आखिर क्यों दरक रहा सरकार पर से जनता का विश्वास!

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आठ साल पहले जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई थी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी थी, तब शासन प्रणाली का एक मूल मंत्र दिया गया था ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास।’ लेकिन, यह त्रिमंत्र अब धीरे-धीरे अपनी प्रासंगिकता खोने लगा है। देशभर की सड़कों पर पिछले दिनों जो दृश्य दिखाई दिए हैं, वह इन त्रिमंत्रों को भेदते से प्रतीत होते हैं। सरकार के विरोध में पूर्वोत्तर राज्यों के साथ-साथ उत्तर तक जो विरोध प्रदर्शन बढ़ रहे हैं, वह ‘सबका साथ’ वाले मंत्र को झुठला रहे हैं। क्योंकि, यदि ऐसा होता तो देश की सड़कों पर प्रदर्शन, तोड़फोड़ और आगजनी की तस्वीरे इतनी आम नहीं होती। ख़ास बात ये कि सरकार के फैसलों पर ये विरोध पहली बार नहीं है।

‘अग्निपथ योजना’ की घोषणा के बाद देशभर में उपजा विरोध और तनाव सबके विश्वास वाले मंत्र को मंद करता दिखाई देने लगा है। सत्ता पक्ष भले ही इस बात से इंकार करें और इसे झूठ का पुलिंदा बताए, लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहे कि चाहे यह झूठ हो लेकिन सौ बार कहा गया झूठ भी सच लगने लगता है। सबके विश्वास की इमारत अभी खड़ी भी नहीं हुई, इसकी ईंटे यदि खिसकने लगी है, तो यह तो मानना ही पड़ेगा कि इमारत में लगने वाले मसाले में ही कहीं न कहीं खोट है। ‘अग्निपथ’ से उपजी स्थिति जैसा मामला नया या पहला मामला नहीं है। इस तरह के विरोध की नींव तो नोटबंदी दौरान ही पड़ चुकी थी। उसके बाद इस नींव में दरार पैदा करने का काम लॉकडाउन मजदूरों के पलायन ने किया।

कहा गया कि दूर देश से मजदूरी करने महानगर आए मजदूरों का अपनी सरकार से विश्वास उठ गया था। इसलिए उन्होंने घर जाने का मुश्किल फैसला कर जो साधन मिला, घर जाने वाली सड़क पकड़ ली। यदि किसान देश की आत्मनिर्भरता के घटक है, तो मजदूर विकास तंत्र के मजबूत स्तंभ है। सरकार के विश्वास को आगे बढ़ाने का काम यदि कोई करता है तो वह है देश का युवा वर्ग जो विकास की इमारत में रेत और सीमेंट का मसाला भरकर उसे मजबूती प्रदान करने का काम करता है। लेकिन, ‘अग्निपथ’ योजना की घोषणा ने इस मसाले में हवा के बुलबुले भर दिए, जिससे विकास की इमारत में दरार पड़ने लगी है। ऐसे में ऐसा लगने लगा है कि विश्वास की यह इमारत कभी भी दरक सकती है।

सरकार दावा करती है कि सत्ता में आने के बाद उसने किसान, मजदूर और युवा सभी को साथ लेकर सबके विकास की नई इबारत लिखकर सबका विश्वास जीतने में सफलता हासिल की है, तो सड़कों पर इन तीनों पक्षों का हुजूम इस अवधारणा को खारिज करने के लिए पर्याप्त लगता है। वह वर्ग जो सत्ता पक्ष के प्रति थोड़ा लचीला और उदारवादी है, उसके विश्वास की सुई भी खिसकती दिखाई देने लगी है। यह आशंका होने लगी है कि कहीं सबका साथ छूट तो नहीं रहा है, सबका विकास कहीं जुमला तो नहीं बन गया है और सबका विश्वास कहीं दरक तो नहीं रहा! सरकार जिन सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास की जिस तीन पहिए वाली गाड़ी पर खड़ी है या चल रही है उसका व्हील एलाइन्मेंट अब डगमगाने लगा है। सबके साथ और सबके विश्वास के साथ सबके विकास की इस अवधारणा को मूर्त रूप देने के लिए जिस घटक की सबसे ज्यादा जरूरत होती है उस पर मौजूदा सरकार ने कभी भरोसा ही नहीं किया।                                 

