क्या दिग्गी ने बिगाड़ा गेहलोत का खेल ?
राजनीति खुराफात का दूसरा नाम है।फिर बात यदि कसी तरह से मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह से जुड़ी हो तो कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना हो ही जाता है। उनका पहले खुद को भी अध्यक्ष पद का संभावित प्रत्याशी बताना, फिर यकायक यात्रा छोड़कर दिल्ली जाकर सोनिया गांधी से मिलना, उसके बाद लौटकर मप्र में आना् और कहना कि वे चुनाव नहीं लड़ेगे, किसी ग़़डबड़ झाले की ओर इंगित कर रहा था। कांग्रेस में होने जा रहे अध्यक्ष पद के चुनाव में जिस तेजी के साथ घटनाक्रम घूमा,उसने जहां गांधी परिवार को सकते में ला दिया, विपक्ष को पिल पड़ने का सामान दे दिया वहीं जनता में कांग्रेस के प्रति एक बार फिर अविश्वास का माहौल खड़ा कर दिया।इसने गांधी परिवार में बेचैनी,राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा की चमक फीकी कर दी। क्या यह सब किया-धरा दिग्गी राजा का तो नहीं है? कैसे,आइये, सिलसिलेवार देखते हैं।
राजस्थान में अब तो जो होना होगा, होता रहेगा और वैसा तो कुछ भी नहीं होगा, जैसा मुख्यमंत्री अशोक गेहलोत,सोनिया गांधी या वे 92 विधायक सोच कर चल रहे थे, जिन्होंने पता नहीं किस पिनक में इस्तीफे दे डाले थे। जब यह अंतिम रूप से तय हो गया कि गांधी परिवार का कोई सदस्य अध्यक्ष न बनेगा, न चुनाव लड़ेगा, तब संभावित नाम दौडने लगे। इससे पहले शशि थरूर ने जरूर खम ठोंक दिया था। फिर कांग्रेस के बड़े धड़े या यूं कहें कि गांधी परिवार की ओर से सर्वाधिक वफादार(जो कि कतई नहीं निकले) के तौर पर नाम घूमते-घूमते राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गेहलोत पर आ टिका। वे भी पहले राहुल की पद यात्रा में शामिल हुए, फिर सोनिया गांधी से मिलने दिल्ली भी जा पहुंचे।
वहां से निकलने के बाद गेहलोत ज्यादा उत्साहित नहीं थे। उसकी वजह यह रही होगी कि पहले गेहलोत ने कहा था कि वे राजस्थान के मुख्यमंत्री और पार्टी अध्यक्ष दोनों पद का दायित्व निभा लेंगे। तब तक वे इस मुगालते में थे कि गांधी परिवार संकट में है और दल में बगावत के मद्देनजर गैर गांधी को अध्यक्ष बनाना गांधी परिवार की मजबूरी है। ऐसे में वे यदि दोनों पदों को गेंद की तरह अपने हाथों में उछालने की शर्त भी रखेंगे तो आलाकमान हामी भर ही देगा। दरअसल, यह गेहलोत का भ्रम था। इस बारे में राहुल गांधी कह चुके थे कि एक व्यक्ति,एक पद का सिद्धांत बरकरार रहेगा। वैसे भी इस तरह के सिद्धांत तो गांधी परिवार ठुकराता तो चल सकता था, क्योंकि वह दल के हित में किया जाता। कोई गैर गांधी कैसे यह जुर्रत कर सकता था?
