‘एक बात कहनी है। भ्रष्टाचार कम करने/ समाप्त करने के लिये संबंधित अधिकारी की अकाउन्टबिल्टी (जवाबदेही) तय करना और समय सीमा तय करना जरूरी है।‘ ये कहना है उत्तर प्रदेश के एक पूर्व वरिष्ठ अधिकारी का। वो ‘झूठ बोले कौआ काटे’ के फैन हैं। अपने एक निजी मामले का जिक्र करते हुए उन्होंने अपेक्षा की कि इस बार भ्रष्टाचार पर केंद्रित कॉलम लिखूं। बोले तो, ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की 2022 की शुरूआत में जारी वैश्विक भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक रिपोर्ट में 180 देशों में भारत 85 वें स्थान पर है।
तो, ‘झूठ बोले कौआ काटे’ के दूसरे वर्ष में प्रवेश का प्रांरभ भी समाज की इस घातक बीमारी ‘भ्रष्टाचार’ पर चर्चा से ही। सिंचाई विभाग के अधीक्षण अभियंता पद से सेवानिवृत्त के. पी. सिंह जी बताते हैं, ‘2019 में हम तीन भाइयों ने धारा 116 (राजस्व संहिता) में एसडीएम चौरीचौरा के न्यायलय में आवेदन किया है।‘ बता दूं कि यदि आप की कृषि भूमि उत्तर प्रदेश में है जिसमें आप के साथ उस भूमि में आप के अतिरिक्त और भी सह खातेदार है तथा आप चाहते है कि आप के हिस्से की भूमि अलग हो जाए तथा राजस्व अभिलेखों में आपका अलग नाम अंकित हो जाए या आप संयुक्त कृषि भूमि या खेत का बटवारा करवाना चाहते है तो उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता की धारा 116 के अंतर्गत ही आवेदन दिया जाता है।
खैर, श्री सिंह का कहना है, ‘सबके नाम जमीन है। एक भाई को बोल दिये थे कि आप खेती से अपने दायित्वों को पूरा कर लो। उनका सारा काम हो गया। अब खेत से न तो अनाज देते हैं, न खेती करने देते हैं। मैंने झगड़ा टालने के लिये कहा कि एसडीएम के यहां जाओ। चार साल हो गया। रेजल्ट जीरो। IGRS (समन्वित शिकायत निवारण प्रणाली, उप्र) का भी टालू जवाब आ जाता है।‘
व्यवस्था से दुखी श्री सिंह सवाल उठाते हैं, ‘सिस्टम्स कैसे इफेक्टिव हों? इसका उपाय जरूरी है। विभागों की कार्यशैली ऐसी ही है।‘ सुझाव भी देते हैं, ‘सड़क यदि टूट रही है तो उसकी वसूली सभी से हो। अधिकारी-कर्मचारी सबसे। बाबू वर्ग नियंत्रणहीन होता है। उस पर लगाम कभी लगती नहीं।‘
पिछले दिनों मैंने ‘हर घर तिरंगा’ अभियान में तिरंगे की बिक्री में डाक विभाग की धोखाधड़ी का मामला उठाया था। भुक्तभोगी भी मैं स्वयं था। न डाक विभाग ने तिरंगा भेजा, न पैसा लौटाया, न ही विभाग या किसी मंतरी-संतरी ने शिकायत पर गंभीरता से घपले की आज तक नोटिस ली। राष्ट्रीय उपभोक्ता फोरम ने ऑनलाइन शिकायत के लगभग डेढ़ माह पश्चात ‘डिस्पोज्ड’ लिख कर पल्ला झाड़ लिया। अरे भाई, आदेश में है क्या, ये कौन बताएगा, कैसे पता चलेगा ? औऱ यदि, ऑनलाइन आऱटीआई के चक्कर में फंसे तो नानी याद आ जाएगी। आवेदन फाइल करने में आ रही समस्या की शिकायत करो, तो कुछ का कुछ जवाब देंगे। दोबारा बताओ, तो रट्टू तोता की तरह फिर वही जवाब दोहरा देंगे।
देवरिया के गरूलपार की शशि श्रीवास्तव हों या गोमती नगर, लखनऊ की नीली श्रीवास्तव दोनों भू-माफियाओं की धोखाधड़ी के शिकार हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें ये लगता है कि मैं बड़ा पॉवरफुल व्यक्ति हूं, योगी जी तक पहुंचा सकता हूं उनकी पीड़ा। कौन समझाए कि योगी जी सीएम हैं, 50 जिम्मेदारियां हैं। फिर, उनका अमला जब तक मिलवाएगा नहीं बात आगे बढ़ेगी कैसे ? सो, मैंने दो ही रास्ते सुझाए, एफआईआर और जनता दरबार। फिलहाल, मेरे स्तर पर जो संभव था, वो भी मैंने कर दिया। शायद, सिस्टम के कान पर जूं रेंग ही जाए।
