कानून और न्याय:  मौलिक कर्तव्यों का पालन करना समय की जरुरत 

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कानून और न्याय:  मौलिक कर्तव्यों का पालन करना समय की जरुरत 

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक अभिभाषक दुर्गादत्त ने एक लोकहित याचिका प्रस्तुत की है। इस याचिका में में याचिकाकर्ता ने देश के नागरिकों द्वारा मौलिक कर्तव्यों के पालन और क्रियान्वयन के लिए विचार करने तथा उचित कदम उठाने का निवेदन किया गया। याचिकाकर्ता के अनुसार मौलिक कर्तव्यों के पालन न करने से भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 में देश के नागरिकों को प्रदत्त मौलिक अधिकारों पर प्रत्यक्ष असर पड़ता है। सर्वोच्च न्यायालय ने संबंधित पक्षों से चार सप्ताह में याचिका का उत्तर प्रस्तुत करने को कहा है। भारत सरकार की ओर से सर्वोच्च न्यायालय को सूचित किया कि चूंकि इस संबंध में जरुरी जानकारियां कई विभागों से आने वाली हैं। इसमें कुछ समय लग रहा है। उन्होंने स्वीकार किया कि केंद्र सरकार की तरफ से देरी हुई है। इन्होंने विस्तृत जवाब दाखिल करने के लिए चार सप्ताह का समय मांगा है।

इस याचिका पर भारत के एटार्नी जनरल वेणुगोपाल ने आपत्ति जताई थी। उनका कहना था कि कर्तव्यों के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए कानून और न्याय मंत्रालय द्वारा ‘जबरदस्त काम’ किया गया है। उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ता को इस याचिका को प्रस्तुत करने से पहले तथ्यों को पता लगाने के लिए शोध करना चाहिए था। एजी ने कहा कि कर्तव्यों को लागू करने के लिए एक कानून बनाने की प्रार्थना बिल्कुल भी विधि सन्मत नहीं है। क्योंकि, न्यायालय द्वारा संसद को कोई परमादेश जारी नहीं किया जा सकता है। इस मामले में न्यायालय ने नोटिस जारी किया था। सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा कि क्या रंगनाथ मिश्रा बनाम भारत संघ और अन्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसरण में कोई कदम उठाए गए, जिसमें केंद्र को निर्देश जारी किए गए थे। मौलिक कर्तव्यों के क्रियान्वयन पर न्यायमूर्ति जेएस वर्मा समिति की रिपोर्ट की सिफारिशों के कार्यान्वयन के लिए शीघ्रता से विचार करने और उचित कदम उठाने के लिए भी कहा था।

इस याचिका में यह भी कहा गया है कि कुछ कानूनों को छोड़कर मौलिक कर्तव्यों के प्रवर्तन के लिए न तो कोई समान नीति है और न कोई व्यापक कानून। याचिका के अनुसार हमारी समग्र संस्कृति की समृद्ध विरासत और जंगलों, झीलों और वन्य जीवन सहित पर्यावरण की रक्षा, सुधार करना और जीवित प्राणियों के लिए दया करना समय की जरुरत है। इस देश के लोगों का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वे देश की अखंड़ता को बनाए रखे। याचिकाकर्ता ने लोगों को संवेदनशील बनाने तथा मौलिक कर्तव्याों के संबंध में नागरिकों को जानकारी देने एवं इस संबंध में आवश्यक मार्गदर्शक सिद्धान्तों एवं नियमों के बनाने की प्रार्थना भी सर्वोच्च न्यायालय से की है।

इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति रोहिंटन एफ नरीमन द्वारा न्यायमूर्ति वीएम तारकुंडे वार्षिक व्याख्यान माला में इस विषय पर दिया गया व्याख्यान अत्यंत ही विचारोतेजक है। मौलिक अधिकार संविधान के भाग चार में सम्मिलित है। ये नागरिकों के नागरिक कर्तव्यों की बात करते हैं। इसमें पहला मौलिक कर्तव्य संविधान, उसकी संस्थाओं, राष्ट्रगान और राष्ट्रीय ध्वज का पालन करना है। एक भारत का नागरिक जब तक संविधान का पालन कैसे करेगा, जब तक कि उसे यह जानकारी नहीं होगी कि संविधान की परिकल्पना क्या है ? ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है, कि संविधान में वर्णित मौलिक कर्तव्य तथा अधिकार जन-जन तक पहुंचे तथा भारत का नागरिक यह जाने कि भारतीय संविधान में उसके कर्तव्य और अधिकार क्या है?