तब प्रहसन के परिदृश्य पर उभऱे दिग्विजय सिंह, जो राहुल के साथ भारत जोड़ो यात्रा में साथ चल रहे थे। तब उन्होंने अचानक दिल्ली जाने की घोषणा तो की ही, साथ ही जो कुछ कहा,उसका मतलब यही था कि वे भी अध्यक्ष पद के दावेदार हो सकते हैं। बहरहाल, वे दिल्ली पहुंचे और सोनिया से मिले भी। इसके बाद कांग्रेस की राजनीति में जो गरमी महसूस की जा रही थी, वो थोड़ी ठंडी पड़ गई, क्योंकि दिग्विजय सिंह ने चुनाव लड़ने से साफ मनाही कर दी। राजनीतिक प्रेक्षक समझ ही नहीं पाये कि दिग्गी राजा ने यूं अचानक यू टर्न क्यों ले लिया? यह ज्यादा समय तक रहस्य नहीं रह पाया। अब जो कहानी सामने आ रही है वह यह कि दिग्गी राजा को कभी चुनाव लड़ना ही नहीं था। वह तो अशोक गेहलोत की हवा निकालने की रणनीति थी, जो कुछ इस तरह से कामयाब रही कि गेहलोत के हाथ से अभी तो तोते उड़े नजर आ रहे हैं। अब उनका अध्यक्ष बनना तो दूर की बात है, मुख्यमंत्री पद चलाचली में आ गया।
हुआ कुछ ऐसा कि सोनिया और राहुल के यह कह देने के बावजूद कि एक व्यक्ति,एक पद का सिद्धांत लागू होगा, गेहलोत को लगा कि जिस तरह से राष्ट्रीय स्तर पर उनका नाम अधिकृत उम्मीदवार के तौर पर सामने आ चुका है, अब आलाकमान की विवशता होगी उन्हें ही चुनाव लडाना। ऐसे में सीधे तौर पर खुद मुख्यमंत्री बने रहने की बात न करते हुए सचिन पायलट का रास्ता रोकने की तुरुप चाल के तौर पर अपने समर्थकों के इस्तीफे दिलवा दिये जायें, ताकि आलाकमान को यह लगे कि राजस्थान की सत्ता बरकरार रखना है तो गेहलोत को मुख्यमंत्री भी बना्ये रखना होगा। लेकिन,ऐसा हो नहीं पाया और राजस्थान के 92 विधायकों की बगावत के खिलाफ देश के कांग्रेसजन बागी हो उठे और गांधी परिवार की भृकुटि तन गई सो अलग।
इस पूरे मसले में दिग्विजय सिंह कहां से आ गये? यह तो सर्व विदित है कि जब देश में कांग्रेस बेहद मुश्किल में थी और दिग्विजय सिंह लगभग अकेले मुख्यमंत्री थे, जो कांग्रेस के लिये कोष से लेकर तो नैतिक समर्थन तक जुटा रहे थे। 1998 में सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने के साथ ही चुनौतियों का सामने अंबार लगा था। दिग्गी तब से सोनिया के साथ मजबूती से खड़े रहे हैं। राहुल को राजनीति में पारंगत करने के लिये भी काफी हद तक उन्हें जवाबदार माना जाता रहा है, सच-झूठ अलग बात है। ऐसे में जब गेहलोत की मंशा दोनों हाथ में लड्डू रखने की हुई तो संभवत किसी इशारे पर ही पहले तो उन्होंने अपनी भी उम्मीदवारी घोषित की, फिर दिल्ली जाकर सोनिया से मिलने को इस सिलसिले के आगे बढ़ने का क्रम माना गया। जबकि संभव है,उन्होंने एक व्यक्ति एक पद की पैरवी कर गेहलोत पर अंकुश का संकेत दिया हो।
यह सब होने तक भी दिग्गी राजा या आलाकमान को शायद यह अंदाज नहीं रहा हो कि वफादार समझे जाने वाले गेहलोत इतनी बचकाना हरकत करेंगे कि पायलट को नापसंद करने के नाम पर अपने समर्थक विधायकों से बगावत करायेंगे और आलाकमान पर दबाव डालकर मुख्यमंत्री बने रहने की जुगत भिड़ायेंगे। यदि दोनों पद न भी रख पाये तो अध्यक्ष की दावेदारी छोड़कर मुख्यमंत्री पद पर बने रहने की सौदेबाजी कर लेंगे। लेकिन इसे ही कहते हैं कि माया मिली न राम या दुबे जी, चौबे जी बनने चले थे, लेकिन बन गये छब्बेजी। राजनीति में पद की लालसा उस काम वासना की तरह हो जाये, जिसमें व्यक्ति नियंत्रणविहीन होकर निकृष्टतम स्तर पर जाकर भी पेश आने को तैयार हो तब वह अशोक गेहलोत हो जाता है।
बुढ़ा रहे अशोक गेहलोत दरअसल यह भूल गये कि जनता द्वारा खारिज कर दिये जाने के बावजूद वे गांधी परिवार की मेहरबानी से 2018 में मुख्यमंत्री बने थे, वरना तो तब अधिसंख्य विधायक भी सचिन पायलट के समर्थन में थे। गेहलोत के इस गेलेपने का जबरदस्त नुकसान कांग्रेस को होना ही है। राजस्थान में वह जनता की नजरों से गिरी ही है। विपक्ष को उठ खड़े होने का अच्छा मौका मिल गया है। सचिन के बगावत करने की राह आसान हो गई है,भले ही वे अभी ऐसा कोई फैसला न ले और अगले साल विधानसभा चुनाव के वक्त अलग दल बना ले या भाजपा में चले जायें, जिसकी लगातार कोशिशें हो ही रही हैं। इस घटना का काला साया राहुल गांधी की यात्रा पर भी पड़ेगा ही। पता नहीं क्यों कांग्रेस पर से शनि की साढ़े साती हटने का नाम ही नहीं ले रही।