गांधी परिवार का माइंड गेम है अध्यक्ष का चुनाव

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अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस(इंदिरा)के अध्यक्ष पद के लिये हुए हालिया चुनाव को गांधी परिवार का बेहतरीन माइंड गेम कहा जा सकता है। किसी को होती हो तो होती रहे,मुझे कोई गलतफहमी नहीं है कि ये कोई कांग्रेस में लोकतांत्रिक दौर याने गैर गांधी वाद की शुरुआत है। जब तक कांग्रेस है और जब तक कथित गांधी परिवार का कोई न कोई राजनीतिक वारिस है, तब तक कांग्रेस में लोकतंत्र की आशा करना रेगिस्तान में समंदर के लहराने जैसा है। फिर वारिस भी जरूरी नहीं कि वह सीधे तौर पर गांधी ही हो। वह वाड्रा भी हो सकता है। ठीक वैसे ही, जैसे ये गांधी परिवार भी वास्तविक गांधी परिवार नहीं है। गांधी तो मोहनदास करमचंद ही थे, जिनकी कांग्रेस तो स्वतंत्रता मिलने के साथ ही समाप्त हो गई थी। ऐसी उनकी मंशा भी थी। जैसा उन्होंने अपनी वसीयत में लिखा भी था। उसके बाद तो वह नेहरू कांग्रेस रही तो कभी इंदिरा कांग्रेस तो कभी राजीव कांग्रेस और अब सोनिया कांग्रेस। मौजूदा कांग्रेस तो वैसे भी इंदिरा कांग्रेस ही है। यह वैसे ही है जैसे फिल्मों में बॉडी डबल होते हैं। याने परदे पर जो अमिताभ बच्चन 5-10 गुंडों से लड़ते हुए दिखाया जाता है, वह लड़ाई तो नकली होती ही है, वह अमिताभ भी कोई हमशक्ल होता है, हरिवंश राय बच्चन का बेटा नहीं।

     यूं देखे तो पिछले कुछ अरसे से कांग्रेस देश भर में चर्चा में है। यह रणनीति का हिस्सा है या अनायास है,नहीं पता, किंतु फायदा तो कांग्रेस को हो रहा है। पहला राहुल की भारत जोड़ो यात्रा से तो दूसरा अध्यक्ष पद के चुनाव और प्रत्याशी चयन के लिये चली मशक्कत से। पहले इस बात के लिये जद्द‌ोजहद चली कि अध्यक्ष का चुनाव हो या नहीं, क्योकि कांग्रेसी किसी गांधी को ही अध्यक्ष चाहते रहे और वे कोई तैयार नहीं थे। तब जाकर चुनाव का प्रहसन खेला गया। यह आज भी कांग्रेस की कल्पना से बाहर है कि कोई गैर गांधी अध्यक्ष बने और शेष धुरंधर कांग्रेसी उसे स्वीकार भी कर लें। उन्हें गांधी कोई भी मंजूर है। न उम्र का बंधन, न अनुभव का तकाजा। बस नाम ही काफी है। राहुल-सोनिया न बनने पर अडिग रहे तो प्रियंका का नाम भी नहीं चला। यह थोड़ी जल्दबाजी हो जाती। वे आधी-अधूरी गांधी जो हैं।

     शशि थरूर के अलावा कोई नाम पहले दिन से स्पष्ट नहीं रहा। इस दुविधा ने कांग्रेस को चर्चा में बनाये रखा । सबसे पहले अशोक गहलोत का नाम आना,फिर उनका यह दुराग्रह सामने आना कि वे मुख्यमंत्री व अध्यक्ष दोनों बने रहेंगे। जिससे गांधी परिवार का असहमत होना । फिर गांधी परिवार के हनुमान माने जाने वाले मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का भारत जोड़ो यात्रा के बीच से दिल्ली जाकर दावेदारी प्रस्तुत करना, लेकिन इनकार होने पर वापस यात्रा में लौटना। फिर गहलोत की विश्वसनीयता के संदिग्ध होने पर दिग्गी का फिर दिल्ली कूच करना, नामांकन लेना व जमा करने से पहले मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम अधिकृत प्रत्याशी के तौर पर आना तो दिग्गी का मैदान छोड़ देना, सब कुछ जैसे तयशुदा कथानक की तरह चलता रहा। यदि ऐसा नहीं मानें तो फिर यह मानना पडेगा कि दिग्विजय सिंह तो गांधी परिवार के प्रति निष्ठावान बने रहे, लेकिन गांधी परिवार ने उन पर भरोसा नहीं किया।

