Hingot War : हिंगोट युद्ध में बरसे देसी रॉकेट, सात यौद्धा जख्मी!

 

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Hingot War : हिंगोट युद्ध में बरसे देसी रॉकेट, सात यौद्धा जख्मी!

Indore : करीब 55 किलोमीटर दूर गौतमपुरा कस्बे में धार्मिक परंपरा से जुड़ा हिंगोट युद्ध हुआ। बुधवार देर रात तक ‘तुर्रा’ और ‘कलंगी’ दल के योद्धा आमने-सामने युद्ध करते रहे। 1984 में दिल्ली में हुए ‘मालवा कला उत्सव’ में विशेष आमंत्रण पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सामने तुर्रा व कलंगी दल के योद्धाओं ने इसका प्रदर्शन किया था। करीब 16 योद्धाओं को दिल्ली ले जाया गया था। दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में करीब एक घंटे इसका प्रदर्शन किया गया था।

यह हिंगोट युद्ध दिवाली की धार्मिक परंपरा से जुड़ा है। इसमें दो सेनाएं एक-दूसरे पर ख़ास तरह के हिंगोट रॉकेट से हमले करते हैं। हिंगोट युद्ध को देखने के लिए रतलाम, उज्जैन, इंदौर सहित कई जिलों से लोग पहुंचे। बुधवार को हिंगोट युद्ध में सात योद्धा मामूली रूप से झुलस गए। मौके पर मौजूद चिकित्सा दल ने प्राथमिक उपचार देकर उनके घर रवाना किया।

कोरोना के कारण दो साल हिंगोट युद्ध नहीं हुआ। इस बार यह फिर शुरू किया गया। इस बार लोगों ने जमकर एक-दूसरे पर हिंगोट फेंके। युद्ध देखने के लिए हजारों लोग पहुंचे। ‘तुर्रा’ और ‘कलंगी’ दल के योद्धा सिर पर साफा, कंधे पर हिंगोट से भरे झोले, हाथ में ढाल और जलती लकड़ी लेकर बुधवार दोपहर 4 बजे मैदान में निकल पड़े। भगवान देवनारायण मंदिर में दर्शन कर मैदान में आमने-सामने खड़े हुए। संकेत मिलते ही युद्ध शुरू हुआ। हिंगोट युद्ध परंपरा का हिस्सा है। इसमें भाग लेने वाले योद्धाओं को भी नहीं पता कि इसकी शुरूआत कब और कैसे हुई।

अनुविभागीय मजिस्ट्रेट (एसडीएम) रवि वर्मा ने यह जानकारी दी। उन्होंने बताया कि बड़ी तादाद में उमड़े दर्शक हिंगोट युद्ध के गवाह बने। इनकी सुरक्षा के लिए प्रशासन ने पुलिस के साथ मिलकर हिंगोट युद्ध स्थल पर जरूरी इंतजाम किए थे। उन्होंने दावा किया कि हिंगोट युद्ध में कोई भी दर्शक जख्मी नहीं हुआ।

 

क्या होता है ‘हिंगोट’

हिंगोट आंवले के आकार वाला एक जंगली फल होता है। गूदा निकालकर इस फल को खोखला कर लिया जाता है। फिर इसे सुखाकर इसमें खास तरीके से बारूद भरी जाती है। नतीजतन आग लगाते ही यह रॉकेट जैसे पटाखे की तरह बेहद तेज गति से छूटता है और लम्बी दूरी तय करता है। पारम्परिक हिंगोट युद्ध के दौरान गौतमपुरा के योद्धाओं के दल को ‘तुर्रा’ नाम दिया जाता है! जबकि, रुणजी गांव के लड़ाके ‘कलंगी’ दल की अगुवाई करते हैं। दोनों दलों के योद्धा रिवायती जंग के दौरान एक-दूसरे पर जलते हिंगोट दागते हैं।

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हिंगोट युद्ध में हर साल कई लोग झुलसकर घायल होते हैं। गुजरे बरसों के दौरान इस पारम्परिक आयोजन में गंभीर रूप से झुलसने के कारण कुछ लोगों की मौत भी हो चुकी है। माना जाता है कि प्रशासन हिंगोट युद्ध पर इसलिए पाबंदी नहीं लगा पा रहा है क्योंकि इससे क्षेत्रीय लोगों की धार्मिक मान्यताएं जुड़ी हैं।

युद्ध की शुरुआत 

पड़वा के दिन दोपहर में तुर्रा (गौतमपुरा) और कलंगी (रूणजी) के निशान लेकर दो दल मैदान में पहुंचते हैं। सजे-धजे ये योद्धा कंधों पर झोले में भरे हिंगोट, एक हाथ में ढाल व दूसरे में जलती बांस की कीमची लिए नजर आते हैं। योद्धा सबसे पहले बड़नगर रोड स्थित देवनारायण मंदिर के दर्शन करते हैं। इसके बाद मंदिर के सामने ही मैदान में एक-दूसरे से करीब 200 फीट की दूरी पर दोनों दल आमने-सामने आ जाते हैं।

गौतमपुरा के तुर्रा दल द्वारा जलता हुआ हिंगोट रूणजी के कलंगी दल पर फेंकने के साथ ही इस युद्ध की शुरुआत हो जाती है। जैसे ही हवा में एक रॉकेट चलता है, योद्धा एक-दूसरे पर जलते हिंगोट फेंकने शुरू कर देते हैं। अंधेरा होने तक चलने वाले युद्ध चलता है। जैसे ही अंधेरा होता है युद्ध समाप्त कर दिया जाता है।