

‘आग’ ने जलाया, ‘बरसात’ ने बसाया, ‘आवारा’ ने चमकाया और ‘मेरा नाम जोकर’ ने बुझा दिया…
कौशल किशोर चतुर्वेदी
आज हम भारतीय फिल्म सिनेमा के ऐसे कालजयी कलाकार की बात कर रहे हैं, जिनके जैसा कोई दूसरा, ‘न पहले था, न अभी है और न ही कभी होगा…।’ हमें इस बात पर गर्व है कि उनका मध्यप्रदेश से विशेष नाता था, पर उनकी दीवानी तो पूरी दुनिया थी। जी हां, हम बात कर रहे हैं राज कपूर (1924-1988) की, जो हिन्दी सिनेमा के प्रसिद्ध अभिनेता, निर्माता एवं निर्देशक थे। नेहरूवादी समाजवाद से प्रेरित अपनी शुरूआती फिल्मों से लेकर प्रेम कहानियों को मादक अंदाज से परदे पर पेश करके उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिए जो रास्ता तय किया, इस पर उनके बाद कई फिल्मकार चले। भारत में अपने समय के सबसे बड़े ‘शोमैन’ थे। सोवियत संघ और मध्य-पूर्व में राज कपूर की लोकप्रियता दंतकथा बन चुकी थी।
राज कपूर का जन्म 14 दिसम्बर 1924 को पेशावर, पश्चिमोत्तर सीमांत ब्रिटिश भारत में हुआ था। और उनका निधन 2 जून 1988 (उम्र 63 वर्ष) नई दिल्ली, भारत में हुआ था। आज उनकी पुण्यतिथि है, इसीलिए हम आज राजकपूर की बात कर रहे हैं। उन्हें शोमैन, भारतीय सिनेमा का महान् शोमैन, भारतीय सिनेमा का चार्ली चैप्लिन, राज साहब जैसे उपनामों से जाना जाता है। सन् 1935 में मात्र 11 वर्ष की उम्र में राजकपूर ने फिल्म ‘इंकलाब’ में अभिनय किया था। उस समय वे बॉम्बे टॉकीज स्टूडियो में सहायक का काम करते थे। बाद में वे केदार शर्मा के साथ क्लैपर ब्वाॅय का कार्य करने लगे। कुछ लोगों का मानना है कि उनके पिता पृथ्वीराज कपूर को विश्वास नहीं था कि राज कपूर कुछ विशेष कार्य कर पायेगा, इसीलिये उन्होंने उसे सहायक या क्लैपर ब्वाॅय जैसे छोटे काम में लगवा दिया था। परन्तु, पृथ्वीराज कपूर के साथ रहने वाले एवं बाद के दिनों में राज कपूर के निजी सहायक एवं सहयोगी निर्देशक रहे वीरेन्द्रनाथ त्रिपाठी ने साझा किया था कि “पापा जी (पृथ्वीराज) हमेशा कहते थे राज पढ़ेगा-लिखेगा नहीं, पर फिल्मी दुनिया में शानदार काम करेगा। आज केदार ने उसे मेरा बेटा होने के कारण काम दिया है, लेकिन एक दिन वह भी होगा जब लोग राज को पृथ्वीराज का बेटा नहीं बल्कि पृथ्वीराज को राज कपूर का बाप होने के कारण जानेंगे।” …और राजकपूर अपने पिता की उम्मीदों पर पूरी तरह से खरा साबित हुए।
नायक के रूप में राज कपूर का फिल्मी सफर प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक केदार शर्मा की फिल्म ‘नीलकमल’ से हुआ, जो सफल रही थी। पर 1948 में प्रदर्शित ‘आग’ वह पहली फिल्म थी जिसमें अभिनेता के साथ साथ निर्माता-निर्देशक के रूप में भी राज कपूर सामने आये। यह फिल्म सफल नहीं हो पायी। ‘आग’ के प्रदर्शन के साथ ही राज कपूर की छवि एक विवाद ग्रस्त व्यक्तित्व के रूप में बनी। ‘आग’ स्थापित परम्पराओं का अनुकरण नहीं करती थी, किन्तु वह अपनी अलग पहचान भी नहीं बना सकी। ‘आग’ के बाद 1949 में राज कपूर ‘बरसात’ फिल्म में अभिनेता के साथ-साथ निर्माता-निर्देशक के रूप में भी पुनः उपस्थित हुए और इस फिल्म ने सफलता का नया मानदंड कायम कर दिया। इस फिल्म की लगभग पूरी टीम ही नयी थी। इससे लोग कहते थे ‘आग’ में जो कुछ जलने से रह गया है वह ‘बरसात’ में बह जाएगा। लेकिन 1949 में ‘बरसात’ के प्रदर्शन के साथ ही हिन्दी सिनेमा में विस्मय का विस्फोट