सुनाक के पीएम बनने की खुशी से दुखी होने वाले भी कम नहीं

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सचमुच भारत बेजो़ड़ है। यहां के लोग बेमिसाल हैं। यहां भाषा,भूषा,बोली-खान-पान,आहार-विहार,विचार ही अलग नहीं हैं, बल्कि खुश व दुखी होने के मुद्दे भी भिन्न-भिन्न हैं। अब ऋषि सुनाक के ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने की बात को ही ले लीजिये। इससे भारत में आम तौर पर प्रसन्नता है तो कुछेक लोग ऐसे भी हैं,जिनका पेट महज इसलिये दुख रहा है कि कोई सुनाक के पीएम बनने पर खुश क्यों है? बजाय इस अवसर को भारत के लिये नाम को ही सही, यदि किसी तरह का आनंद महसूस किया जा सकता हो तो आप विचलित क्यों हो रहे हैं? कांग्रेस जहां अल्पसंख्यकों की राजनीति पर उतर आई है तो कतिपय पत्रकार,बुद्धिजीवी इस पर बहस छेड़े हुए हैं कि सुनाक भारतीय नहीं ब्रिटिश है तो इसमें भारत के खुश होने जैसा क्या है? तो कुछ यह राग फिर से आलापने लग गये कि यदि सुनाक को भारतीय लोग ब्रिटेन का प्रधानमंत्री स्वीकार कर रहे हैं तो उन्हें सोनिया गांधी से क्या पेरशानी है? याने कुतर्कों की काठ की हांडी एक बार फिर से राजनीति के चूल्हे पर चढ़ा दी गई है, जिसका हश्र ही जल कर राख हो जाना है।

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इस मसले को सिलसिलेवार देखते हैं। कहा जा रहा है कि ऋषि सुनाक का डीएनए आंग्ल है, भारतीय नहीं। ये लोग भूल रहे हैं कि ऋषि के दादा-दादी,माता-पिता भारतीय ही हैं। तब ऋषि का डीएनए आंग्ल कैसे हो सकता है ? कुछ को लगता है कि जिस तरह से भारत में वीपी सिंह,चंद्रशेखर,एच डी देवेगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने थे, वैसे ही सुनाक भी बने हैं तो इसमें अनोखी बात नहीं है। तौबा ऐसी राजनीतिक समझ की। सुनाक पहली बार पीएम इसलिये नहीं बना पाये कि प्रत्येक दौर में कंजरवेटिव पार्टी की प्रक्रिया में सफलता पाने के बाद आखिरी दौर में हारे थे, जब कंजरवेटिव पार्टी के करीब पौने दो लाख सदस्यों में उन्हें बहुमत नहीं मिला था। इस बार कंजरवेटिव सासंदों के बहुमत से वे इस पद पर पहुंचे हैं। 357 सांसदों में से 193 उनके पक्ष में और केवल 26 उनके विरोधी के। 58 बोरिस जॉनसन के साथ थे, लेकिन बोरिस ऐन वक्त मैदान से हट गये थे। यह कोई आम चुनाव नहीं था, जहां सीधे जनता प्रधानमंत्री चुनती है । तब वही तो होगा, जो वहां की तयशुदा प्रक्रिया होगी। वे भारत के असंतुष्टों से राय-मशवरा करने से तो रहे। एक प्रतिक्रिया आई कि सुनाक कोई गरीब तो हैं नहीं, जो खुश हुआ जाये। याने प्रधानमंत्री बनने के लिये गरीबी बड़ी योग्यता है? या फिर यह सोच कि अमीर योग्य या मानवीय या शासन चलाने लायक नहीं होते?

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कुछ का कुतर्क रहा कि वे रहेंगे तो राजशाही के नौकर ही, जिन्होंने हमें गुलान बनाया था तो क्या बड़ी बात हुई ? ब्रिटेन की शासन व्यवस्था कैसी हो, यह वहां के लोगों ने तय किया है और वे राजशाही का वर्चस्व स्वीकार करते हैं तो हम ऐतराज जताने वाले कौन? सुनाक को भी वह व्यवस्था मंजूर रहेगी ही। तब भी वहां के दैनंदिन कामों में राजशाही का कोई दखल नहीं होता, बल्कि अब तो वे शासन व्यवस्था पर आश्रित रहते हैं। मर्यादा की एक महीन-सी डोर दोनों के बीच है और वो भी कभी-भी टूट सकती है। बहरहाल।

