आखिर कांग्रेस को इतना क्यों खटकते हैं वीर सावरकर?
भारत के महान क्रांतिकारी, स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, इतिहासकार, राष्ट्रवादी नेता तथा विचारक विनायक दामोदर सावरकर जिन्हें प्रायः स्वातन्त्र्यवीर और वीर सावरकर के नाम से जाना जाता है। उन्होंने *1950* में मुंबई से प्रकाशित पत्रिका *धर्मयुग* में एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था ‘क्या स्वराज्य लाने का श्रेय सिर्फ कांग्रेस को है’। हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीतिक विचारधारा को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय सावरकर को जाता है। शायद इसी कारण से वे हमेशा कांग्रेस पार्टी के निशाने पर रहे। वे एक वकील, राजनीतिज्ञ, कवि, लेखक और नाटककार भी थे। उन्होंने परिवर्तित हिन्दुओं के हिन्दू धर्म को वापस लौटाने हेतु सतत प्रयास किए एवं इसके लिए आन्दोलन भी चलाये। वीर सावरकर ने अपने उक्त लेख में बड़ा ही महत्वपूर्ण सवाल उठाया था कि भगवान राम ने तो लंका विजय के लिए सेतु बंधन कार्य में कण-कण रेत ढोने वाली गिलहरी को भी सम्मान दिया था, लेकिन ‘राम-राज्य’ को आदर्श मानने वाली (तत्कालीन सत्य?) कांग्रेस, क्या भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में दूसरी पार्टी के राष्ट्र सेवियों और शहीदों का सही मूल्यांकन करती है ?
उन्होंने 1950 में प्रकाशित लेख में पर्याप्त तर्कों के आधार पर जो प्रश्न उठाए थे वे आज 73 वर्ष बाद भी उतने ही समीचीन व महत्वपूर्ण है। स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस के शासनकाल में महात्मा गांधी के अलावा किसी और को यथोचित सम्मान व महत्त्व नहीं दिया गया। 2014 जब केंद्र में राष्ट्रनिष्ठ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार स्थापित हुई तो इस बारे में पुनः गंभीरता से विचार किया गया और उसी के परिणाम के रूप में देखा जा सकता है कि दिल्ली के कर्तव्य पथ पर अब सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा स्थापित की गई जो स्वतंत्रता आंदोलन में उनके महत्व को रेखांकित भी करती है।
1950 में प्रकाशित लेख में वीर सावरकर ने क्या सवाल उठाए थे और उनके क्या तर्क थे, यह बताने के लिए धर्मयुग में प्रकाशित उनके लेख को *शब्दश:* प्रस्तुत किया जा रहा है।
*क्या स्वराज्य लाने का श्रेय सिर्फ कांग्रेस को है*
•विनायक दामोदर सावरकर
केरल में साम्यवादी प्रान्तीय शासन को कांग्रेस की केन्द्रीय सरकार ने पदच्युत किया था। आक्षेपों में सबसे मुख्य यह भी था कि केरल के साम्यवादी प्रांतीय शासन ने राज्य की पाठशालाओं के पाठ्यक्रम में स्वीकृत पुस्तकों में साम्यवादी विचारधारा का प्रवेश करने का यत्न किया था।
कांग्रेसी सरकार द्वारा केरल की साम्यवादी सरकार पर लगाया गया यह आक्षेप कहां तक उचित था, यह देखना इस लेख का उद्देश्य नहीं है। राज्य द्वारा स्वीकृत पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से नयी पीढ़ी के मन में किसी एक पक्ष के विचारों को भर देने का प्रयत्न, और वह भी उस पक्ष द्वारा जो स्वयं को राष्ट्रीय पक्ष कहता है, कितना पक्षपातपूर्ण है, यह बताना इस लेख का ध्येय है।