भ्रष्ट सिस्टम की कलई खोलता है इंडियन करप्शन सर्वे-2019 की रिपोर्ट का यह रोचक प्रसंग। मुजफ्फरपुर के एक युवक ने बिहार के मुख्यमंत्री से शिकायत की थी कि रजिस्ट्रार कार्यालय में भू-अभिलेखों की सर्टिफाइड कॉपी उपलब्ध कराने के लिए दस हजार रुपये की मांग की जाती है। युवक ने कहा, “जब मैंने कर्मचारियों से मुख्यमंत्री से शिकायत करने की बात कही तो उन्होंने कहा कि सीएम-पीएम, जिसके पास जाना चाहो, जाओ। हमारा कुछ नहीं बिगड़ने वाला।” तब, बिहार रिपोर्ट में दूसरे नंबर पर था। यहां 75 प्रतिशत लोगों ने स्वीकार किया था कि उन्हें अपना काम करवाने के लिए रिश्वत देनी पड़ी थी।
सुप्रीम कोर्ट के चर्चित वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने 2019 में इंडिया टुडे की ‘मेवा लाओ, सेवा पाओ’ शीर्षक रिपोर्ट में गाजियाबाद विकास प्राधिकरण (जीडीए) के एक ओएसडी से अपनी दिलचस्प बातचीत का जिक्र किया था।
उपाध्याय के अनुसार, ”मैंने उस ओएसडी से पूछा कि मकान में आगे-पीछे जगह खाली है तो 9X12 फुट का कमरा बनाने की क्या जरूरत थी। 10X12 फुट का बना लेते। इस पर ओएसडी ने कहा, ”अगर ऐसा कर देते तो आप उसको तुड़वाते कैसे।
आप आराम से रहते और हमारे पास आते क्यों?” डिजाइन के दौरान ही प्राधिकरणों में तैयारी हो जाती है कि ऐसा नक्शा बनाओ जिसमें लोग तोडफ़ोड़ कराएं। दोबारा नक्शा पास कराएंगे और जाहिर है अफसर पैसा भी कमाएंगे।”
उपाध्याय कहते हैं, ”हमारे यहां करप्शन डिजाइन किया जाता है और बाद में वह रूटीन हो जाता है। हमारे यहां जो पॉलिसी बन रही हैं वे करप्शन को डिजाइन करती हैं।” ऐसा इसलिए भी होता है कि प्राधिकरण को अपने बनाए मकान के नक्शों को कहीं से सत्यापित नहीं कराना पड़ता।
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की मार्च 2018 में आई जेंडर डायमेंशंस ऑफ करप्शन रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 54 फीसदी महिलाओं को सरकारी सेवाएं हासिल करने के लिए घूस देनी पड़ी है। 35 फीसदी महिलाओं ने कहा कि उनसे सरकारी सेवाओं के बदले में में घूस मांगी गई। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के 2010-11 के दक्षिण एशियाई देशों में किए गए सर्वेक्षण के नतीजे बताते हैं कि भारत में पुलिस और राजनैतिक दल सबसे भ्रष्ट हैं। लेकिन इस मामले में अदालतें भी पीछे नहीं हैं।
ताजा उदाहरण है इलाहाबाद हाईकोर्ट की प्रशासनिक कमेटी द्वारा भ्रष्टाचार के आरोप में हाईकोर्ट में ही तैनात महिला सेक्शन ऑफिसर को नौकरी से बर्खास्त करना और प्रयागराज के अतिरिक्त जिला न्यायाधीश को निलंबित कर आधी रात को उनका चेंबर सील करा देना।
झूठ बोले कौआ काटेः
अब सोचिए, एक आम आदमी, गांव-देहात के भोलेभाले, गरीब या अनपढ़ व्यक्ति की क्या हालत होती होगी। कुछ माह पूर्व किये गए एक सर्वे पर आधारित रिपोर्ट के अनुसार, भारत में अधिकतर नागरिक (63 फीसदी) मानते हैं कि अगर वे पुलिस के पास भ्रष्टाचार की रिपोर्ट करते हैं तो उन्हें परेशान किया जाएगा या उनसे बदला लिया जाएगा। इसी तरह 89 फीसदी लोगों को लगता है कि सरकारी भ्रष्टाचार एक बड़ी समस्या है। 18 प्रतिशत लोगों ने बताया कि उनसे जनप्रतिनिधियों ने वोट के बदले रिश्वत की पेशकश की और 11 प्रतिशत बदले में यौन संबंध रखने या ऐसा करने वाले किसी व्यक्ति को जानते हैं।
सर्वेक्षण के अनुसार, लगभग 63 प्रतिशत लोगों का मानना है कि भ्रष्टाचार से निपटने में सरकार अच्छा काम कर रही है, जबकि 73 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उनकी भ्रष्टाचार विरोधी एजेंसी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में अच्छा प्रदर्शन कर रही है।
