Analysis Before Election 2024: Part 2 – पांच राज्यों के चुनाव समान मौका है भाजपा-कांग्रेस के लिये

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Analysis Before Election 2024: Part 2 – पांच राज्यों के चुनाव समान मौका है भाजपा-कांग्रेस के लिये

 

नवंबर में मप्र,छत्तीसगढ़ और राजस्थान में तो दिसंबर में मिजोरम व तेलंगाना में विधानसभा चुनाव हैं। भाजपा अपनी पूरी ताकत छ्त्तीसगढ़,मप्र और राजस्थान में झोंकना चाहेगी। छ्त्तीसगढ़ में कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार के सामने डॉ.रमनसिंह,बृजमोहन अग्रवाल या प्रदेश अध्यक्ष अरुण साव जैसे भाजपा नेता किसी तरह की चुनौती या मुश्किल खड़ी नहीं कर पा रहे हैं। वहां भाजपा न तो कोई जन आंदोलन चला पाई, न भांजी-बहना जैसा कोई जुमला दौड़ा पाई। वहां दूसरी,तीसरी पंक्ति के भाजपा नेता भी इतने चमकदार दिखाई नहीं पड़ते जो भूपेश बघेल को सांसत में डाल सकते हो। फिर भी आगामी दो-तीन महीने में भाजपा आलाकमान कोई पांसा तो ऐसा फेंकना चाहेगा, जो भूपेश बघेल की नींद उड़ा दे। 90 सदस्यीय सदन में कांग्रेस की 71 व भाजपा की मात्र 14 सीट हैं। यह स्थिति उलट जाये ऐसा कोई जादू होने की कोई वजह दिखाई तो नहीं देती।

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हां, मध्यप्रदेश को लेकर भाजपा-कांग्रेस दोनों में ही जबरदस्त द्वंद्व है। आंतरिक भी और बाहरी भी। याने दोनों ही दल मैदान में एक-दूसरे के खिलाफ खम ठोंक रहे हैं तो अपने-अपने दल के अंदर भी नाना प्रकार के तीतर-फंदे पटे पड़े हैं। कर्नाटक चुनाव के नतीजे कांग्रेस के हक में आने के बाद से कमलनाथ उत्साहित हैं तो शिवराज सिंह चौहान सावधान हो गये हैं। ऐसे नाजुक मौकों पर अटकलबाजी करने वालों की चल निकलती है, जिसमें अपने ही दल के जादूगरों की रुचि कुछ ज्यादा ही होती है। सो भाजपा के ठीयों पर ही मुख्यमंत्री या प्रदेश अध्यक्ष की बिदाई के गीत गाये जाने लगे हैं। हालांकि ये हथकंडे राजनीति में घिसे-पीटे हो चुके कि चौराहों पर इतनी चर्चा चला दो कि उस पर सोचना पड़ जाये। मुझे नहीं लगता कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व विवाह का मुहूर्त निकल जाने के बाद दूल्हा बदलने का जोखिम उठाये। हां बरातियों की अदला-बदली तो पक्की है। ये बराती ही फूफा वाले अंदाज में दूल्हे और दूल्हे के पिता को कोसना प्रारंभ कर चुके हैं।
वैसे भाजपा के जमीनी कार्यकर्ताओं में दो बातों को लेकर गहरी नाराजी है, जिस पर आलाकमान ने ध्यान नहीं दिया तो बड़ा नुकसान रोका नहीं जा सकेगा। भाजपा के मप्र प्रभारी मुरलीधर राव इस प्रदेश की तासीर को समझ नहीं पा रहे और अनेक गड़़बड़झाले चल रहे हैं। मैदानी लोग तो उनकी जगह मप्र को जानने-समझने, संगठन और कार्यकर्ता की मनोदशा का आकलन कर उन्हें जंग के लिये तैयार करने,जोश भरने का माद्दा रखता हो,ऐसे किसी प्रभारी की अब भी आस लगा रहे हैं। न सीधे प्रभार के तौर पर तो सहायक के नाते,चुनाव संयोजक के नाते कोई मनोनयन होने का इंतजार कर रहे हैं।

