राजनीतिक सन्नाटे के बीच इंदौर में क्या ‘नोटा’ का रिकॉर्ड टूटेगा?  

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राजनीतिक सन्नाटे के बीच इंदौर में क्या ‘नोटा’ का रिकॉर्ड टूटेगा?  

जब पूरे देश में चुनाव की सरगर्मी पूरे शबाब पर है, देश के अनोखे कहे जाने वाले शहर इंदौर में राजनीतिक सन्नाटा है। कोई चुनावी हलचल नहीं, कोई प्रचार का शोर नहीं, कोई सभा नहीं और न कोई जनसंपर्क। इसलिए कि यहां लोकसभा चुनाव का कोई मुकाबला नहीं हो रहा। कांग्रेस का उम्मीदवार अक्षय बम मैदान छोड़कर भाग गया। वो न सिर्फ भागा, बल्कि प्रतिद्वंदी पार्टी भाजपा में शामिल जो गया। उसके इस पलायन से शहर में राजनीतिक हलचल ठंडी पड़ गई। 16 निर्दलीय उम्मीदवारों के सामने भाजपा के उम्मीदवार शंकर लालवानी अकेले किला लड़ा रहे हैं। भाजपा अपने आपको इस घटनाक्रम से कितना भी दूर रखने की बात कहे, पर जो कुछ हुआ उसने पार्टी की साख को भी धक्का पहुंचाया। भाजपा को लगा था कि यह करने से पार्टी का यश बढ़ेगा और चुनाव में लाभ मिलेगा, मगर इससे मतदाताओं के बीच ग़लत संदेश गया।

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भाजपा के सामने कांग्रेस और शहर के जागरूक नागरिकों ने एवीएम मशीन में ‘नोटा’ का बटन दबाने की अपील करके माहौल को अलग दिशा में मोड़ दिया। उनकी ये अपील कितना असर दिखाती है, अभी इसका सच सामने आना बाकी है। लेकिन, यदि ‘नोटा’ का आंकड़ा 51660 से ऊपर निकला तो यह रिकॉर्ड इंदौर के नाम दर्ज हो जाएगा। अभी यह रिकॉर्ड बिहार के गोपालगंज संसदीय क्षेत्र के नाम है। स्वच्छता समेत कई नागरिक सुविधाओं के मामले में इंदौर का देश में नाम है। यदि चुनाव में ‘नोटा’ का बटन ज्यादा दबा तो रिकॉर्ड भी इस शहर के नाम लिखा जाएगा।

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स्वच्छता, खानपान और अच्छी आबोहवा के लिए अपनी अलग पहचान रखने वाले इस शहर को अपनी राजनीतिक जागरूकता के लिए भी जाना जाता है। यहां से लगातार 8 बार भाजपा की सुमित्रा महाजन ने जीत दर्ज की और लोकसभा अध्यक्ष कुर्सी तक पहुंची। पिछले (2019) लोकसभा चुनाव में भाजपा ने यहां से शंकर लालवानी को टिकट दिया और वे साढ़े 5 लाख से ज्यादा वोटों से चुनाव जीते। इस बार पार्टी ने फिर शंकर लालवानी को ही फिर मैदान में उतारा। दावा किया गया कि इस बार वे 8 लाख से जीत दर्ज करेंगे। सामान्य स्थिति में ये मुश्किल भी नहीं था। लेकिन, बदले हालात में ये आसान नहीं लग रहा। अब इस चुनाव में कोई मुकाबला नहीं रह गया। इस वजह से मतदाताओं में भी उत्साह नहीं बचा। इसका सबसे ज्यादा नकारात्मक असर मतदान पर पड़ेगा और भाजपा उम्मीदवार के 8 लाख से जीत का दावा ठंडा पड़ सकता है। क्योंकि, जब मतदान ही अनुकूल नहीं होगा तो जीत का अंतर भी कम ही रहेगा।

 

ऐसे में ‘नोटा’ को लेकर जिस तरह का हल्ला है, आश्चर्य नहीं कि इस बार मतदाता गोपालगंज का रिकॉर्ड ध्वस्त कर दें। इसका कारण यह भी है कि आम मतदाताओं को कांग्रेस उम्मीदवार का मैदान से हटना रास नहीं आ रहा। यहां तक कि भाजपा समर्थित मतदाताओं में भी नाराजी है। इसका प्रमाण है पूर्व सांसद सुमित्रा महाजन का एक बयान जिसमें उन्होंने कहा था कि मुझे कई लोगों ने फोन करके बताया कि वे इस बार ‘नोटा’ में वोट डालने का विचार कर रहे हैं। उन्होंने यह कि मुझे भी समझ नहीं आया कि भाजपा ने ऐसा क्यों किया। इंदौर में ‘नोटा’ के समर्थन का माहौल इतना है कि गली-गली और सड़कों पर नोटा के समर्थन में जुलूस निकाले गए। शहर में ऑटो रिक्शाओं पर नोटा का प्रचार किया जा रहा।

इस बात में कोई शंका-कुशंका नहीं कि इंदौर में भाजपा की जीत पहले से तय थी। कांग्रेस के उम्मीदवार अक्षय बम बेहद कमजोर थे। उत्सुकता सिर्फ इस बात की थी, कि वे भाजपा की लीड कम कर पाते है या नहीं! उन्होंने जिस तरह चुनावी शुरुआत की थी, लग रहा था कि जीत तो नहीं सकते, पर साढ़े 5 लाख की लीड कम कर सकते हैं। परंतु, उनके रणछोड़ दास बनने से ऐसे सारे अनुमान ध्वस्त हो गए। अब सारी उत्सुकता इस बात की है, कि ‘नोटा’ का आंकड़ा कहां जाकर ठहरता है। यदि 51660 से ज्यादा वोट ‘नोटा’ में गिरे तो गोपालगंज पीछे रह जाएगा और इंदौर आगे निकल जाएगा।

गोपालगंज ने क्यों बनाया रिकॉर्ड 

2013 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ‘नोटा’ का बटन ईवीएम पर आखिरी विकल्प के रूप में जोड़ा गया था। बिहार ने 2014 के लोकसभा चुनाव में इसका इस्तेमाल पहली बार किया। तब यहां 5,81,011 वोटरों ने यही विकल्प चुना। जबकि, दूसरे ही मौके पर 2015 के विधानसभा चुनाव में इससे काफी अधिक 9,47,279 लोगों ने यह बटन दबाकर बता दिया उन्हें वो नेता पसंद नहीं जो चुनाव लड़ रहे थे।

नोटा का मतलब यह है कि मतदाता किसी भी उम्मीदवार को योग्य नहीं पाने की स्थिति में नोटा का बटन दबा सकता है। 2019 में अकेले बिहार में इस बटन को दबाने वाले 8,17,139 वोटर थे, जो देश में सबसे अधिक है। गोपालगंज में सबसे ज्यादा 51,660 मतदाताओं ने नोटा का विकल्प चुना। यह अब तक सबसे ज्यादा है। नोटा का उपयोग बिहार सामान्य सीट पश्चिम चंपारण में भी खूब किया गया। जहां इस पर 45,699 वोट डाले गए। 2019 के चुनाव में बिहार के 2% वोटरों ने इसे चुना तो विधानसभा चुनाव में 2.48% मतदाताओं नेताओं को नकार दिया। हालांकि, नोटा को मिले वोट की संख्या सभी उम्मीदवारों को प्राप्त मतों की संख्या से अधिक हो तब भी उस उम्मीदवार को विजयी घोषित किया जाता है, जिसे चुनाव मैदान में उतरे सभी उम्मीदवारों से अधिक वोट मिले हैं।