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कांग्रेस ऐसे किसी भी मुद्दे पर बयानबाजी के लिये बेताब रहती है, जब वो यह दिखा सके कि वो अल्पसंख्यकों को लिये कितना फिकरमंद रहती है। इतना ही नहीं तो वह भारत में अल्पसंख्यक केवल मुस्लिमों को ही मानती है। कांग्रेस नेता राशिद अल्वी ने फरमाया है कि ब्रिटेन से हमें सीखने की जरूरत है। वे पूछते हैं कि क्या भाजपा देश में सोनिया गांधी या अल्पसंख्यक को प्रधानमंत्री स्वीकार करने के लिये तैयार हैं? राशिद साहब, यदि यही सवाल आप कांग्रेस के भीतर करते तो बेहतर होता। यदि कांग्रेस में इसी बात पर सहमति होती तो देश का बंटवारा ही नहीं होता, क्योंकि मोहम्मद अली जिन्ना तो अखंड भारत के प्रधानमंत्री बनना चाहते थे, जिसके लिये जवाहरलाल नेहरू और मोहनदास गांधी तैयार नहीं थे। तब जिन्ना धर्म के आधार पर अलग देश की मांग पर गये और फिर जो हुआ, वह कालिख अभी तक कांग्रेस के चेहरे से हटी नहीं है।फिर कांग्रेस ने छह दशक राज किया और छह प्रधानमंत्री बने, तब किसी मुस्लिम को प्रधानमंत्री बना देते, किसने रोका था? रही बात सोनिया की तो ऋषि सुनाक और सोनिया के बीच समानता ही क्या है? ऋषि ब्रिटेन में पैदा, हुए, पले-बड़े । वे ब्रिटिश के तौर पर प्रधानमंत्री बने हैं, भले ही उनका मूल भारतीय है और वहां का संविधान इसकी अनुमति देता है। जबकि सोनिया इटली में पैदा हुई,पली-बड़ी। शादी के बाद वे भारत आकर बसी और दशकों बाद बेहद अनमने पन से भारतीय नागरिकता ली। वे जन्मना भारतीय नहीं है तो वे कभी-भी ऋषि से तुलना योग्य नहीं हो सकतीं।

 

जम्मू कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती भी कुछ इसी तरह के बोल वचन कर रही हैं। वे पूछती हैं कि भारत में कब कोई अल्पसंख्यक प्रधानमंत्री बनेगा? तो पहली बात तो यह कि उनकी अल्पसंख्यक की परिभाषा में केवल मुस्लिम हैं तो उनके इस दृष्टि और विचार दोष का कोई इलाज नहीं। मनमोहन सिंह सिख समुदाय से हैं, जो संवैधानिक तौर पर अल्पसंख्यक ही हैं। फिर जाकिर हुसैन,फखरूद्दीन अली अहमद, ए पी जे अब्दुल कलाम राष्ट्रपति हुए हैं। हिदायतुल्ला खान, हामिद अंसारी उप राष्ट्रपति हुए हैं तो हिदायतुल्ला खान सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश भी रहे। फिर कितने ही मुख्यमंत्री, प्रदेश और केंद्र में मंत्री समेत देश के अनेक संवैधानिक पदों पर रहे और विराजमान हैं। इस संबंध में भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने मेहबूबा मुफ्ती से पूछा है कि क्या वे किसी अल्पसंख्यक को जम्मू कश्मीर का मुख्यमंत्री स्वीकार करेंगी? क्या कश्मीर में कभी वे रहे ? अब बदली व्यवस्था में तो फिर भी संभव है और उसके लिये मेहबूबा का तो कतई योगदान नहीं होने वाला।

 

भारत में कुछ लोगों का यह धंधा बन चुका है कि यदि भारत का मान-सम्मान कहीं बढ़ता है, कोई भारतीय कहीं उल्लेखनीय उपलब्धि प्राप्त करता है,देश का बहुसंख्यक वर्ग किसी बात से प्रसन्नता पाता है तो इनके पेट में मरोड़े उठती हैं। यह ठीक है कि ऋषि सुनाक के ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनने से वे हमें कोई लड्‌डू नहीं देने वाले या दासता का वो अहसास हमारे दिल-दिमाग से नहीं हटा सकते, जो दो सदी तक झेला गया, लेकिन क्या हम इस बेहतरी का अहसास नहीं कर सकते कि उसी गुलाम देश की मौजूदा नस्ल का एक होनहार व्यक्ति आज उस हैसियत को हासिल कर चुका है, जहां उसे प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया गया। जब वे खुश हैं तो आप क्यों उदास हैं? इस देश में वो दिन कब आयेगा जब हम सब एकसाथ सहमत,प्रसन्न होंगे ? हमारा ये नकारात्मक सोच हमारी एकता और अखंडता को खोखला बनाता है। दीमक और चूहा बनने की बजाय वह अश्व बनिये, जिसने अपनी पीठ पर कभी शिवाजी,कभी राणा प्रताप तो कभी रानी लक्ष्मीबाई को सवार कराकर ऱणभूमि में डटे रहने का पराक्रम किया और इतिहास में अमिट छाप छोड़ दी।