मध्यप्रदेश की भारतीय जनता पार्टी सरकार में नेतृत्व परिवर्तन की मुहिम इस मुद्दे पर रुकी हुई है कि शिवराज सिंह चौहान के स्थान पर उचित विकल्प कौन हो? याने जिस दिन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को सही दावेदार मिल गया, उस दिन शिवराज सिंह चौहान की मुख्यमंत्री पद से बिदाई हो जायेगी। आखिरकार नेतृत्व शिवराज को क्यों बदलना चाहता है? बदलना चाहता भी है या पानी में पत्थर फेंककर गहराई नापना चाह रहा है? कौन है संभावित विकल्प। ऐसे तमाम मसलों पर राजनीतिक सरगर्मियां निरंतर तेज होती जा रही है। शिवराज को बदलने के दो प्रमुख कारण नजर आते हैं। पहला, 15 साल लंबे कार्यकाल की वजह से जनता में उपजी एकरसता को तोड़ना याने उनके प्रति नाराजी से खिसकते जनाधार को बचाना। दूसरा, 2018 के चुनाव में पराजय होना, फिर भी कमलनाथ की बिदाई के बाद उन्हीं शिवराज के हाथों बागडोर थमा देने से प्रदेश के अन्य वरिष्ठ नेताओं में पनपी नाराजी को अगले चुनाव से पहले दूर या कम करना ।
विकल्पों की फेहरिस्त में करीब आधा दर्जन नामों में सबसे ऊपर ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम चलने के बावजूद कोई भी इसे सवा सोलह आने संभावित नहीं मान रहा। इस तरह जब तक कोई फैसला सामने नहीं आ जाता,राजनीतिक प्रेक्षक अपने अनुमानों के घोड़े दौड़ाते रहेंगे। वैसे इतना तो तय है कि सिंधिया का नाम सच के करीब तो हो सकता है, किंतु पूरी तरह सच नहीं। कहीं दूर एक ऐसा नाम भी टिमटिमा रहा है, जो समय आने पर हेलोजन की तरह रोशनी बिखेर सकता है। यह नाम है मौजूदा केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल का। राजनीति का यही चरित्र है, जो उसे बाकी क्षेत्र से अलग और इसीलिये अविश्वसनीय बनाता है।
वैसे तो भाजपा हो या कांग्रेस, जब किसी को हटाना हो और शीर्ष नेतृत्व तय कर ले तो कोई मुख्यमंत्री या केंद्रीय मंत्री हो, कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन चुनाव की राजनीति, जाति के वोटों का गणित, जनता के बीच छवि,प्रशासनिक दक्षता,समय की नजाकत, विपक्ष इसे कितना भुनायेगा उसका आकलन और वैकल्पिक नाम का दल के भीतर योगदान,छवि और स्वीकार्यता जैसे अनेक मसले रहते हैं। ऐसे में मप्र भाजपा की राजनीति में इस समय तो ऐसे चमकदार चेहरे कम ही हैं, जो सारे मानकों पर खरे उतरें। शायद यही वो बड़ा कारण है, जब भी नेतृत्व परिवर्तन की बात चलती है तो विकल्प के अभाव में शिवराज सलामत रहते हैं।वे इस समय मप्र भाजपा में अकेले ऐसे नेता हैं, जो समान रूप से पूरे प्रदेश में जाने जाते हैं।
इस बार भारतीय जनता पार्टी के लिये 2023 के विधानसभा चुनाव काफी मायने रखते हैं। उसके एक साल बाद ही 2024 में आम चुनाव जो हैं। तब भाजपा के गढ़ माने जाने वाले मप्र में कोई जोखिम भाजपा नहीं ले सकती। विकल्प में चल रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया के पक्ष में कहा जाता है कि वे ही थे, जिन्होंने कांग्रेस से प्रदेश की सत्ता छीनकर भाजपा को सौंप दी। वे पूरे समय सभी को साधने के जतन भी कर रहे हैं। शिवराज जितनी न सही, लेकिन विजयराजे सिंधिया और माधवरावजी की राजनीतिक पृष्ठभूमि के कारण वे प्रदेश भर में पहचाने जाते तो हैं। केंद्र में कांग्रेस शासनकाल में मंत्री रहते हुए उन्हें प्रशासनिक अनुभव है। वे मप्र में भी कांग्रेस की ओर से चुनाव प्रचार प्रमुख की भूमिका निभाते हुए प्रदेश नाप चुके हैं। जनसंघ के समय से सिंधिया घराना संकट मोचक की भूमिका निभाता रहा है। ज्योतिरादित्य की दादी विजयाराजे सिंधिया का मप्र में जनसंघ और भाजपा को मजबूती देने में अतुलनीय योगदान रहा है। ऐसे में ज्योतिरादित्य का भाजपा में आगमन भी घर वापसी की तरह लिया गया, भले ही वे पहले कभी भाजपा में नहीं रहे । हाल ही में उनका कैलाश विजयवर्गीय,शिवराज सिंह चौहान,नरोत्तम मिश्रा,प्रहलाद पटेल से मिलना भी इस तरफ संकेत देता है, जैसे वे सबको मनाने में,अपने लिये समर्थन जुटाने में लगे हों। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रति भी समय-समय पर उनका मतंव्य और मुलाकातें मायने रखती हैं। वे नागपुर मुख्यालय जाकर सर संघ चालक मोहन भागवत से भी मिल चुके हैं। याने वे अब पूरी तरह से संघ और भाजपा के ही होकर रहना चाहते हैं, ये जाहिर किया है।
