एक नायक की खोज सदैव स्थायी आनंद के लिए होती है…
आज हम बात कर रहे हैं कला के नायक सैयद हैदर रजा की। दुनिया में अपनी कला का लोहा मनवाने वाले रजा, मध्यप्रदेश के लिए खास महत्व रखते हैं और मध्यप्रदेश उनके लिए सबसे खास था। दरअसल सैयद हैदर रज़ा का जन्म मध्य प्रदेश के मंडला में 22 फरवरी 1922 को जिले के उप वन अधिकारी सैयद मोहम्मद रज़ी और ताहिरा बेगम के घर हुआ था। यही वह जगह थी जहां उन्होंने अपने जीवन के प्रारंभिक वर्ष गुज़ारे व 12 वर्ष की आयु में चित्रकला सीखी। इसके बाद 13 वर्ष की आयु में मध्य प्रदेश के ही दमोह चले गए, जहां उन्होनें राजकीय उच्च विद्यालय, दमोह से अपनी स्कूली शिक्षा प्राप्त की।हाई स्कूल के बाद, उन्होनें नागपुर में नागपुर कला विद्यालय (1939-43), तथा उसके बाद सर जे.जे. कला विद्यालय, बम्बई (1943-47) से अपनी आगे की शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद 1950-1953 की बीच फ़्रांस सरकार से छात्रवृति प्राप्त करने के बाद अक्टूबर 1950 में पेरिस के इकोल नेशनल सुपेरियर डे ब्यू आर्ट्स से शिक्षा ग्रहण करने के लिए फ़्रांस चले गए। पढ़ाई के बाद उन्होनें यूरोप भर में यात्रा की और पेरिस में रहना तथा अपने काम का प्रदर्शन जारी रखा। बाद में 1956 के दौरान उन्हें पेरिस में प्रिक्स डे ला क्रिटिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जिसे प्राप्त करने वाले वह पहले गैर-फ़्रांसिसी कलाकार बने।
1970 के दशक तक रज़ा अपने ही काम से नाखुश और बेचैन हो गए थे और वे अपने काम में एक नई दिशा और गहरी प्रामाणिकता पाना चाहते थे। वह उस चीज से दूर होना चाहते थे जिसे वे प्लास्टिक कला कहते थे। उनके भारत दौरे, विशेषकर अजंता व एलोरा की गुफाओं के दौरे, जिसके बाद उन्होंने बनारस, गुजरात तथा राजस्थान की यात्रा की। यात्रा ने उन्हें अपनी जड़ों का एहसास कराया तथा भारतीय संस्कृति को निकटता से जानने के लिए प्रेरित किया। इसका परिणाम ‘बिंदु’ के रूप में सामने आया, जो एक चित्रकार के रूप में उनके पुर्न्जनम को दर्शाता था। बिंदु का उदय 1980 में हुआ और यह उनके काम को अधिक गहराई में, उनके द्वारा खोजे गए नए भारतीय दृष्टिकोण और भारतीय संस्कृति की ओर ले गया। ‘बिंदु’ (ऊर्जा का बिंदु या स्त्रोत) की शुरुआत के बाद, उन्होनें बाद के दशकों में अपनी विषयगत कृति में नए आयाम जोड़े। इनमें त्रिभुज के इर्द गिर्द केन्द्रित विषय थे, जो अंतरिक्ष तथा समय को भारतीय अवधारणाओं के साथ-साथ ‘प्रकृति-पुरुष’ (नर व मादा ऊर्जा) से जोड़ते थे, जिससे अभिव्यक्ति करने वाले व्यक्ति से ले कर चित्र तथा इसकी गहराई तक पहुंचने वाला गुरु बनने का उनका परिवर्तन पूर्ण हो गया था। सन 2000 में उनके काम ने एक नई करवट ली जब उन्होंने भारतीय अध्यात्म पर अपनी बढ़ती अंतर्दृष्टि और विचारों को व्यक्त करना शुरू किया, तथा कुंडलिनी, नाग और महाभारत के विषयों पर आधारित चित्र बनाए।
सैयद हैदर रजा की खुद के बारे में अभिव्यक्ति थी- “मेरी प्रेरणा लेखक या चित्रकारों और यहां तक कि उस्ताद जैसे संगीतकारों के विचार रहे हैं जिन्होंने कहा कि, ‘अपने कानों से देखो, अपनी आंखों से सुनो। मेरा काम मेरा स्वयं का भीतरी अनुभव तथा प्रकृति के रहस्यों तथा रूप के साथ मेरी भागीदारी को दर्शाता है, जिसे रंग, रेखा, अंतरिक्ष तथा प्रकाश द्वारा व्यक्त किया गया है। तत्व की खोज ने मुझे दीवाना कर दिया। भारतीय अवधारणाओं, प्रतिमा विज्ञान, संकेतों और प्रतीकों ने इस खोज को मज़बूत किया। कुदरत के रूप में प्रकृति, जो सर्वोच्च सृजन शक्ति है, बीज में निहित भ्रूण शक्ति, नर-मादा आधार, प्रकृति में सदैव मौजूद रहने वाली अंकुरण, गर्भावस्था तथा जन्म जैसी घटनाओं ने मेरी अवधारणा को ‘देखी गयी प्रकृति’ से ‘प्रकृति-कल्पना’ में बदल दिया”। उन्होंने आगे कहा कि “मैं फ्रांस इसलिए गया क्योंकि इस देश ने मुझे चित्रकला की तकनीक तथा विज्ञान की शिक्षा दी। फ्रांस के सिज़ेन जैसे अमर कलाकार एक चित्र के निर्माण का रहस्य जानते थे।.. . लेकिन मेरे फ़्रांसिसी अनुभव के बावजूद, मेरे चित्रों का भाव सीधे भारत से आता है।”
1946 में रजत पदक, बॉम्बे आर्ट सोसाइटी मुंबई,1948 में स्वर्ण पदक, बॉम्बे आर्ट सोसायटी मुंबई, 1956 में प्रिक्स डे ला क्रिटिक पेरिस, 1981 में पद्म श्री भारत सरकार, 1983 में ललित कला अकादमी की मानद सदस्यता नई दिल्ली, 1992 में कालिदास सम्मान मध्य प्रदेश सरकार, 2007 में पद्म भूषण भारत सरकार और 2013 में पद्म विभूषण भारत सरकार से सम्मानित सैयद हैदर रजा का 23 जुलाई 2016 को दिल्ली में निधन हो गया। एक चित्रकार के रूप में रजा की उपलब्धियां विराट हैं। उन्होंने मध्यप्रदेश का नाम पूरी दुनिया में रोशन किया है। रजा ने आत्म निरीक्षण तथा खुशी से विंदु के जरिए पूर्णता की खोज की थी, क्योंकि एक नायक की खोज सदैव स्थायी आनंद के लिए होती है। इसका प्रमाण खुद सैयद हैदर रजा थे और उनके चित्र हैं…।