     अंतत: चुनाव हुए और सुनिश्चित नतीजा सामने आया,खड़गे जीत गये। जितेंद्र प्रसाद की तुलना में शशि थरूर को दस गुना ज्यादा मत मिले। यह भी कांग्रेस में अच्छा संकेत तो है। यह कि गांधी परिवार के प्रति अब एकतरफा समर्थन नहीं है। बावजूद इसके कि उसे हाल-फिलहाल कोई चुनौती नही है। कहा जा रहा है कि गांधी परिवार ने किसी को भी अपना प्रत्याशी नहीं माना था। तो इसका मतलब यह है कि कांग्रेसियों ने अस्सी वर्षीय बुजुर्ग को अपना नेता स्वेच्छा से चुना है, जो नरेंद्र मोदी,भाजपा से तो निपटने में सक्षम है ही, साथ ही देश में जिसकी चमकदार छवि है, युवाओं में लोकप्रिय है,पूरे देश में सर्व स्वीकार्य है। गैर भाजपा विपक्ष को एकजुट करने में सक्षम है। धारा प्रवाह भाषण दे सकता है। वगैरह-वगैरह। क्या यह सूरज की रोशनी में दूज के चांद को ढूंढने जैसा नहीं है?

     अब बात गांधी परिवार के माइंड गेम की। वैसे तो किसी भी व्यवस्था में चापलूस काफी पसंद किये जाते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि इस बार गांधी परिवार को कोई ईमानदार सलाहकर मिल गया है और गांधी परिवार उनकी बात-सलाह मान भी रहा है। यह तो हम जानते ही हैं कि 2014 के बाद से कांग्रेस रसातल की ओर ही खिसक रही है। किसी गांधी का करिश्मा काम नहीं कर रहा। अब गरीबी हटाओ,आरक्षण,तुष्टिकरण जैसा कोई पारंपरिक चुनावी नारा काम नहीं आ रहा। कोई मोहिनी सूरत मोहपाश में नहीं बांध पा रही। किसी तरह की सहानुभूति बची नहीं । मुद्द‌ों को तलाशने लायक सामर्थ्य नहीं बचा, वाक पटुता है नहीं, भाषण कला तो दूर की बात हिंदी में ही हाथ इतना तंग है कि थोड़ा सा भाषा कौशल दिखाने जाते हैं तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है। दो लोकसभा और अनगिनत विधानसभा चुनाव में कांग्रेस अपनी इज्जत तार-तार होने से रोक नहीं पा रही थी। ऐसे में अध्यक्ष बनने भर से तो लड्‌डू मिलने से रहे। तब क्यों न ऐसा मुखौटा तलाशा जाये , जिसकी शक्ल केवल खुद की हो, बाकी जबान,दिमाग,विचार,नीति अपनी ही रहे तो खड़गे से बेहतर शायद ही कोई मिलता। दिग्विजय सिंह आज्ञाकारी तो पर्याप्त होते, लेकिन खुद की लकीर खींचने से भला कहां मानने वाले थे।शशि थरूर जैसा वाचाल प्राणी काबू में आने से रहा। अशोक गहलोत ने युद्ध से पहले योद्धा सी बहादुरी और हिम्मत दिखाने की बजाय अपनी जान की सलामती और रियासत बरकरार रखने की गांरटी मांग ली।

      ऐसे में गांधी परिवार की नजर खड़गे पर आ टिकी, जो शून्य महत्वाकांक्षी,निर्विवाद,गैर हिंदी भाषी होने से देश में कमतर पहचान वाले जैसे तमाम गुणों से भरपूर होने की वजह से सर्वथा उपयुक्त थे। कुल नौ हजार मतदाताओं मे से 7 हजार से अधिक मत पाने वाले खड़गे फिर भी कांग्रेस के सर्व सम्मत और गांधी परिवा्र की छाया से मुक्त छवि वाले माने जाते हैं या प्रचारित किये जाते हैं तो इस पर कोई रोक-टोक तो है नहीं ।

     अब जो होने वाला है वह स्पष्ट है। इस साल दो व अगले साल करीब 8 राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं। इसके बाद 2024 में लोकसभा चुनाव हैं। इस बीच में कोई आसमानी सुल्तानी नहीं हुई तो गांधी परिवा्र हार के ठीकरे से बचा रहेगा। कोई यह दावा करने की स्थिति में नहीं है कि कांग्रेस इन विधानसभा चुनावों में और फिर लोकसभा में कोई गुल खिला सकेगी। ऐसे में 2024 या 2025 में एक बार फिर से मुहिम चलेगी कि अध्यक्ष तो गांधी परिवार का ही चाहिये। तब फिर से कुछ दशकों के लिये गांधी परिवार के पास कांग्रेस का पट्‌टा् आ जायेगा। गांधी परिवार के इस माइंड गेम की तारीफ तो बनती है।