फ्रेंडशिप डे पर एक आत्म चिंतन
प्रसंग- वश – वरिष्ठ लेखक,चिंतक चंद्रकांत अग्रवाल का कालम
*//श्रीकृष्ण सुदामा प्रसंग सिखाता है हमें मित्रता का मर्म//*
आज इसराइल ने ट्विटर पर ठेठ भारतीय स्टाइल में भारत को अंतर्राष्ट्रीय मित्रता दिवस की बढ़ाई देते हुए लिखा है,तेरे जैसा यार कहां, कहां ऐसा याराना। यह जानते हुए भी कि भारत के आज भी ईरान,फिलिस्तीन से भी मित्रवत संबंध ही हैं। चलिए यह तो आज की अंतर्राष्ट्रीय मित्रता दिवस की सबसे बड़ी खबर की बात रही। आज अगस्त के प्रथम रविवार को सम्पूर्ण विश्व में फ्रेंडशिप डे मनाया जा रहा है। हालांकि मित्रता जैसे संबंध को,भाव को,किसी एक दिन में बांधना भारतीय संस्कृति के संस्कार कभी नहीं रहे। पर वैश्वीकरण के इस दौर में पहले आइए हम यह तो समझें कि मित्रता को समर्पित इस दिवस को मनाने का रिवाज आखिर कब से प्रारंभ हुआ। सर्वप्रथम मित्रता दिवस 1958 में मनाया गया था। अंतर्राष्ट्रीय मित्रता दिवस दोस्ती मनाने के लिए यह एक खास दिन है। यह दिन कई दक्षिण अमेरिकी देशों में बहुत लोकप्रिय उत्सव हो गया था जब पहली बार 1958 में पराग्वे में इसे ‘अन्तरराष्ट्रीय मैत्री दिवस’ के रूप में मनाया गया था। आरम्भ में ग्रीटिंग कार्ड उद्योग द्वारा इसे काफी प्रमोट किया गया, बाद में सोशल नेटवर्किंग साइट्स के द्वारा और इंटरनेट के प्रसार के साथ साथ इसका प्रचलन, विशेष रूप से भारत, बांग्लादेश और मलेशिया में फैल गया। इण्टरनेट और सेल फोन जैसे डिजिटल संचार के साधनों ने भी इस परम्परा को लोकप्रिय बनाने में बहुत सहायता की।
अंतर्राष्ट्रीय मित्रता दिवस का विचार पहली बार 20 जुलाई 1958 को डॉ रामन आर्टिमियो ब्रैको द्वारा प्रस्तावित किया गया था | दोस्तों की इस बैठक में से, वर्ल्ड मैत्री क्रूसेड का जन्म हुआ था। द वर्ल्ड मैत्री क्रूसेड एक ऐसी नींव है जो जाति, रंग या धर्म के बावजूद सभी मनुष्यों के बीच दोस्ती और फैलोशिप को बढ़ावा देती है। तब से,अगस्त के प्रथम रविवार को हर साल पराग्वे में मैत्री दिवस के रूप में ईमानदारी से मनाया जाने लगा और इसे कई अन्य देशों द्वारा भी अपना लिया गया। आजकल व्हाट्सएप, फ़ेसबुक जैसे सोशल मीडिया के कारण से ये और प्रसिद्ध हो रहा है। कुछ लोगों को फ्रेंडशिप डे को लेकर असमंजस है कि 30 जुलाई और अगस्त के पहले रविवार में से सही फ्रेंडशिप डे कौन सा होता है। दरअसल, साल 1930 में इसे जॉयस हॉल ने हॉलमार्क कार्ड के रूप में उत्पन्न किया था। बाद में 30 जुलाई 1958 को आधिकारिक तौर पर अंतर्राष्ट्रीय मित्रता दिवस मनाने की घोषणा की गई। लेकिन भारत समेत बांग्लादेश, मलेशिया, संयुक्त अरब अमीरात और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देश अगस्त के पहले रविवार को ही दोस्ती दिवस मनाते हैं। दोनों फ्रेंडशिप डे में अंतर ये हैं कि 30 जुलाई को अंतर्राष्ट्रीय मित्रता दिवस मनाया जाता है, जो देशों के बीच परस्पर सौहार्दपूर्ण संबंध बनाने के लिए मनाते हैं। वहीं अगस्त के पहले रविवार को दोस्तों के नाम समर्पित किया गया। इस दिन लोग अपने एक दूसरे के साथ दोस्ती के रिश्ते को सेलिब्रेट करते हैं। भारत में