलाफ हिंसा की जाती है। लापरवाही के मामलें भी बढ़ रहे हैं। इन मामलों में सुधार लाने के लिए भारत सरकार तथा चिकित्सा बिरादरी को इसमें सुधार लाना होगा।