हुआ। शंकर-जयकिशन, शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, रामानन्द सागर, निम्मी और सारे नए टैक्नीशियन रातों-रात चोटी पर पहुँच गये। ‘बरसात’ का संगीत देश-काल की सीमाओं को लाँघ गया। चारों ओर मुकेश और लता के गाये हुए गीतों की धुन थी। गायिका लता मंगेशकर की पहचान भी ‘बरसात’ फिल्म में ही मुख्यतः बन पायी। ‘बरसात’ पूरी तरह एक नयी फिल्म थी जिसकी नसों में पूरा का पूरा नया खून था। इतनी ताजगी और स्वनिर्मिती के साथ जुड़कर इस तरह सफल होने का दूसरा कोई उदाहरण आजादी के बाद के हिन्दी सिनेमा के पास नहीं है। ‘आग’ ने राजकपूर की उम्मीदों को बुरी तरह जलाया था, तो ‘बरसात’ की प्रचंड सफलता ने उन्हें स्थायी रूप से बंबई फिल्म उद्योग में बसा दिया।
और सन् 1951 में प्रदर्शित ‘आवारा’ हिन्दी सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई। इसने राज कपूर को नायक के रूप में नयी और अलग पहचान दी। सुप्रसिद्ध फिल्म समालोचक प्रहलाद अग्रवाल के शब्दों में : ‘आवारा’ ने इस सत्ताइस साल के नौजवान को उस ऊँचाई पर पहुँचा दिया, जहाँ तक पहुँचने के लिए बड़े-से-बड़ा कलाकार लालायित हो सकता है। ‘आवारा’ ने ही उसे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्रदान की। यहाँ तक कि वह सोवियत रूस में पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्तित्व बन गया। रूस और अनेक समाजवादी देशों में ‘आवारा’ को सिर्फ प्रशंसा ही नहीं मिली, वरन् वहाँ की जनता ने भी बेहद आत्मीयता के साथ इसे अपनाया।” तो ‘आवारा’ ने राजकपूर को पूरी दुनिया में चमकाया, वहीं सन् 1970 के दिसंबर में आर॰के॰ फिल्म्स की अपने समय की सबसे महँगी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ अखिल भारतीय स्तर पर एक साथ प्रदर्शित हुई। यह राज कपूर के जीवन की सबसे महत्त्वाकांक्षी फिल्म थी। पर ‘मेरा नाम जोकर’ बुरी तरह से असफल हो गयी। राजकपूर की जिन्दगी का सबसे बड़ा सपना मिट्टी में मिल गया। वह सपना जिसके लिए उसने अपना पूरा अस्तित्व दाँव पर लगा दिया था। इस सब के बावजूद ‘मेरा नाम जोकर’ राजकपूर की महानतम कलाकृति है। पर इसके साथ ही राज कपूर ने नायक के रूप में फिल्मों से विदा ले ली। यानि ‘मेरा नाम जोकर’ ने राजकपूर को नायक के रूप में पूरी तरह से बुझा दिया था।
राजकपूर फिल्मकार के रूप में उपलब्धियों का सागर हैं, जिन्हें आसानी से नहीं समेटा जा सकता। राजकपूर की नायक के बाद चरित्र अभिनेता की सामान्य पारी रही। वहीं निर्माता-निर्देशक बनकर नए आयाम स्थापित करने की बड़ी पारी भी उन्होंने खेली, जहां वह ग्रेट शोमैन साबित हुए। उन्हें मिले पुरस्कारों और सम्मानों का लंबा सिलसिला है। पर आज इतना ही। राजकपूर का मध्यप्रदेेश से विशेष नाता था,अब जाते-जाते यह बात कर लें। दरअसल ग्रेट शो मैन स्वर्गीय राजकपूर की रीवा से भावनात्मक स्मृतियां जुड़ी हुई थीं। राजकपूर का विवाह रीवा के तत्कालीन आईजी करतार नाथ मल्होत्रा की बेटी कृष्णा मल्होत्रा के साथ हुआ था। राज कपूर और कृष्णा मल्होत्रा की शादी 12 मई 1946 को हुई थी। रीवा से राजकपूर के रिश्ते की नींव महज 20 साल की उम्र में जुड़ गई थी। और आज भी जुड़ी हैं। रीवा में वर्ष 2018 में निर्मित आधुनिकतम ‘कृष्णा राजकपूर ऑडिटोरियम’ अपने शहर और मध्यप्रदेश की इस बेटी-दामाद से जीवंत रिश्ते की गवाही आज भी दे रहा है और हमेशा देता रहेगा…।