कृषि कानून : सरकार पीछे हटी या किसानों ने अवसर खो दिया ?

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किसानों के नाम पर आंदोलन करने वाले खुश तो बहुत होंगे आज। उन्हें यह मुगालता पालने का हक है कि सरकार ने उनके आगे घुटने टेक दिए। कुछ इसी तरह की प्रतिक्रियाएं प्रतिक्रियावादी तत्वों द्वारा आ भी रही हैं।विसंगति यह है कि किसानों की दुहाई के नाम पर अपनी दुकानदारी चमकाने वालों ने पहले भी किसानों के हित की चिंता कब की थी,जो अब करते।तीन कृषि कानूनों की वापसी से असल किसानों की पौ बारह होगी या तीन तेरह, यह जल्द ही सामने आएगा। तब तक बयानवीर,राजनीतिक मंशा से आंदोलनों की आड़ लेने वाले खुद को परम पराक्रमी मानने के भ्रम में विचरण करते हुए निजी हित साधने में जुटे रहेंगे।
अब बात करते हैं कृषि कानूनों के नफे,नुकसान की। नुकसान का पता तो तब चलता, जब ये लागू हो जाते।इतिहास गवाह है कि सक्षम वर्ग हमेशा निचले तबके के नुकसान और अपने नफे के जतन करता आया है। चूंकि इन कानूनों से कृषि मंडी के आढ़तियों के हितों का नुकसान निश्चित था तो उन्होंने आंदोलन को जारी रखने में जितना खाद,पानी दिया जा सकता था, वे देते रहे।
किसी को लगता है कि इस मामले में सरकार की करारी हार हुई है, वे तात्कालिक तौर पर अपने को सही मान सकते हैं, लेकिन इसके सही निष्कर्ष तो एक फसल चक्र पूरा होने के बाद ही सामने आयेंगे।
बात तो अब इस पर होना चाहिए कि इन कानूनों की वापसी से किसानों की कौन सी लॉटरी निकल गई है, कैसे उसे आढ़तियों के शोषण से मुक्ति मिल गई और कैसे उसे अपनी फसल के दाम अपेक्षा से अधिक मिलने लग गए और कैसे किसानों की माली हालत बेहतर होने लगी और कैसे आढ़तियों का तंत्र भरभराकर ढह गया?
बात तो इस पर भी होना चाहिए कि क्यों इस आंदोलन में केवल पंजाब,हरियाणा और उप्र के क्षेत्र विशेष के वर्ग विशेष के लोग शरीक हुए और क्यों इसमें शेष भारत के किसानों की भागीदारी नहीं रही?
बात तो इस पर होना चाहिए कि क्यों इस आंदोलन में निहंगों की फौज डेरा डाले रही और अत्याचार की इंतहा करती रही। क्यों पूरे समय दारू की पेटियां खुलती, बहती रही और शरबत की तरह ट्रक से बांटी जाती रही। क्यों खालिस्तान समर्थक नेता कनाडा में बैठकर पाकिस्तान से किसान आंदोलन को सहयोग की अपील करते रहे। क्यों और कौन हरी टोपी, बढ़ी दाढ़ी, ऊंचे पाजामे पहनकर भागीदारी करते रहे।
और ये सब बातें अब होंगी भी।इस कथित किसान आंदोलन के दौरान जो घटनाएं,उनके वर्णन और अनगिनत वीडियो सामने आए, उसने इसके किसान समर्थक आंदोलन होने के भ्रम तो दूर किए ही, यह भी बताया कि अपनी गलत बात को भी यदि पुरजोर तरीके से दोहराया जाए तो उसे सच मानने को बाध्य किया जा सकता है। बहरहाल।
 कृषि कानूनों की वापसी इस कथित किसान आंदोलन की कामयाबी है या किसानों की दूरगामी हानि, यह बहुत जल्द सामने आ सकता है।