जब बच्चा छोटा होता है तो उसके बाबा, पिता और चाचा उछाल कर उसे थामने का काम करते है। इसके बाद जब बच्चा थोड़ा बड़ा होता है तो उसे एक ऊंचाई पर खडा कर उसके रिश्तेदार नीचे खड़े होकर बाहें पसारकर उसे कूदने की दावत देते है। चूंकि बच्चा बचपन से ही इन हाथों में अपने को सुरक्षित समझता है और उसे विश्वास होता है कि यदि वह गिरा, तो यह हाथ उसे थाम लेते है और वह अंजाम की परवाह किए बिना छलांग लगा देता है। देश के नागरिक जिनमें किसान, युवा और मजदूर सभी शामिल है उस बच्चे की तरह ही है जिसे सरकार एक अभिभावक की तरह बाहें पसार कर छलांग लगाने का आह्वान कर रही है । लेकिन, सरकार ने अपनी तमाम योजनाओं को लागू करने से पहले संबंधित वर्ग के इन बच्चों को विश्वास में नहीं लिया था। इसलिए अब यह बच्चे सरकार रूपी अभिभावक के इशारे पर छलांग लगाने से बिचकने लगे है।

इस बात पर अविष्वास करने की कोई वजह नहीं है कि सरकार चाहे जो भी हो, उसका मुख्य लक्ष्य जन कल्याण ही होता है। यह बात दीगर है कि इसी कल्याण की आड़ में राजनेता और राजनीतिक पार्टियां अपना कल्याण भी करती है। बावजूद इसके जनकल्याण की अवधारणा के बल पर ही तमाम सरकारें बनती, चलती और टिकती है। यह भी संभव है कि मौजूदा सरकार की नियत में कोई खोट नहीं है। उसकी नीति में भी कोई दोष नहीं है। लेकिन, सारा दोष नीति निर्धारण और नीति के क्रियान्वयन में ही है जिसके बल पर दूध भी छाछ जैसा लगने लगता है। कृषि कानून, लॉकडाउन और अब अग्निपथ योजना के साथ भी यह सब कुछ हुआ है। सरकार अच्छी नियत से अच्छी नीति तो बनाई, लेकिन उसके क्रियान्वयन में चूक कर बैठी।

जब कोई घटिया फिल्म प्रदर्शित होती है तो उससे पहले भी उसका जोरदार प्रमोशन किया जाता है। मजबूत मार्केटिंग रणनीति से उसे इस तरह से आलोकित किया जाता है कि पहले दो-चार सप्ताह चलकर वह घटिया फिल्म भी अपनी कमाई निकाल कर मुनाफा कमा जाती है। इसके उल्टे ठीक तरह से प्रचारित न किए जाने या जरूरत से ज्यादा हाईप करने से अच्छी और महंगी फिल्म भी बॉक्स ऑफिस पर दम तोड देती है। कृषि किसान कानून और अग्निपथ रूपी फिल्म अच्छी हैं! लेकिन, इसे लागू करने से पहले सरकार ने न तो इन्हें ठीक से प्रचारित किया गया और न इसकी मार्केटिंग ढंग से की गई। नतीजा यह रहा कि विरोधी पक्षों को मौका मिल गया और उन्होंने लोगों को अपने अपने तरीकों से भड़का कर एक तनावपूर्ण माहौल बना दिया।

यह विरोध उस मकड़जाल की तरह है, जिसमें फंसकर सरकार उलझ गई। जिस तरह से पहले उसने कृषि कानून वापस लिया, उसी तरह की मजबूरी भी अब फिर उसके सामने आसन्न है। यदि वह इसे लागू करने से पीछे हटती है, तो एक बार यह अवधारणा फिर से मजबूत हो जाएगी कि कहीं न कहीं से सरकार से सबका विश्वास दरक रहा है। बेहतर होगा कि सरकार सचिवालयों में बनी नीतियों को लागू करने से पहले समीक्षा करे। उस पर हितग्राहियों से रायशुमारी करे तभी सबका विश्वास की अवधारणा फलीभूत हो सकती है। वर्ना एक बार दरका विश्वास काठ की हांडी साबित हो सकती है।