भारत 2021 के वैश्विक भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक में 1 पायदान ऊपर चढ़ा है और 180 देशों में इसका स्थान 85वां है। वहीं पाकिस्तान 16 पायदान नीचे गिर कर 140वें स्थान पर है। जबकि, बांग्लादेश का स्थान 147वां है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में भ्रष्टाचार का स्तर स्थिर है तथा 86 प्रतिशत देशों ने पिछले 10 वर्षों में बहुत कम या कोई प्रगति नहीं की है।
ऐसे में सवाल उठता है कि पूरे सिस्टम में फैल चुके इस भ्रष्टाचार को खत्म कैसे किया जाए? अगर एक आम आदमी चाहे तो क्या वह भ्रष्टाचार के बिना आगे बढ़ सकता है? वैसे भ्रष्टाचार को खत्म करने में अगर सभी का साथ मिले तो यह असंभव सा दिखने वाला काम संभव भी हो सकता है।
सर्वविदित है कि हर सरकारी कर्मचारी के लिए कुछ निश्चित कार्य करना उसकी जिम्मेदारी है। लेकिन वह कर्मचारी जब उसके बदले पैसे या वस्तु अपने लिए लेता है या किसी और के लिए तो वह रिश्वत लेने का अपराध करता है। सरकारी कर्मचारी पक्षपात करने के लिए भी रिश्वत ले सकता है। ऐसी स्थिति में रिश्वत देनेवाले का अपराध रिश्वत लेने वाले के अपराध से कम नहीं होता है।
अगर सिविल सोसायटी तय कर ले कि हम किसी भी काम के लिए रिश्वत नहीं देंगे तो तुरंत भ्रष्टाचार का ग्राफ नीचे आ जाएगा लेकिन इससे पहले सिविल सोसायटी को भी अपने अंदर झांककर देखना होगा कि हम जिस काम के लिए सरकारी दफ्तर में जाते हैं वह नियमानुकूल है भी या नहीं। बात यहीं आकर फंस जाती है।
76वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी के खिलाफ लड़ाई में देशवासियों का साथ यूं ही नहीं मांगा था। उन्होंने भ्रष्टाचार के विरूद्ध इस मुहिम में नोटबंदी ही नहीं, मंत्रालय में दलालो और पीएम के सरकारी दौरों में पत्रकारों पर रोक, सरकार में पत्रावली ओर फाइल का कार्य ऑनलाइन करना, मंत्रियों के रिश्तेदार ओर अन्य को मंत्रालय में मंत्री का व्यक्तिगत स्टाफ बनाने पर रोक, अधिकारिओं के लिये भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेन्स की नीति, अधिकतर खरीदारी ऑनलाइन टेंडर करना, डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर (यानी सीधे लाभार्थी के खाते में पैसा पहुंचने की स्कीम) जैसे उपाय भी किये हैं।
पीएम का कहना है, ‘कई लोगों को जेलों में जीने के लिए मजबूर करके रखा हुआ है, हमारी कोशिश है कि जिन्होंने देश को लूटा है, उनको (भारत) लौटना पड़े, वह स्थिति हम पैदा करेंगे।’ सही है मोदी जी आप डंडा चलाइये, कैसे नहीं रूकेगा भ्रष्टाचार !
औऱ ये भी गजबः
अमेरिकी समाजशास्त्री पॉल आर ब्रास ने 1966 में ही एक सर्वे के बाद यह लिख दिया था कि ‘भारत में भ्रष्टाचार की शुरुआत आजादी के बाद के सत्ताधारी नेताओं ने ही कर दी थी। उससे पहले ब्रास ने उत्तर प्रदेश में रह कर भ्रष्टाचार की समस्या का गहन अध्ययन किया था।
प्रसंगवश जिक्र जरूरी है कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के बारे में चर्चित है कि भ्रष्ट राजनीतिज्ञों को बचाने के लिए कभी-कभी वो बड़ी अजीबोगरीब दलीलें दिया करते थे। 1960 के दशक के शुरुआती सालों में कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने टिप्पणी की थी, ”पिछले पांच सालों में जहां 44 हजार सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत, भ्रष्टाचार आदि के मामले में दंड मिल चुका है, वहीं एक भी मंत्री को कानून का सामना नहीं करना पड़ा। नेहरू ने ऐसे मंत्रियों के नाम तक जानने की कोशिश नहीं की, इसके बजाय दलील दी कि मैंने ईमानदार लोगों के साथ मिलकर काम करने की कोशिश की है। ये जिन दो-तीन मंत्रियों का जिक्र तुमने किया है, मुझे पता है कि वे भ्रष्ट हैं लेकिन वे कुशल हैं और देश की तरक्की के लिए मैं यह कीमत भी चुकाने को तैयार हूं।