भावी सपनों से ज्यादा चुनावी सपनों का संबोधन! 

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भावी सपनों से ज्यादा चुनावी सपनों का संबोधन! 

वरिष्ठ पत्रकार अशोक जोशी की टिप्पणी 

स्वाधीनता दिवस के अवसर पर लाल किले से होने वाले संबोधन में पता नहीं क्यों इस बार ऐसा लगा कि यह संबोधन देश के प्रधानमंत्री का नहीं बल्कि एक राजनीतिक पार्टी के उस महत्वाकांक्षी नेता का चुनावी संबोधन है जो व्यग्रता से अगली बार भी लाल किले से भाषण देने के लिए बेताब है। यह आकांक्षा नरेंद्र मोदी ने अपना संबोधन समाप्त होते होते जाहिर कर ही दी। जो लोग भारत के प्रधानमंत्री को सुनने की उत्सुकता लिए लाल किले के प्रांगण या दूसरे माध्यमों के सामने बैठे थे, उन्हें कहीं न कहीं यह आभास जरूर हुआ होगा कि यह प्रधानमंत्री का संबोधन नहीं बल्कि मिस्टर मोदी का भाषण है। उससे भी अधिक यह संसद मे पिछले दिनां दिए गए अविश्वास प्रस्ताव पर दिए गए भाषण का पार्ट-टू ही लगा।

वैसे देखा जाए तो नरेंद्र मोदी की भाषण शैली में वाक्पटुता और तार्किक कला का कोई जवाब नहीं है, लेकिन इस बार देश की जनता को उन सवालों का जवाब नहीं मिल पाया, जिसकी आशा लिए वह 90 मिनट तक बैठे रहे। यदि प्रधानमंत्री के इस भाषण की शैली पर गौर किया जाए तो यह फ्लो लैस तो था ही लेकिन फ्लॉलेस नहीं था। देशवासियां को अपने चिरपरिचित अंदाज में मेरे प्यारे भाइयों बहनों की बजाए जिस तरह से उन्होंने इस बार मेरे प्रिय परिवारजनों का संबोधन का चयन किया था, उसे दोहराते समय कई बार वह लड़खड़ाए और प्रिय भाइयों बहनां कहते कहते वह परिवारजनों पर लौटे।

इस बार मोदीजी ने अपने संबोधन में मेरे प्रिय परिवारजनों के साथ साथ गुलामी के लिए हजार वर्ष के कालखंड का प्रयोग किया जो संभवतया अंग्रेजी साम्राज्य के साथ साथ मुगल काल की गुलामी को याद दिलाने के किया गया था। इसके बहाने वह एक ओर परिवारवादी राजनीतिक दलां को कटघरे पर खडा कर साबित करना चाह रहे थे, कि भले ही विपक्षी दलों के लिए उनका परिवार सब कुछ हो, लेकिन उनके लिए 140 करोड़ देशवासी ही उनका परिवार है। दूसरी तरफ वह एक हजार साल की गुलामी से मुक्ति की बात कर मुगल शासकों की दासता से मुक्त सनातन भारत की याद भी दिला रहे थे।

 

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प्रधानमंत्री के भाषण में इस बार हमेशा की तरह की धारा प्रवाहिता का भी कुछ-कुछ अभाव था। इसका कारण यह हो सकता है कि वह अपने डेढ़ घंटे के भाषण में वह सब कुछ समेटना चाह रहे थे जो उन्हें 2024 के आम चुनाव में फायदा पहुंचा सके। इसी मजबूरी के चलते वह बहुत सारी चीजों को अपने भाषण में शामिल करने की कोशिश में लगे रहे इसलिए कई बार वह एक विषय को छोड कर फौरन दूसरे विषय पर आते दिखाई दिए। यह ठीक ऐसा ही था जिस तरह परीक्षा हाल के अंतिम पन्द्रह मिनिट की घंटी बजने के बाद परीक्षार्थी बचे-खुचे प्रश्न हल कर पूरा पर्चा हल करने की कोशिश में लगा हो।

जिस विषय के लिए विपक्ष बार बार प्रधानमंत्री को संसद में आकर बोलने के लिए कह रहा था, मोदी जी ने मणिपुर का वह विषय जनता के दरबार में अच्छी तरह सुना दिया। तब ऐसा लगा जैसे जो बात वह संसद में कहने आए थे, विपक्ष के बायकाट करने के बाद उन्होंने लाल किले से सुनाने के लिए सुरक्षित रख लिया। आजादी के मौके पर प्रधानमंत्री ने पूरे देश के बहाने टारगेटेड ऑडियंस पर ज्यादा ध्यान दिया। उन्हें पता है कि देश का प्रौढ तथा वरिष्ठ मतदाता तो उनके प्रति प्रतिबद्ध है, इसलिए उन्होने तीस साल और उससे कम आयु वाले युवाओं, महिलाओं तथा उपेक्षित वर्ग को टारगेट बनाकर उन्हें ज्यादा से ज्यादा लक्षित कर अपनी बात कही ताकि वह वर्ग उन्हें एक बार फिर लाल किले की प्राचीर से संबोधन करने के लिए चुन सके।

ऐसा भी नहीं था कि प्रधानमंत्री का पूरा भाषण नीरस या लक्ष्यहीन था। उन्होंने अपनी सरकार की उपलब्धियों के साथ साथ विकसित भारत का रोड मैप सामने रखा लेकिन उसका लक्ष्य भी आगामी चुनाव को ही समर्पित लगा। अपने संबोधन में जिस तरह से उन्होने परिवारवाद , भ्रष्टाचार और तुष्टीकरण की बात कही उसे सुनकर भी कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना वाली बात समझ में आयी। पूरे भाषण में भारत के प्रधानमंत्री की बात की जगह मेरी और मोदी की बात ज्यादा नजर आयी। इसलिए ये भारत के प्रधानमंत्री से ज्यादा प्रधानमंत्री पद के दावेदार उम्मीदवार की आत्मस्तुति जैसा लगा। यह भाषण राष्ट्र केंद्रित या लोक केंद्रित होने के बजाए आत्मकेन्द्रित या सेल्फ सेंटर्ड ही माना जाना चाहिए।

इस बार स्वाधीनता दिवस प्रसारण भी फ्लॉलेस या निर्दोष नहीं लगा। इसके दो कारण हो सकते हैं या तो विपक्ष और विपक्ष के नेता इस समारोह में आए ही नहीं थे या दूरदर्शन ने उन पर कैमरा फोकस रखने से परहेज बरता। अरविंद केजरीवाल यदि फ्रेम में आए तो इसका कारण यही था कि वह मौजूदा मंत्रियों के ठीक पीछे बैठे थे जहां से उन्हें एडिट करना संभव नहीं था। दूरदर्शन पर इस तरह के आरोप संसदीय कार्यवाही के दौरान विपक्ष के भाषण के दौरान भी लगते रहे हैं। जहां तक देशवासियों का सवाल है, उन्हें इस बार यह उम्मीद जरूर थी कि प्रधानमंत्री अपने इस संबोधन में पाक अधिकृत कश्मीर के उन लाखों लोगों के बारे में जरूर बोलेंगे जो भारत की ओर आशा भरी नजरों से देख रहा है। हो सकता है उन्होंने इस विषय को आम चुनाव के लिए सुरक्षित रखा हो, लेकिन सही माना जाए तो इस बार प्रधानमंत्री का भाषण सुनकर एमडीएच मसाले के उस विज्ञापन की याद आ गई जिसकी टैगलाइन है मजा नहीं आया!