दूसरा बड़ा मसला पुराने कार्यकर्ता को घर बिठाकर युवा नेतृत्व को उभारने के चक्कर में तपे-मंजे निष्ठावान पीढ़ी की समग्र अनदेखी कर दी गई है। इसके चलते मप्र भाजपा का बूथ स्तर तक का जाल छिन्न-भिन्न होता दिख रहा है।ठेठ गांव के तीन से पांच दशक पुराने कार्यकर्ता अभी तक घरों मे बैठे हैं, क्योंकि वे 50 साल से अंदर के व्यक्ति से संचालित होने को तैयार नहीं और न ही उस कथित युवा व्यक्ति की इतनी हिम्मत है कि वह अपने बुजुर्ग को दिशा-निर्देश दे सके। ऐसे में संगठनात्मक ढांचा भरभरा जाना मामूली बात है। अगले पांच महीनों में यदि मप्र व राष्ट्रीय नेतृत्व इस खाई को नहीं भर पाया तो सरकार बरकरार रखने का सपना टूटने की आशंका है।

दूसरी तरफ मप्र में कांग्रेसी यदि अभी से यह मान बैठे कि नवंबर में तो उनकी सरकार बन रही है तो समझो कांग्रेस का बेड़ा गर्क होने को है। ऐसे में महती जिम्मेदारी कमलनाथ की है कि वे संगठन के सुराखों को ऐसे ठोस रसायन से बंद करे, जहां से कतई रिसाव न हो सके। कांग्रेस की कुछ स्थायी दिक्कतें ये हैं कि गाजे-बाजे,ढोल-ढमाके,जुलूस,धरने,जिंदाबाद-मुर्दाबाद तो खूब कर लेते हैं, लेकिन चुनाव के लिये जो रणनीति बनाकर उसे अमली जाना पहनाना होता है, वहां वे पसर जाते हैं। बूथ स्तर का जाल तो कमजोर है ही, कांग्रेस कार्यकर्ता आम तौर पर मतदाता को जोश के साथ बूथ तक ले जाने की मशक्कत भी अपेक्षाकृत कम करता है। यदि आम कांग्रेसी कार्यकर्ता ने कर्नाटक की जीत के मद्देनजर मप्र में भी सरकार बन जाने के शेख चिल्ली सपने बुन लिये तो अगले पांच साल फिर से उसे चप्पले चटकाने को तैयार रहना होगा।

कांग्रेस में प्रदेश स्तर के नेताओं को कमलनाथ कितना साध पाते हैं और कितने उनका साथ देते हैं,इस पर भी बड़ा दारोमदार रहेगा। कहने को प्रदेश में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह दो ही राष्ट्रीय स्तर के ऐसे नेता हैं, जिनकी प्रदेश में समान जमावट है, लेकिन जब टिकट वितरण की बारी आती है, तब संभाग स्तरीय नेता भी जोर करवा देते हैं। कांग्रेस यदि इस पहलू में कमजोर नहीं पड़ी तो कड़ी टक्कर दे सकती हैं।

राजस्थान तो कमोबेश कांग्रेस के हाथ से खिसकने को बेताब है। इस मकसद में मुख्यमंत्री अशोक गेहलोत और सचिन पायलट कोई कसर बाकी नहीं रखना चाह रहे।वहां भाजपा की दिक्कत दूसरी है। वसुंधरा राजे केंद्रीय नेतृत्व के गले की हड्‌डी हैं। वह उन्हें पसंद नहीं करता, किंतु राजस्थान में हाल-फिलहाल दूसरा दमदार नेता सामने आ न सका है। कहने को गजेंद्र सिंह शेखावत,अश्विनी वैष्णव,भूपेंद्र यादव,अर्जुनराम मेघवाल राजस्थान से केंद्रीय मंत्री हैं और ओम बिरला लोकसभाध्यक्ष हैं, लेकिन राजस्थान की राजनीति में भाजपा की जमीन पर जो जमावट वसुंघरा राजे की है, वो दूसरों की नहीं । इसलिये सारा दारोमदार केंद्रीय नेतृत्व पर रहेगा कि वे किस तरह की संरचना करते हैं, जिससे वसुंधरा की नाराजी भी न रहे और चुनाव एकजुट होकर लड़ा जा सके।

राजस्थान में एक संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। वहां सचिन पायलट भले ही ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह भाजपा में न आये, लेकिन चुनाव के बाद भाजपा यदि बहुमत न जुटा पाये तो ढुलमुल स्थिति में समझौता एक्सप्रेस के चालक वे बन जायें और कांग्रेस व अशोक गेहलोत को ठेंगा दिखा दें।

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