इसी दिन को दोस्ती दिवस के रूप में मनाया जाता है। इतिहास के पन्ने पलटें तो एक और घटना से रूबरू होते हैं। अमेरिका में 1935 में अगस्त के पहले रविवार के दिन एक व्यक्ति की हत्या कर दी गई थी। कहते हैं कि इस हत्या के पीछे अमेरिकी सरकार थी। जिसकी मौत हुई थी, उसका दोस्त इस खबर से हताश हो गया और खुद भी आत्महत्या कर ली। उनकी दोस्ती और लगाव को देखते हुए अगस्त के पहले रविवार को फ्रेंडशिप डे के तौर पर मनाने का फैसला लिया गया। इसका प्रचलन बढ़ा और भारत समेत कई देशों ने फ्रेंडशिप डे को अपनाया। शहरों की नई जनरेशन में यह आजकल लोकप्रिय हो ही गया है तो भारतीय संस्कृति के दर्पण में हम इसे देखने का प्रयास तो कर ही सकते हैं। द्वापर काल में श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता भौतिक व आध्यत्मिक दोनों दृष्टियों से अद्वितीय थी,अद्भुत थी , बेमिसाल थी। क्योंकि उनमें एक दूसरे के प्रति सिर्फ अनंत प्रेम था, अनंत समर्पण था। कहावत है कि मित्रता बराबरी वालों से करनी चाहिए। आज के इस अर्थ प्रधान दौर में जब पैसा ही भगवान मानें जाना लगा है, इस कहावत का विकृत अर्थ यह लगाया जाता है कि आर्थिक रूप से जो आपकी बराबरी का हो, उसी से मित्रता करें। पर वास्तव में श्रीकृष्ण का संदेश यही है कि बराबरी से तात्पर्य गुणों से,चरित्र से है। बल्कि उससे भी आगे बढ़कर वे तो श्री सुदामा चरित्र के माध्यम से यह संदेश देते हैं कि बराबरी वाले से नहीं बल्कि गुणों व चरित्र में अपने से श्रेष्ठ से ही मित्रता करनी चाहिए। ताकि वो आपके व्यक्तित्व व कृतित्व को अधिकाधिक तेजस्वी, प्रखर,ऊर्जावान व सार्थक बना सके। तभी आपका मित्रता करना भी सफल,सार्थक होगा अन्यथा आप अपने आपको ही धोखा दे रहें होंगें। राजा परीक्षित द्वारा अपनी मृत्यु के दिन श्री शुकदेव जी से पूछे गये प्रश्न जीवन के उत्तरार्ध की तेैयारी कैसें करें का आध्यत्मिक संदेश सुनाते हुए कुछ वर्ष पूर्व मुझ जैसे ब्रम्ह संबंध ले चुके पुष्टि मार्गीय वैष्णव के पूजा स्थलों जिनको हवेली मंदिर कहा जाता है, देश के एक ऐसे ही हवेली मंदिर के मुख्य साधक जिनको मुखिया जी कहा जाता है,श्री हरिकृष्ण जी ने इटारसी की ही धरा पर बहुत अद्वितीय चिंतन संवाहित किया था।
मुझे आज भी याद है कि सुदामा चरित्र का प्रसंग मुखिया जी ने जीवन दर्शन के कई कोणों से बड़ी प्रखरता व जीवंतता के साथ सुनाया था। उनके उसी जीवन दर्शन के उस मर्म को ही आज अपने चिंतन के आयामों से जोड़कर रेखांकित करने का मन है मेरा। सुदामदेव एक ऐसे ब्रह्म ज्ञानी ब्राह्मण थे जिनके रोम रोम में श्रीकृष्ण बसे थे। उन्होंनें न तो कभी अपनी ब्राह्मण जाति व अपनी विद्वता को अपने व परिवार के पेट भरने का जरिया बनाया,न ही अपने मित्र द्वारिकाधीश से ही कभी कोई सहयोग लिया। उनकी विद्वता, उनके आराध्य की भक्ति का एक स्त्रोत मात्र थी, उनकी विद्वता में जो निजता थी वह बेमिसाल ही थी। अन्यथा वे किसी भी बड़े से बड़े गुरूकुल से जुड़कर सुखमय जीवन जी सकते थे। पर उनकी भक्ति ही उनका असल सुख थी। फिर उनकी पत्नी सुशीला भी नाम के अनुरूप पति के आदर्शों पर चलने वाली अत्यंत