स्मृति के रेखा चित्र: बस इतना ही कहूंगा कि बोरी के भी दिन फिर गए हैं !

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संस्मरण :स्मृति के रेखा चित्र,इस “श्रृंखला”में आज देश के ख्यात पत्रकार ,कलमकार प्रवीण दुबे की प्रस्तुति—बस इतना ही कहूंगा कि बोरी के भी दिन फिर गए हैं !

यादें भी ना कई बार हमारे पास आने के बहाने ढूँढ़ लेती हैं,कभी कोई जगह ,कभी कोई चेहरा ,कभी तस्वीर बस उसके साथ हम पिछले गुजरे वक्त में टाइम ट्रेवलर की तरह एक बार फिर पंहुच जाते हैं ,याद करते हुए मुस्कुरा देते हैं ,किसी को गुस्से में कई बार फिर —.तो कभी कभी उन परिस्थितियों को समझने का प्रयास करते हैं यही हैं हमारी स्मृति के रेखा चित्र ,इस “श्रृंखला”में आज प्रदेश  के ख्यात पत्रकार ,कलमकार प्रवीण दुबे की प्रस्तुति ,-प्रवीण को किसी शोरुम में एक ड्रेस देखकर अपने बचपन की कुछ यादों ने वो दिन याद दिना दिए -आप भी हमसे इस “श्रृंखला” में अपने यादगार संस्मरण शेयर कर सकते हैं .पढ़िए mediawala में एक रोचक संस्मरण-
सम्पादक -स्वाति

बस इतना ही कहूंगा कि बोरी के भी दिन फिर गए हैं !

प्रवीण दुबे

Pravin Dubey (@pravindubey121) / Posts / X

डिंडोरी में हमारे बचपन में कोई निजी स्कूल नहीं था…एक सरस्वती शिशु मंदिर था, दो सरकारी स्कूल थे… सभी स्कूलों में प्राइमरी तक के छात्र-छात्रा डेस्क पर नहीं बैठते थे ज़मीन में बैठा करते थे… हम लोग भी टाट पट्टी पर लाइन से बैठकर पढ़ते थे, उसे फट्टी कहते थे…घरों में तब गलीचे या कार्पेट मध्यमवर्गीय लोगों के यहाँ नहीं होते थे..किसी विशिष्ट मेहमान के आने पर उसे कुर्सी या खटिया में बैठाया जाता था..सामान्य लोग बोरी बिछाकर बैठते थे…सर्दियों में हम धूप में पढ़ने बैठते थे, तो बोरी बिछाकर ही बैठते थे..

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जितने भी हम्माल थे वो बोरी में ही सामान ढोते थे…अनाज इसी बोरियों में आता था और उसके बाद ये बैठने सोने के काम आती थी…जिस रस्सी से ये बनती थी उसमें से एक अजीब सी गंध आती थी जो उठकर जाने के बाद भी बहुत देर तक कपड़ों से भी आती थी…कुलमिलाकर ये बोरी कमोबेश हर परिवार का अहम् हिस्सा थी…सोशल मीडिया में इस बोरी से बने कपड़े और उनकी कीमतें देखीं तो समझ नहीं आया कि बोरी के दिन बहुरने पर गर्व करूँ या लोगों की पसंद पर हैरत….बस इतना ही कहूंगा कि बोरी के भी दिन फिर गए हैं…हालाँकि यदि इसमें अंदर अस्तर नहीं लगा होगा तो इन्हें जो मोहतरमा पहनेंगीं, वे कई दिनों तक खुजली ही करती रहेंगी ये तय है…

 

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