इसलिए सरकार का यह कर्तव्य है कि वह भारत के संविधान को हर भाषा में देश में व्यापक प्रचार-प्रसार करें, ताकि नागरिक जागरूक हो तथा उसे मालूम हो कि संविधान में क्या है और उसके अधिकार क्या हैं! यह महत्वपूर्ण है कि इन नैतिक कर्तव्यों को आम जनता को बताया जाए। इस प्रचार प्रसार का सही तरीका यह होना चाहिए कि वर्तमान सरकार भारत के संविधान की 22 निर्धारित क्षेत्रीय भाषाओं में निःशुल्क प्रतियां वितरित करें। इससे प्रत्येक नागरिक यह जानेगा कि संविधान का यह मूल दस्तावेज क्या है और उसके अधिकार और कर्तव्य क्या हैं।

संविधान में कहा गया है कि राष्ट्र की संप्रभुता और एकता को बनाए रखना चाहिए। इसके लिए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष के ज्ञान और उन्होंने जो किया उसकी सराहना की जाना जरूरी है। इन सेनानियों ने क्या किया है जब तक की इसकी जानकारी आपको नहीं होगी कि उन्होंने क्या किया है तब तक आप उनके प्रति राष्ट्र कृतज्ञता कैसे ज्ञापित करेगा। अनुच्छेद 51ए में चैथा मौलिक कर्तव्य है। जब आपको राष्ट्र की रक्षा करने के लिए कहा जाता है, तो आपको ऐसा करना चाहिए। और पांचवां मौलिक कर्तव्य धार्मिक, भाषाई और क्षेत्रीय या अनुभागीय विविधताओं से परे भारत के सभी लोगों के बीच सद्भाव और सामान्य भाईचारे की भावना को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण हैं। महिलाओं की गरिमा के लिए अपमानजनक प्रथाओं का त्याग करना, मौलिक कर्तव्य भी अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। इसे संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से कहा गया है।

सर चाल्र्स नेपियर (ब्रिटिश काल में अंग्रेज जनरलों में से एक) ने एक बार घर एक संदेश भेजा था। इसमें कहा गया था कि ‘पेकावी’ (जिसका लैटिन में अर्थ है ‘मैंने पाप किया है’)। यह तब का किस्सा है जब वे सिंध प्रांत जनरल थे। इसने सड़क पर जा रहे लोगों के जुलूस से पूछा ‘इस गरीब महिला के साथ क्या कर रहे हो! तुम उसे इस तरह क्यों तंग कर रहे हो! इसका उत्तर यह दिया गया कि उस समय एक प्रथा प्रचलन में थी कि जब पति की मृत्यु हो जाती है, तो पत्नी अपने पति के साथ उसके स्वर्गीय निवास में जाती है और जौहर करती है। यह केवल उसे जबरन चिता पर फेंकने से ही हो सकता है। इस पर जनरल ने कहा कि क्या ऐसा है? बहुत अच्छा, तुम अपनी रीति निभाते हो। लेकिन, हमारा एक और रिवाज है। हमारी प्रथा है कि निर्दोष महिलाओं को उकसाने या उनकी हत्या करने वालों को फांसी दी जाती है। इसलिए तुम अपनी रीति निभाओ और हम अपनी रीति निभाएंगे। इसके बाद सती प्रथा बंद हो गई थी।