किसी भी राष्ट्रीय शासन का कर्त्तव्य है कि सम्पूर्ण राज्य की नई पीढ़ी को शिक्षा देने वाले राष्ट्रीय शिक्षण विभाग द्वारा, किसी भी एक पक्ष का अन्यायपूर्ण प्रचार न होने दें। परन्तु जहां एक ओर कांग्रेस ने केरल के साम्यवादी शासन को इसी अपराध के कारण पदच्युत कर दिया है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस पक्ष की अतिशयोक्तिपूर्ण सराहना, तथा महात्मा गांधी द्वारा संचालित निःशस्त्र क्रांति द्वारा एक बूंद भी रक्त गंवाए बिना जो यह स्वराज्य भारतवर्ष को मिला है, वह केवल कांग्रेस ने ही दिलाया है, ऐसे भ्रामक विचार और इतिहास विभिन्न कांग्रेसी राज्यों में केवल सत्ता के जोर पर पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाये जा रहे हैं।
कांग्रेसी पाठ्यक्रम से लिया गया यह उदाहरण देखिए : बम्बई राज्य ( वर्तमान महाराष्ट्र राज्य) की माध्यमिक पाठशालाओं की दसवीं कक्षा में पढ़ाये जाने वाले “जग आणि भारत” नामक इतिहास के प्रारम्भ में ही पृष्ठ 2 पर अंग्रेजों से लगभग सौ वर्ष के स्वातन्त्र्य संग्राम का निष्कर्ष केवल एक पृष्ठ में समा जाने योग्य सारांश में, इस प्रकार है :
1857 के बाद अंग्रेजी शिक्षा द्वारा जाग्रत भारतीयों ने स्वयं पर आये हुए राजनीतिक तथा औद्योगिक संकटों से निकलने का मार्ग धीरे-धीरे निकाला। इसके लिए अनेकों ने अपना जीवन देश सेवा के लिए अर्पित कर दिया। अंग्रेजों ने अपने देश में जनतन्त्र स्थापित करने के लिए जो पार्लियामेंटरी पद्धति अपनायी, उसी लोकतन्त्र का अनुसरण प्रारम्भ में भारतवासियों ने भी किया। परन्तु इससे तो यश मिलना नहीं था अतः अन्त में गांधीजी के विशुद्ध भारतीय अस्त्र द्वारा भारत के स्वातन्त्र्य संग्राम में विजयी होकर उन्होंने सन् 1950 में “सार्वभौम लोकसत्ता के गणराज्य” की स्थापना की।”
उक्त उदाहरण में मुख्य दो बातें है ( 1 ) अंग्रेजों की दासता से मुक्ति पाकर भारतवर्ष को जो राजकीय स्वराज्य आज मिला है, वह केवल गांधीजी द्वारा प्रभावित कांग्रेस के प्रयत्नों से ही मिला है। (इसलिये इस स्वराज्य-सम्पादन का श्रेय सर्वोपरि गांधीजी तथा उनकी कांग्रेस को ही मिलना चाहिये।) (2) यह स्वराज्य गांधीजी और उनकी कांग्रेस द्वारा खोजे गये अहिंसा के तत्वों और निःशस्त्र क्रांति द्वारा ही प्राप्त हुआ है।
स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी*
इतिहास की दृष्टि से ये दोनों बातें स्पष्ट ही पक्षपातपूर्ण लगती हैं।
यहां यह कह देना जरूरी है कि जो स्वतन्त्रता हम प्राप्त कर चुके हैं, वह केवल सशस्त्र क्रांतिकारियों ने ही प्राप्त की है, यह भी नहीं मानना चाहिए क्योंकि ऐसा मानना पहली भूल के समान ही दूसरी भूल होगी।
स्वतन्त्रता मिलने के बाद अपने विचार व्यक्त करने का पहला अवसर मिलते ही, सन् 1949 के दिसम्बर माह में कलकत्ता में होने वाले अखिल भारतीय हिन्दू महासभा में अध्यक्षीय भाषण में मैंने कहा था-
“अंग्रेजी शासन से भारत की मुक्ति दिलाने और स्वातन्त्र्य प्राप्त करने तथा देश में सार्वभौम जनतन्त्र स्थापित करने का श्रेय किसी एक पक्ष को न मिलकर पिछली दो पीढ़ी के सभी पक्षों तथा स्वदेशनिष्ठ कार्यकर्ताओं को सामूहिक रूप से मिलना चाहिये।
“1857 के सशस्त्र क्रांतिकारियों का भाग तो इसमें था ही, साथ ही उसके बाद के देशभक्त दादाभाई नौरोजी से लेकर देशभक्त गोखले तक के सभी पक्षों के सभी कार्यकर्ताओं का भाग भी उसमें है। राष्ट्रीय तथा ‘एक्सट्रीमिस्ट’ कहे जाने वाले पक्षों का भी इस सामूहिक प्रयत्न में सहयोग मिला है। स्वयं को असहकारवादी व अहिसक क्रांतिकारी कहने वाले सहस्रों देशभक्तों और देश सेवकों ने इस राष्ट्रीय स्वातन्त्र्य के निमित्त जो भारतव्यापी कार्य किया है, उसके लिए हमें उनके प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त करनी ही पड़े़गी।
हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ जानेवाले उन क्रांतिकारियों और सशस्त्र युद्ध में लड़़ते-लड़ते मर जाने वाले वीरों के बलिदान का मोल कोई कम नहीं है। हम उन वीरों के प्रति कृतज्ञ हैं।”
*अंग्रेजों के पराभव का एक जबरदस्त कारण*
अब हम दूसरी बात पर आयें। अपनी पाठ्यपुस्तकों द्वारा यह सरकार विद्यार्थियों को सिखाती है कि गांधीजी की कांग्रेस ने भारत का शासन अंग्रेजों के हाथ से निशस्त्र क्रांति द्वारा लिया । किन्तु असल में हुआ यह है कि हमारी शक्तिशाली सेना ने जब तलवार म्यान से बाहर निकाल कर भारत की स्वतन्त्रता के उद्देश्य से अंग्रेजों पर वार करना शुरू किया और साथ ही अपने दूसरे साथियों को भी इसके लिए उकसाने लगे, तो अंग्रेज घबड़ा गये और उन्होंने स्वतन्त्रता “दान” करने की बातें बनाना शुरू कर दिया। यह ऐतिहासिक सत्य स्वयं ब्रिटिश प्रधानमन्त्री ने भरी पार्लियामेंट में स्वीकार किया है।
इधर 1954 के अगस्त माह में एक प्रसिद्ध जापानी ग्रन्थकार श्री जे. जी. ओहसावाने “दि टू ग्रेट इंडियन्स इन जापान” नामक पुस्तक प्रकाशित की है। उसमें उन्होंने रासबिहारी बोस का चरित्र चित्रण करते हुए उनके जापान में किये गये अभूतपूर्व क्रांतिकारी कामों का वर्णन किया है।
दूसरे महायुद्ध के अवसर पर जब जापानी सेना ने सिंगापुर पर चढ़ाई की और अंग्रेज और अंग्रेजों की भारतीय सेना से उनका युद्ध छिड़ गया। तब सेनापति रासबिहारी बोस की क्रांतिकारी आजाद हिन्द (आईएनए) सेना अंग्रेजी सेना से लड़ी थी। इस प्रसंग में उक्त पुस्तक में साफ लिखा है कि कैसे सिंगापुर में जापान के खिलाफ लड़ने वाली ब्रिटिश सेना के भारतीय सिपाही और अफसर रासबिहारी बोस के स्फूर्तिजनक वक्तव्य के बाद आईएनए में हजारों की संख्या में शामिल हो गये थे।
यह एक तीसरे ही व्यक्ति के लिखित विचार है। अब हम “दि इण्डिपेंडेंन्स आफ इंडिया एक्ट” पास करते समय उस समय के ब्रिटिश प्रधानमन्त्री सर क्लीमेंट एटली ने क्या कहा था, इस पर विचार करें। जो अंग्रेज भारतीय स्वातन्त्र्य युद्ध में भारत के विरोधी थे और जिनके साथ लगभग सौ वर्ष तक संघर्ष करके हमने यह स्वतन्त्रता पायी है, सर क्लीमेंट एटनी उन्हीं अंग्रेजों के प्रधानमन्त्री थे ।
*ब्रिटिश प्रधानमंत्री की साक्षी*
जब प्रधानमन्त्री ने यह बिल पेश किया तब हिन्दुस्तान पर से अपना साम्राज्य हटने की बात से दुखी होकर साम्राज्यवादी सर विन्सटन चर्चिल ने पूछा: “क्या यह एक्ट पास कर लेने की अपेक्षा दूसरा कोई मार्ग नहीं जिससे भारतवर्ष को स्वतन्त्र न करके अपने लिए बचाया जा सके।” इसका उत्तर प्रधानमन्त्री ने दो तीन वाक्यों में इस प्रकार दिया।
भारतवर्ष को स्वतन्त्रता का कारण यह है कि (1) वहां की सेना अब अंग्रेजों के प्रति केवल रोटी के लिए, वफादार नहीं रही और (2) ब्रिटेन के पास अब उतनी ताकत नहीं रही कि हिन्दुस्तानी सेना को दबाए रखा जा सके।”
न तो ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री क्लीमेंट एटली ने ही और न ही किसी संसद सदस्य ने यह कहा कि ‘अहिसा के कारण हमारा हृदय परिवर्तन हो गया है, और न ही यह कहा कि साम्राज्यवाद अन्याय है, अतः हम भारतवर्ष को स्वतन्त्र किये दे रहे हैं।’ इसका अर्थ यही हुआ कि सन् 1906 से सन् 1947 तक क्रांतिकारी पक्षों ने भारतीय सेना में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह फैलाया और दोनों ही महायुद्धों में सशस्त्र क्रांतिकारियों ने विदेशों से शस्त्र सहायता लेकर अंग्रेजों से स्वातन्त्र्य युद्ध छेड़ा।
इससे सिद्ध हुआ कि अंग्रेजों ने हमें स्वतन्त्रता दान में नहीं दी है परन्तु इन क्रांतिकारियों और स्वतन्त्रता के दीवानों ने उसे उनसे छीना है।