अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ…

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अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ…

पंजाबी लेखक और कवयित्री अमृता प्रीतम द्वारा रचित एक प्रसिद्ध कविता है अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ। इसमें 1947 के भारत विभाजन के समय हुए पंजाब के भयंकर हत्याकांडों का अत्यंत दुखद वर्णन है। यह कविता ऐतिहासिक मध्यकालीन पंजाबी कवि वारिस शाह को संबोधित करते हुए है, जिन्होंने मशहूर पंजाबी प्रेमकथा हीर-राँझा का सब से विख्यात प्रारूप लिखा था। वारिस शाह से कविता आग्रह करती है कि वह अपनी क़ब्र से उठें, पंजाब के गहरे दुःख-दर्द को कभी न भूलने वाले छंदों में अंकित कर दें और पृष्ठ बदल कर इतिहास का एक नया दौर शुरू करें क्योंकि वर्तमान का दर्द सहनशक्ति से बाहर है।

पंजाबी में कविता इस तरह है-

अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ कित्थों क़बरां विच्चों बोल

ते अज्ज किताब-ए-इश्क़ दा कोई अगला वरका फोल

इक रोई सी धी पंजाब दी तू लिख-लिख मारे वैन

अज्ज लक्खां धीयाँ रोंदियाँ तैनू वारिस शाह नु कैन

उठ दर्दमंदां देआ दर्देया उठ तक्क अपना पंजाब

अज्ज बेले लाशां बिछियाँ ते लहू दी भरी चनाब

इसका हिंदी अनुवाद है-

(आज मैं वारिस शाह से कहती हूँ, अपनी क़ब्र से बोल,

और इश्क़ की किताब का कोई नया पन्ना खोल,

पंजाब की एक ही बेटी (हीर) के रोने पर तूने पूरी गाथा लिख डाली थी,

देख, आज पंजाब की लाखों रोती बेटियाँ तुझे बुला रहीं हैं,

उठ! दर्दमंदों को आवाज़ देने वाले! और अपना पंजाब देख,

खेतों में लाशें बिछी हुईं हैं और चेनाब लहू से भरी बहती हैं)

यह कविता भारतीय पंजाब और पाकिस्तानी पंजाब दोनों में ही सराही गयी। 1959 में बनी पाकिस्तानी पंजाबी फ़िल्म करतार सिंह में इनायत हुसैन भट्टी ने इसे गीत के रूप में प्रस्तुत किया।

 

कविता के बहाने आज अमृता प्रीतम को याद करने का खास दिन है। दरअसल आज अमृता की जन्म जयंती है। अमृता प्रीतम पंजाबी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक थी। पंजाब (भारत) के गुजराँवाला जिले में पैदा हुईं अमृता प्रीतम को पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। उन्होंने कुल मिलाकर लगभग 100 पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ भी शामिल है। अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण भी प्राप्त हुआ। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से पहले ही अलंकृत किया जा चुका था।

अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त 1919 को गुजरांवाला पंजाब (भारत) में हुआ था। बचपन बीता लाहौर में, शिक्षा भी वहीं हुई। उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1958 में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत, 1988 में बल्गारिया वैरोव पुरस्कार;(अन्तर्राष्ट्रीय) और 1982 में भारत का सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार सम्मान मिला। उनका निधन 31 अक्टूबर 2005 को नई दिल्ली में हुआ।

वैसे तो अमृता ने प्रेम को खूब खुलकर जिया, पर दर्द को भी जीने में उनकी बराबरी बहुत कम लोगों ने ही की होगी। अमृता के बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है और वह हर जगह बिखरा पड़ा है। आज अमृता की यह कुछ पंक्तियां ही काफी हैं। भारत की लोकप्रिय कवयित्रियों में से एक अमृता प्रीतम ने एक बार लिखा था, “मैं सारी ज़िंदगी जो भी सोचती और लिखती रही, वो सब देवताओं को जगाने की कोशिश थी, उन देवताओं को जो इंसान के भीतर सो गए हैं।” अमृता का यह कथन कल भी प्रासंगिक था, आज भी प्रासंगिक है और कल भी प्रासंगिक रहेगा…।