अब इन महान उपदेशों के अलावा हमारा एक मौलिक कर्तव्य भी है। हिंसा का त्याग करना। हमारी ‘समग्र संस्कृति’ का सम्मान करना हमारा महान मौलिक कर्तव्य है। जहां तक हमारे राष्ट्र का संबंध है, भाईचारा बहुत महत्वपूर्ण है। विशेष रूप से इस समय और इसका एक उपाय यह है कि दीवानी न्यायालयों को किसी भी नागरिक द्वारा नफरत फैलाने वाले भाषण के खिलाफ मुकदमे पर कार्यवाही करना चाहिए। आजकल अभद्र भाषा का चलन बढ़ा है। देश के प्रधानमंत्री सहित अनेकानेक प्रतिष्ठित लोगों के विरूद्ध अभद्र भाषा का प्रयोग किया जा रहा है। यह कुछ ऐसा है जो सद्भाव को और भाईचारे को बाधित करता है। इसलिए जिस क्षण कोई नागरिक अभद्र भाषा के संबंध में एक दिवानी दावा (हमेशा व्यवहार प्रक्रिया संहिता की धारा 9 के तहत बनाए रखने योग्य) दायर करता है, तो न्यायालय भ्रातृत्व के मौलिक कर्तव्य के कारण एक घोषणा और निषेधाज्ञा जारी कर सकता है। दंडात्मक हर्जाना भी दिया जा सकता है। अगर एक न्यायालय दिवानी मुकदमे का संज्ञान लेती है तो यह भ्रातृत्व को बनाए रखने और उसकी रक्षा करने की दिशा में एक लंबा रास्ता बन सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय का एक हाल ही में दिया गया आदेश कहता है कि संबंधित प्राधिकरण को उस समय कार्रवाई करनी चाहिए, जब अभद्र भाषा का प्रयोग होता है। यदि अधिकारी कार्रवाई नहीं करते हैं तो यह न्यायालय की अवमानना होगी। यह सही दिशा में एक अच्छा कदम है। इस मौलिक कर्तव्य को लागू करने के लिए एक दिवानी मुकदमा एक बहुत ही महत्वपूर्ण कदम है। मौलिक अधिकारों तथा राज्य नीति के निर्देषक सिद्धांतों के विपरित न्यायालय की भूमिका क्या है, कानून इस पर मौन है। अभद्र भाषा से प्रभावित नागरिकों को दिया गया एक संवैधानिक अधिकार किसी भी कानून से ऊपर होकर यह संविधान का एक हिस्सा है। इसलिए यदि वास्तव में भ्रातृत्व के मुख्य सिद्धांत संविधान की प्रस्तावना में निहित है तो यह एकमात्र संवैधानिक तरीका है।

यह राष्ट्र की एकता और अखंड़ता को तथा नागरिकों की गरिमा सुनिश्चित करता है। इस संबंध में वर्जीनिया बोर्ड ऑफ़ एजुकेशन बनाम बार्नेट में जस्टिस जैक्सन के प्रकरण में दिया गया फैसला महत्वपूर्ण है। यह 1943 के पुराने वर्ष का यहोवा का साक्षी मामला था। इसमें यहोहा के साक्षियों के एक समूह ने अमेरिकी ध्वज को सलामी देने से इंकार कर दिया था और जस्टिस जैक्सन ने उनका समर्थन किया था। झंडे को सिर्फ इसलिए सलामी नहीं देना सही है, क्योंकि उन्हें इससे गंभीर ईमानदार धार्मिक आपत्ति थी।

जहां तक हमारे महान देश का संबंध है, ये शब्द अमेरिका के विपरीत इस देश की विशाल विविधता के कारण और भी अधिक लागू होते हैं। न्यायमूर्ति जैक्सन ने कहा था कि अगर हमारे संवैधानिक नक्षत्र में कोई निश्चित सितारा है, तो वह यह है कि राजनीति, राष्ट्रवाद, धर्म या किसी अन्य राज्य के मामले में किसी अधिकारी, उच्च या क्षुद्र को यह निर्धारित करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। जब किसी भी अधिकारी को हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं दी जाती है, तभी विविधता एकता बन जाती है, अन्यथा यह संभव नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति चिनप्पा रेड्डी ने बिजाॅय इमैनुएल (1986) के मामले में अपने फैसले को इन शब्दों से समाप्त किया था। उन्होंने अपने फैसले के अंत में लिखा था कि हमारी परंपरा सहिष्णुता सिखाती है। हमारा दर्शन सहिष्णुता का उपदेश देता है। हमारा संविधान संहिष्णुता का अभ्यास करता है। आइए हम इसे कमजोर न करें।