धैर्यवान थी। पत्नी को ऐसा ही होना भी चाहिए। सुदामदेव का प्रण था कि कभी भी किसी से कुछ भी मांगूंगा नही। यदि कोई यजमान साल भर का अनाज देना भी चाहता तो सुदामदेव मना कर देते। संग्रह की वृत्ति उन्हें कदापि स्वीकार नहीं थी। सुशीला जी से जब अपने बच्चों की भूख बर्दाश्त नहीं हुई तो उन्होंंनें सुदामदेव से अनुरोध किया,आप अपने मित्र द्वारिकाधीश से एक बार मिल तो आओ। मैं कुछ मांगने नहीं भेज रही बल्कि दर्शन करने भेज रहीं हूं। साथ में एक पत्र भी दिया, जिसमें अत्यंत मर्यादा व स्वाभिमान के साथ लिखा कि हे द्वारिकाधीश, माह में दो एकादशी आती हैं जिन पर व्रत करना चाहिए पर मेरा पूरा परिवार तो प्रतिदिन ही एकादशी कर रहा हैं। पढ़कर द्वारिकाधीश रो पड़े व कहने लगे कि मेरा दीनानाथ कहलाना आज झूठ हो गया। उन्होंने पूर्व दिशा में खड़े सुदामदेव को बिदा करते हुए तिलक करना चाहा तो देखा कि उनके भाल पर लिखा था,श्री क्षय। इसे पलटकर उन्होंनें यक्षश्री कर दिया व पूर्व दिशा के मालिक इंद्र को हंसते देखा तो इंद्र का वैभव भी सुदामा के परिवार को उसी क्षण दे डाला। पर अपने मित्र को पहनाए पीतांबर को भी उतारने को कह अपनी फटी पुरानी धोती ही पहनने को कहा। इस प्रसंग के बहुत गहरे संदेश है। श्रीकृष्ण नहीं चाहते थे कि दुनिया यह कहे कि कभी किसी से कुछ नहीं मांगने का प्रण करने वाले उनके मित्र सुदामा द्वारिकाधीश के महल से एक पीताम्बर पहनकर भी कैसे निकलें? श्रीकृष्ण को सुदामा की खुद्दारी की रक्षा की ज्यादा चिंता हेैं। पर वे सुशीलाजी द्वारा दी गयी चिवड़े या पोहे की पोटली जो सिर्फ उनके लिए दी गयी थी,सुदामा से छीनकर खा जाते हैं क्योंकि वे नहीं चाहते कि एक बार फिर सुदामा उनके हिस्से का अन्न खाकर पाप के भागी बनें जैेसे कि गुरूकुल में रहते हुए, जंगल में खाने हेतु गुरू माता द्वारा लिए दिये गये उनके हिस्से के चने भी सुदामा खा गये थे औेर भीषण दरिद्रता भोगी। हालांकि आज के दौर मेेंं भगवान के हिस्से का व उनके नाम का ,भगवान के मंदिरों के हिस्से का देश भर में कौेन, कितना, कैसे खा रहा हैं,सब जानते हैं।
कलयुग में उनको सुदामा की तरह दरिद्रता का फल भी नहीं मिल रहा है। उल्टे वे उत्तरोत्तर वैभवशाली हो रहें है। कदाचित इसीलिए कि इस जन्म में तो प्रायः जो भी सुख हमें मिलेगा,अपने पूर्व जन्म के प्रारब्ध से ही मिलेगा व अपने अगले जन्म की चिंता या चिंतन की भावना ही किसे होती है आजकल। ऐसा कहा जाता हैं कि श्रीमदभागवत के विभिन्न प्रसंगों के प्रतिश्रुति फल के अनुसार सुदामा चरित्र का प्रतिश्रुति फल यह होता हैं कि इसे प्रेम से सुनने व कहने वाला बड़े से बड़े सुख में भी अपने आराध्य को,अपने भगवान को कभी नहीं भूलता। यह बहुत बड़ा फल हेैं क्योंकि जीवात्मा प्राय: यहीं तो धोखा खा जाता हैं और इस कारण उसके जीवन का उत्तरार्ध अपने आप ही चमत्कारी ढंग से बिगड़ जाता है। वह अपने अंतिम क्षणों में ही भगवान को विस्मृत कर देता है। सभी मित्रों को मित्रता दिवस का यह भाव हर दिन सार्थक करने के निवेदन के साथ वैश्वीकरण के इस दौर में फ्रेंडशिप डे की आत्मीय बधाई व शुभकामनाएं। जय श्री कृष्ण।