अब उनके विरोध में जो दलीलें दी जा रही हैं, वे भी कमजोर नहीं हैं। पहली तो यही कि राजसी पृष्ठभूमि की वजह से उनमें अभी-भी वही ठसक है। वैसे पिछले दो साल में उन्होंने अपने को बदलने की भरसक कोशिश की है, लेकिन मनुष्य अपने गुण सूत्र को कैसे छोड़ सकता है। फिर महज दो साल पहले पार्टी में आने वाले को मुख्यमंत्री बनाना भी एक रुकावट है ही। तीसरा,भाजपा की बुजुर्ग पीढ़ी, जो अब भी नीति निर्माण से लेकर तो संघ की संरचना में सक्रिय भूमिका निभाती है, वह सिंधिया को कैसे बरदाश्त करेगी? इतना ही नहीं तो भाजपा के ऐसे मौजूदा विधायक और मंत्री, जो खुद मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं, वे क्यों चाहेंगे कि सिंधिया के सिर सेहरा बंधे। यदि इन सारे अवरोधों से पार पा लिया जाये तो ही सिंधिया के नाम पर विचार किया जायेगा। यूं आलाकमान ने तय कर लिया तो किसी में इतनी हिम्मत तो नहीं कि उफ्फ कर सके।
इसके बाद राजनीतिक प्रेक्षक तो सबसे प्रबल दावेदार राष्ट्रीय महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय को मानते हैं, किंतु उनके खिलाफ भी काफी बातें आगे कर दी जाती है। वैसे तो उन्हें मुख्यमंत्री बनाये जाने का सबसे सही समय तो तब था, जब 2004 में हुबली कांड के बाद उमा भारती ने त्याग पत्र दे दिया था। तब भी जातिवाद के समीकरण में पिछड़े वर्ग के बुजुर्गवार बाबूलाल गौर का नाम आगे कर दिया। उन्हें हटाये जाने के बाद भी पिछड़ा वर्ग की राजनीति के तहत तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष शिवराज सिंह चौहान की ताजपोशी कर दी गई,जो अंगद के पैर की तरह दो खंडों में 15 साल की लंबी पारी खेलते हुए चार बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं।
कैलाशजी के हक में प्रमुख बात तो यह है कि प्रदेश के चप्पे-चप्पे तक उनकी पैठ-पहचान है। वे कुशल संगठक माने जाते हैं। संकट मोचक का निर्वाह भी कई बार कर चुके हैं। लोकप्रियता की राजनीति करने में उनका कोई सानी नहीं । आज भी जब वे किसी संवैधानिक पद पर नहीं हैं, इंदौर में सबसे अधिक भीड़ उनके घर मिलने के लिये जुटती है और वे खुले दिल से हरसंभव मदद भी करते हैं। उनकी धार्मिक पैठ भी जबरदस्त है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रति उनकी निष्ठा बरकरार है। ऐसे में उनके नाम को अभी खारिज तो नहीं किया जा सकता।
बचे नामों में नरोत्तम मिश्रा,गोपाल भार्गव,नरेंद्र सिंह तोमर,वी.डी.शर्मा दौड़ में तो हैं, लेकिन वे सिद्ध हस्त धावक नजर नहीं आते। नरोत्तम के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने दिल्ली में अपनी जमावट पूरी कर रखी है।वे यह बात वह कई बार साबित भी कर चुके हैं लेकिन प्रदेश में उनका प्रभाव चंबल क्षेत्र तक ही सीमित है। वैसे भी उन्हें जन नेता नहीं माना जाता है। ऐसे ही गोपाल भार्गव सागर से बाहर अजनबी ही हैं । प्रदेश में तो पहचान का जबरदस्त संकट है ही। नरेंद्र सिंह तोमर केंद्र में कृषि जैसे महत्वपूर्ण विभाग के मंत्री है और महत्वाकांक्षा से दूर रहते हैं। वैसे भी मुरैना में स्थानीय निकाय के चुनाव में भाजपा की पराजय ने उनकी हिम्मत में सेंध लगा दी है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष वी डी शर्मा की निगाहें तो हमेशा से मुख्यमंत्री पद पर टिकी हुई हैं, लेकिन वे भी स्थानीय निकाय चुनाव परिणामों की वजह से काफी पिछड़ गये हैं। यूं भी संगठन में भी वे कोई कमाल नहीं दिखा सके और ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देने के आरोपों के बीच उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की जोखिम आलाकमान नहीं लेना चाहेगा। अटकलें तो यहां तक है कि प्रदेश को नया अध्यक्ष भी मिल सकता है।ऐसे में शर्मा मुख्यमंत्री पद की लालसा छोड़ अध्यक्ष बने रहने की जुगत करना चाहेंगे।
राजनीति में जिस अस्थिरता,अनिश्चय और असमंजस का घेरा रहता है, वह इस समय मप्र भाजपा में काफी घना है। देखते हैं, कब कुहासा छंटता है और कौन-सी उम्मीद की किरण झांकती है।