आज जन्मदिन : विजय सहगल
जीवंत अहसासों में बसा एक संवेदनशील रचनाकार
वरिष्ठ पत्रकार केसी अरोरा के संस्मरण
पत्रकारिता की दुनिया में अच्छा पत्रकार होना और अच्छा व्यक्ति होना अब दुर्लभ सा संयोग है। मगर विजय सहगल में यही खूबी थी। वे रचनाकारों व पत्रकारों के प्रति संवेदनशील और सहृदय रहे। आत्मीयता का भाव सदैव सशक्त रहा। वे चार दशक तक साहित्य व पत्रकारिता के जगत में जीवंत मूल्यों के साथ और अंतिम दिनों में भी सक्रिय रहे। हिमाचल प्रदेश के सपाटू में प्रसिद्ध लेखक, प्रकाशक, समाजसेवी और स्वतंत्रता सेनानी प्रेमचंद सहगल के घर विजय सहगल का जन्म 16 जुलाई 1943 को हुआ था। उन्होंने शुरुआती पत्रकारिता शिमला में की। बाद में जालंधर से प्रकाशित वीरप्रताप में उप संपादक बने। कालांतर टाइम्स समूह के नवभारत टाइम्स, सारिका व धर्मयुग में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। अज्ञेय जी के साथ कई नये प्रयोग नवभारत टाइम्स में किये। खबरों पर गहरी पकड़ व साहित्य सृजन के साथ उन्होंने अपनी विशिष्ट जगह बनाई।
वर्ष 1978 में जब चंडीगढ़ से दैनिक ट्रिब्यून का प्रकाशन शुरु हुआ तो उन्होंने बतौर सहायक संपादक अपने कैरियर की नई पारी शुरु की। खबरों की गहरी समझ, हिंदी, पंजाबी व अंग्रेजी पर पकड़ व नेतृत्व क्षमता के चलते वे वर्ष 1990 में दैनिक ट्रिब्यून के संपादक बने। पत्रकारिता के प्रति उनके समर्पण का पता इस बात से चलता है कि सेवानिवृत्ति के बाद भी वे हिमाचल के एक दैनिक समाचार पत्र में लगातार संपादकीय लिखते रहे।
सहगल के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खासियत यह रही कि सेवानिवृत्ति के बावजूद वे पत्रकारिता व साहित्य की दुनिया में वे लगातार सक्रिय रहे। विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के छात्रों को प्रशिक्षण, लेखन व साहित्य सृजन का सिलसिला लगातार चलता रहा। बावजूद इसके कि पिछले कुछ सालों से स्वास्थ्य ठीक न था। 73 साल की गौरवशाली जिंदगी पूरी करके वे परलोक सिधार गए। तब भी वे पूरी चेतना सजगता के साथ लेखन में रत थे।उन्होंने अरविंद कुमार की चर्चित पुस्तक ‘शब्द वेध’ की समीक्षा भी लिखी थी।
एक कहानी भी सपाटू के परिवेश पर प्रकाशित हुई थी। तब एहसास न था कि यह उनकी आखिरी कहानी प्रकाशित हो रही होगी। एक बार कहा कि मैं अर्धांगिनी शशि सहगल की कहानियों के साथ एक कथा संकलन प्रकाशित करने का इरादा रखता हूं। विधि की विडंबना देखिए कि उनका यह प्रयास अधूरा रह गया। सपाटू के स्वतंत्रता आंदोलन को लेकर वे एक उपन्यास भी लिख रहे थे। उसके कुछ अंश नवनीत में संपादक विश्वनाथ सचदेव जी ने प्रकाशित भी किए थे।
दरअसल, विजय सहगल पत्रकारिता व साहित्य का संगम थे। सही मायनों में एक संवेदनशील इंसान ही एक अच्छा साहित्यकार होता है। मानवीय सरोकारों व सामाजिक प्रतिबद्धता की सोच के चलते विजय जी ने गुणवत्ता का साहित्य रचा। साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने एक अलग मुकाम बनाया। जो कम ही लोगों को हासिल होता है। यूं तो पहले कहानीकार के रूप में उन्होंने जगह बनाई। नव-धनाढ़य वर्ग पर केंद्रित एक उपन्यास के धारावाहिक अंश दैनिक वीर प्रताप में प्रकाशित हुए। मगर वे उसे पुस्तक रूप में प्रकाशित न कर पाये। उनकी उल्लेखनीय रचनाओं में उपन्यास- बादलों के साये, कहानी संग्रह- आधा सुख और यात्रा वृत्तांत -आस्था की डगर, खास चर्चित रहे।
अनेक पुस्तकों के संपादन के अलावा हिमाचल की हिंदी पत्रकारिता के उद्भव व विकास पर शोध ग्रंथ लिखकर उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसके अलावा वे चंडीगढ़ साहित्य अकादमी, नेशनल बुक ट्रस्ट तथा इंडियन सोसाइटी ऑफ ऑथर्स सहित कई प्रतिष्ठित संस्थाओं से जुडे रहे। इसके साथ वे लगातार विभिन्न चैनलों पर सम-सामयिक विषय के विमर्श करते नजर आते रहे। विजय सहगल को पत्रकारिता व साहित्य जगत में पर्याप्त प्रतिष्ठा व सम्मान मिले। उन्हें उत्कृष्ट पत्रकारिता के लिये मातृश्री सम्मान, यशपाल साहित्य सम्मान, उदंत मार्तंड पत्रकारिता सम्मान और पंजाब कला साहित्य अकादमी पुरस्कार समेत कई सम्मान मिले। फिर भी सबसे बड़ा सम्मान तो उनकी सामाजिक स्वीकार्यता व प्रतिष्ठा है, जिसके लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है।